सुनि भी है देखी भी
*जय जय राधिका माधव*
*सुनी भी है,देखी भी*
*पुनि-पुनि सुनि-गुनि पिय वचन,हँसी प्रिया मुख मोर।*
*झूमि झूमि नागर नवल, एंच्यो आँचल छोर।।*
सरोवर तट पर विराजित प्रिया-प्रियतम , न जाने क्यों, आज मौन थे। प्रियाजी अपने आँचल को अपनी भुजा पर लपेटती-खोलती, न जाने किन किन........भाव लहरियों में डूब -उतर रहीं थीं और वे चँचल किशोर सदा से विपरीत, आज गम्भीर बैठे थे, पर उनकी गम्भीर मुखाकृति किन्हीं तरल-मधुर भंगिमाओं से सेवित अपूर्व, अनुपम मधुरिमा लुटा रही थी।
सान्ध्य समय की उस सुरम्य वेला में चपल समीर-झकोरों ने....... अपने बौराये स्पर्श से , भावतल्लीन युगल को झकझोर दिया। किशोरी राधिका के कोमल कलेवर में सिहरन हुई, वे रोमांचित हो गईं।उनकी सिहरन और रोमांच ने रसीले किशोर को पुलकित कर दिया । उनकी ठाड़ी रोमराजि , मानों ....... प्रिया की खड़ी रोमावली को भेंटने समेटने के लिए अधीर हो उठी। उन्होंने अपनी कोमल अंगुलियों से प्रिया की चिबुक उठा, कपोल सहला, उनका मुख अपनी ओर किया।उनके अधमुंदे नयनों में झाँक, सुरससिंचना द्वारा उन्हें पुलकाते, वे रँगाधिपति बोले, "प्रिये ! तरँगनिधि के अन्तस्तल से उठती अदम्य रसरङ्ग लहरियों के उन्मुक्त, उन्मत्त उच्छलन को संयम में कोई ला सकता है भला ? क्या जाने तुम विश्वास करोगी कि नहीं।एक विचित्र बात है। ऐसे समय में सुरस तरंगिणी ने उमड़ कर उन मदलहरियों को, उतुंग को......... सहज ही थाम लिया। थामने-सम्भलने में .....वह रस तरंगिणी कितनी-कितनी बार स्वयम चँचल हुई और उस चंचलता ने ही सिन्धु की उत्ताल-तरंगों को....... । ओह ! वह उच्छलन !वह वेग ! उसकी सम्भार-सत्कार ! हाँ, तो तुमने कभी सुनी है यह बात ? बताओ, प्रिये ।"
प्रियाजी केे मदुलाधरों पर हास-रश्मियाँ फूट पड़ीं, वह पुलकीं।वदन विधु तनिक फेर, वे मन्हास बिखेरती रहीं।एक बार बंक चितवन से प्रियतम को निहार,वे मौन ही बैठी रहीं। उनकी मुस्कान और अवलोकन-माधुरी ने उन रसोन्मादी , सुकुमार-सुन्दर को रसझूम से आलोकित कर दिया, वे झूम उठे। किशोरी के आँचल-छोर को झटक, उन्हें तनिक झकझोर, मत्तवाणी में बोले," मेरी बात का उत्तर दो न प्रिये ! सच सच बताओ क्या तुमने ऐसी अद्भुत बात सुनी है क्या ?"
प्रियाजी एक बार खिलखिलाकर हँस पड़ीं;फिर आप ही संकुचित हो , धीमे स्वर में बोली, "हाँ, सुनी भी है और देखी भी है।" इतना कहा और अपने में ही सिमटी-समाई सी रसीली राधिका प्रिय के विशाल वक्षःस्थल पर शीश टिका, दक्षिण बाहु उनकी कटि में लपेट, वामकर उनकी अंक में धरे...... पुलक उठीं । रसरंगनिधि के उरन्तर को, उस पुलकन-सिहरन ने मथित सा कर दिया।
कुछ देर, उन सुरस तरंगों में भीजे, रीझे से वे तरलित युगल यों ही मुग्ध-लुब्ध से , स्तब्ध-स्तम्भित बैठे रहे। रँग तरँगनिधि और सुरस तरंगिणी के सुमधुर सुअंग सम्मिलन में स्तम्भित स्थिति बनी न रह सकी। रसरङ्ग तरंगों का उफान, उफनते सुरताब्धि का रसोन्माद और सुरस-सरिता की ...... रसविवश्ता ! ओह ! 'सुनने' 'देखने' की बात इन हिलोरों में, न जाने कहाँ जा समाई। सुनने-देखने की सुधि भला अब किसे थी।
सचमुच ही तरँगनिधि उमग रहा था, उन्मत्त हो स्वेग उच्छलन ..... से पूजित बौरा रहा था और उसकी उमग्न-उच्छलन को असीम-अबाध आलोड़न-विलोड़न को रस्तरंगिणी अपनी सुरस उमड़न, रसीली अंग भंगिमा , रसीली रस-चेष्टाओं द्वारा थाम रही थी।
सन्ध्या की कजरारी शोभा, रकानिशि की उज्ज्वल छटा में परिणत हो गयी। सरोवर में चन्द्रमा झिलमिला उठा। मधुर ज्योत्स्ना से सरोवर, सरोवरतट और तटीय उपवन खिल उठे। क्या पता, वह उफान कब तक संयम में आया और कब फिर गतिमान हो उठा। चन्द्रिका अपने उजले आँचल में उन्हें स्वछन्द रँग तरंगों में विलसने, हुलसने के उपकरण सँजोती, सामग्री जुटाती रही, और वे तरंगित युगल !
*जय जय राधिका माधव*
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