भक्त नामावली हरिवंशी

भक्त नामावली

भक्त नामावली

श्री हरिवंश नाम ध्रुव कहत ही , बाढ़े आनन्द बेलि ।
प्रेम रँग उर जगमगे, जुगल नवल रस केलि ।।1।।

निगम ब्रह्म परसत नहीं, जो रस सब तें दूरि।
कियो प्रकट हरिवंश जु, रसिकनि जीवन मूरि ।। 2।।

श्री वंचन्द्र चरन अंबुज भजहि , मन क्रम बचन प्रतीति।
वृन्दावन निज प्रेम की, तब पावै रस रीति ।। 3।।

श्री कृष्णचंद के कहत ही, मन को भ्र्म मिट जाइ।
विमल भजन सुख सिंधु में, रहे चित ठहराई ।। 4।।

श्री गोपीनाथ पद उर धरें , महा गोप्य रस सार ।
बिनु विलंब आवै हिये , अद्भुत जुगल विहार ।। 5।।

पति , कुटुंब, देखत सबे , घूंघट पट दिये डारि।
देह गेह बिसरयो तिन्हीं, श्री मोहन रूप निहार ।। 6।।

धीर गम्भीर समुद्र सम , सील सुभाव अनूप।
सब अँग सुंदर हँसत मुख, अद्भुत सुखद सरूप।। 7।।

शुक, नारद, उद्धव, जनक, प्रह्लादिक, सनकादिक।
ज्योँ हरि आपुन नित्य हैं, त्यों ये भक्त अनादि ।। 8।।

प्रकट भयो जयदेव मुख, अद्भुत गीत गोविन्द।
कह्यो महा सिंगार रस, सहित प्रेम मकरन्द।। 9।।

पद्मावति जयदेव, प्रेम बस कीने मोहन ।
अष्ट पदी जो कहे, सुनत फिरे ताके गोहन।। 10।।

श्रीधर स्वामी तो मनों, श्रीधर प्रकटे आनि।
तिलक भागवत कियो रचि, सब तिलकनि परवानि।। 11।।

रसिक अनन्य हरिदास जू, गायो नित्य विहार।
सेवा हू में दूरि किए , विधि निषेध जंजार ।। 12।।

सघन निकुंजनि रहत दिन, बाढ्यो अधिक स्नेह ।
एक बिहारी हेत लगि छाँड़ि दिये सुख गेह ।। 13।।

रंक छत्र पति काहु की , धरी न मन परवाह ।
रहे भींजि रस भजन में, लीने कर करुवाह।। 14।।

वल्लभ सुत विठ्ल भये, अति प्रसिद्ध संसार ।
सेवा विधि जिहिं समय की, कीनी तिहि व्योहार ।। 15।।

राग भोग अद्भुत विविध, जो चहिये जिहि काल।
दिनहिं लड़ाये हेत सों गिरधर श्री गोपाल।। 16।।

गौड़ देस सब उद्धरयो, प्रकट कृष्ण चैतन्य।
तेसिहे नित्यानन्दहू , रस में भये अनन्य।।17।।

पावत ही तिनको दरस , उपजै भजनानन्द।
बिनु ही श्रम छूटि जांहि सब, जे माया के फन्द ।। 18।।

रूप सनातन मन बढ्यो, राधा कृष्ण अनुराग।
जानि विश्व नश्वर सबे, तब उपज्यो बैराग।। 19।।

विष सम तज विषय सुख, देस सहित परिवार।
वृंदावन को यों चले ज्यों सावन जलधार ।। 20।।

तृण ते नीचो आपको, जानि बसे बन माँहि।
मोह छाँड़ि ऐसे रहे, मनो चिन्हारिहु नाहिं।। 21।।

रघुनन्दन सारंग जीव, तिन पाछें आये।
कृष्ण कृपा करि सबे, आनि निज धाम बसाये।। 22।।

भजन रसिक रघुनाथ जी, राधा कुंड स्थान।
लोन तक्र ब्रज को लियो, परसयों नहिं कछु आन ।। 23।।

वंदन करिके चिंतवन , गौर श्याम अभिराम।
सोवतहू रसना रटे, राधा कृष्ण सुनाम ।। 24।।

श्री बिलास, ब्रजनाथ अरु, श्री चंद, मुकुंद प्रवीन।
मदन मोहन पद कमल सों, अधिक प्रीति तिन कीन ।। 25।।

महापुरुष नन्दन भये, करि तन सकल सिंगार।
सखी रूप चिंतित फिरे, गौर श्याम सुकुंवार।। 26।।

नैन सजल तिहिं रँग में, चित पायो विश्राम।
विवस बेगि ह्वै जात सुनि, लाल लाडिली नाम ।। 27।।

श्रीकृष्णदास हुते जंगली, तेऊ तैसी भांति।
तिनके उर झलकत रहे, हेम नील मनि कांति।। 28।।

जुगल प्रेम रस अवधि में परयो प्रबोधमन जाइ।
वृन्दावन रस माधुरी, गाई अधिक लड़ाइ।। 29।।

अति विरक्त संसार ते, बसे विपिन तज भौन।
प्रीति सहित गोपाल भट्ट, सेये राधा रौन ।। 30।।

घमंडी रस में घमडि रह्यौ, वृन्दावन निज धाम।
वंसी वट वास किय, गाये स्यामा स्याम ।।31।।

भट्ट नारायण अति सरस्, ब्रज मण्डल सों हेत।
ठौर ठौर रचना करी, प्रकट कियो संकेत।। 32।।

वर्धमान श्रीभट्ट अरु गंगल ब्रज वृन्दावन गायो ।
करि प्रतीति सरवोपरि जान्यो, तातें चित लगायो ।। 33।।

भट्ट गदाधर नाथ भट्ट , विद्या भजन प्रवीन।
सरस् कथा बानी मधुर, सुनि रूचि होत नवीन ।। 34।।

गोविन्द स्वामी गंग अरु, बिष्नु विचित्र बनाइ।
पिय प्यारी को जस कह्यो, राग रँग सों छाइ ।। 35।।

मन मोहन सेवा अधिक, कीनी हे रघुनाथ।
नयारीये रस भजन की, बात परी तिहि हाथ।। 36।।

गिरिधर स्वामी पर कृपा, बहुत भई दई कुंज।
रसिक रसिकनी को सुजस, गायो तिहि सुख पुंज।। 37।।

विठ्ल विपुल विनोद रस, गाई अद्भुत केलि।
बिलसत लाडली लाल सुख, अंसनि पर भुज मेलि।। 38।।

बिहारीदास निजु एक रस, ज्यों स्वामी की रीति।
निर्वाही पाछें भली तोरी सब सों प्रीति।। 39।।

मत्त भयो रस रँग में, करी न दूजी बात।
बिनु बिहार निजु एक रस,और न कछु सुहात।। 40।।

भर किसोर दोउ लाडिले, नवल प्रिया नव पीय।
प्रकट देखियत जगमगे, रसिक व्यास के हीय।। 41।।

कहनी करनी करि गयो, एक व्यास इहि काल।
लोक वेड तजि के भजे, श्री राधावल्लभ लाल।।43।।

सेवक की सर को करे, भजन सरोवर हंस।
मन, बच के धरि एक व्रत, गाये श्री हरिवंश ।। 44।।

वंश बिना हरिनाम हूँ , लियो न जाके टेक।
पावें सोई वस्तु कों, जाकें है व्रत एक।। 45।।

कहा कहौं नहिं कह सकत, नरवाहन को भाग।
श्री मुख जाको नाम धरयो, निजु बानी अनुराग।। 46।।

अति अनन्य निज धर्म में, नाइक रसिक मुकुंद।
बसे विपिन रस भजन के, छाँड़ि जगत दुःख द्वंद।। 47।।

परम् भागवत अति भये, भजन माँहि दृढ धीर।
चत्रभुज वैष्णव दास की, बानी अति गम्भीर।। 48।।

सकल देश पावन कियो, भगवत जसिहि बढ़ाइ।
जहाँ तहां निजु एक रस, गाई भक्ति लड़ाइ।। 49।।

परमानन्द किसोर दोउ, संत मनोहर खेम।
निर्वाह्यो नीकें सबनि , सुंदर भजन की नेम।। 50।।

छाँड़ि मोह, अभिमान सब, भक्तन सों अति दीन।
वृन्दावन बसिके तिन्हीं, फिरि मन अनत न कीन।। 51।।

लालदास स्वामी सरस्, जाकें भजन अनूप।
बरनयो अति दृढ अक्षरनि, लाल लाडिली रूप ।। 52।।

अधिक प्यार है भजन सों, और न कछु सुहात।
कहत सुनत भगवत जसहि, निसि दिन जाहि बिहात।। 53।।

बालकृष्ण गति कहा कहों, कैसेहुँ कहत बनैन ।
रूप लाडली लाल को, झलमलात तिहि नैन।। 54।।

अति प्रवीन पंडित अधिक, लेस गर्व को नाँहि।
कीनी सेवा मानसी , निसि दिन में तेहि माँहि।। 55।।

ग्यानु नाहरमल्ल की, देखि अद्भुत रीति।
हरिवंश चंद पदकमल सों, बाढ़ी दिन दिन प्रीति।। 56।।

कहा कहों मोहनदास रति, ताकी गति भई आन।
व्यासनन्द अंतर सुनत, तजे तिही  छिन प्रान।। 57।।

बीठलदास मुरली धरनि , चरण सेये सब काल।
तेसिहे लाल गोपाल जी, गाये ललना लाल।। 58।।

सुंदर मंदिर की टहल, कीनी अति रूचि मानि ।
सफल करी संपति सकल, लगी ठिकाने आनि।। 59।।

अंगीकृत ताकों कियो , परम् रसिक सिरमौर।
करुणा निधि बहु कृपा करि, दीनी सन्मुख ठौर।। 60।।

बड़ो उपासक गौड़िया, नाम गोसाई दास।
एक चरन बनचन्द बिनु, जाकें और न आस ।। 61।।

नेही नागरीदास अति, जानत नेह की रीति।
दिन दुलाराई लाड़िली, लाल रँगीली प्रीति।। 62।।

व्यासनन्द पद कमल सों, जाके दृढ विस्वास।
जेहि प्रताप यह रस कह्यो, अरु वृंदावन वास।। 63।।

भली भांति सेयो विपिन, तजि बंधुनि सों हेत।
सूर भजन में एक रस, छांडयो नाँहिन खेत।। 64।।

बिहारी दास दम्पति जुगल, माधौ परमानन्द।
वृन्दावन नीके रहे, काटि लाज को फंद।। 65।।

नीकी भाँति मुकुंद की, कैसेहुँ कहत बने न।
बात लाडिली लाल की, सुनि भरि आवें नैन।। 66।।

मन बच करि विस्वास धरि, मारि हिये के काम ।
मात , पिता, तिय छाँड़ि के, बस्यो वृन्दावन धाम।। 67।।

अंतकाल गति कह कहों, कैसेहुँ कही न जाति।
चतुरदास वृंदाविपिन, पायो आछी भाँति।। 68।।

चिंतामनि बातनि सरस्, सेवा माँहि प्रवीन।
कहत सुनत भगवत जसहि, छिन छिन उपज नवीन।। 69।।

नागर अरु हरिदास मिलि, सेये नित हरि-दास।
वृन्दावन पायो दुहिनि, पूजी मन की आस।। 70।।

नवल कल्यानी सखिनु के, मन में अति अनुराग।
लाल लड़ैती कुँवरि को, गायो भाग सुहाग ।। 71।।

भली भाँति वृंदा अली, अति कोमल सु सुभाव।
कृपा लड़ैती कुँवरि की, उपज्यो अद्भुत चाव।। 72।।

कीने रास विलास बहु ,सुख बरसत संकेत।
रचनी रचि कल्यान रूचि, मंडनी दास समेत।। 73।।

सेवा राधारमन की, भक्तनि को सन्मान।
सांते बास जमुना कियो,तिहि सम नहिं कोउ आन।। 74।।

हुते उपासक अधिक ही, या रस में हरिदास।
निसिदिन बीते भजन में , राधाकुंड निवास ।। 75।।

बरसाने गिरिधर सुह्रद, जाके ऐसो हेत।
भोजन हूँ भक्ति बिना, धरयो रहत नहिं लेत।। 76।।

नन्ददास जो कछु कह्यो, राग रँग सों पागि।
अच्छर सरस् स्नेहमय, सुनत स्रवन उठे जागि ।। 77।।

रमनदास अद्भुत हुते, करत कवित सुढार।
बात प्रेम की सुनत ही, छुटत नैन जलधार।। 78।।

बांवरो सो रस में फिरे, खोजत नेह की बात।
आछे रस के बचन सुनि, बेगि बिबस ह्वे जात।। 79।।

कहा कहों मृदुल सुभाव अति, सरस् नागरी दास।
बिहारी बिहारिन को सुजस, गायो हरषि हुलास ।। 80।।

परमानन्द माधो मुदित, नव किसोर कल केलि।
कही रसीली भाँति सों, तिहि रस में रहे झेलि।। 81।।

सेयो नीकी भाँति सों, श्री संकेत स्थान।
रह्यो बड़ाई छांडिके , सूरज द्विज कल्यान।। 82।।

खरगसेन के प्रेम की , बात कही नहिं जात।
लिखत ललित लीला करत, गये प्राण तजि गात।। 83।।

तैसेहि राघोदास की, बात सुनी यह कान।
गावत करत धमारि हरि, गये छूटि तन प्रान ।। 84।।

इही बरन भक्त अद्भुत भयो, और न कछु सुहात।
अंगनि की छवि माधुरी,चिंतत ताहि बिहात।। 85।।

रोमांचित तन पुलक ह्वे, नैन रहे जल पुरि।
जाके आसा एक ही, श्री वृन्दावन की धूरि ।। 86।।

कहा कहो महिमा भाग की, भई कृपा सब अंग।
वृन्दावन दासी गह्यो, जाइ सखिनु को सँग ।। 87।।

लाज छाँड़ि गिरिधर भजी, करी न कछु कुल कान।
सोई मीरा जग विदित, प्रकट भक्ति की खान।। 88।।

ललितहु लाई बोलि के, तासों हो अति हेत।
आनन्द सों निरखत फिरे, वृन्दावन रस खेत।। 89।।

निरतति नूपुर बाँधि के, गावति ले करतार।
बिमल हियो भक्तनि मिली, त्रिन सम गनि संसार।। 90।।

बंधुनि विष ताकों दियो, करि विचार चित आन।
सो विष फिरि अमृत भयो, तब लागे पछतान ।। 91।।

गंगा जमुना तियनि में, परम् भागवत जानि।
तिनकी बानी सुनत ही, बढ़े भक्ति आनि ।। 92।।

कुम्भन कृष्णदास गिरिधरनि सों, कीनी साँची प्रीति।
कर्म धर्म पथ छाँड़िके , गाई निजु रज रीति।। 93।।

पूरनमल जसवंत जी, भूपति गोविंद दास।
हरीदास इनि सबनि मिलि, सेये नित हरि दास।। 94।।

परमानन्द अरु सूर मिलि, गाई सब ब्रज रीति।
भूलि जात विधि भजन की, सुनि गोपिन की प्रीति।। 95।।

माधो रामदास बरसानियां, ब्रज विहार की केलि।
गाये नीकी भाँति सों, तेहि रस में रहे झेलि।। 96।।

सूरदास अति प्रीति सों, कवित रीति भल कीन।
मदन मोहन अपनाई के, अंगीकृत करि लीन।। 97।।

जिन जिन भक्तन प्रीति किय, ताके बस भये आनि।
सेन हेत नृप टहल किय, नामा की छाई छानि ।। 98।।

जगत विदित पीपा घना, अरु रैदास कबीर।
महा धीर दृढ एक रस, भरे भक्ति गम्भीर।। 99।।

जगन्नाथ वत्सल भगत, कीनो जस विस्तार।
माधो भूखो जानि के, लाये भोजन थार।। 100।।

एक समे निसि सीत सों, काम्पन लाग्यो गात।
आनि उढ़ाई तेहि समे, अपने कर सक्लात।। 1।।

बिलु मंगल जब अंध भयो, आपनु कर गहे आइ।
भक्तनि पाछें फिरत यों, ज्यों बछरा सँग गाइ।। 2।।

रामानन्द अंगद सोभू, हरीव्यास अरु छीत।
एक एक के नाम सों, सब जग होत पुनीत।।3।।

रांका बांका भक्त द्वे, महा भजन रस लीन।
इंद्रासन के सुखनि कों, मानत त्रिन ते हीन।। 4।।

नरसी हू अति सरस् हिय, कहा देऊं समतूल।
कह्यो महा सिंगार रस, जानि सुखनि को मूल।। 5।।

दीनी ताकों रीझि कें, माला नन्द कुमार।
राखि लियो अपनी सरन, विमुखनि मुख दे छार।। 6।।

जहाँ तहां भक्तनि को कछु, परत है संकट आनि।
तहां तहां आपुन बीच ह्वे, धरत अभै को पानि।। 7।।

भक्त नरायन भक्त सब, धरें हिय दृढ प्रीति।
बरनी आछी भाँति सों, जैसी जाकी रीति ।। 8।।

रसिक भक्तन भूतल घने, लघु मति क्यों कहे जाहिं।
बुद्धि प्रमान गाये कछु, जो आये उर माँहि ।। 9।।

हरि को निज जस ते अधिक, भक्तनि जस को प्यार।
तातें यह माला रची, करि ध्रुव कंठ सिंगार।। 10।।

भक्तनि की नामावली, जो सुनि है चित लाइ।
ताके भक्ति बढ़े घनी, अरु हरि सोइ सहाइ।। 11।।

एक बार जिनि नाम लिये, हित सो हवें अति दीन।
ताको सँग न छाँड़िही, ध्रुव अपनों करि लीन।। 12।।

ऐसे प्रभु जिन नहिं भजे, सोई अति मतिहीन।
देखि समुझि या जगत में, बुरौ आपुनों कीन।। 13।।

अजहूँ सोचि बिचारि के, गहि भक्तनि पद ओट।
हरि कृपालु सब पाछिली, छमि हैं तेरी खोट।। 14

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