सांझी लीला
सांझी लीला -
ब्रज में सांझी की अनूठी परंपरा
सांझी ब्रजमंडल के हर घर के आंगन और तिवारे में ब्रजवासी राधारानी के स्वागत के लिए सजाते रहे हैं। राधारानी अपने पिता वृषभानु जी के आंगन में सांझी क्वार के पितृ पक्ष में प्रतिदिन सजाती थीं कि उनके भाई श्रीदामा का मंगल हो। इसके लिए वे फूल एकत्रित करने के लिए वन और बाग़ बगीचों में जाती थी। इस बहाने राधाकृष्ण (प्रिया प्रियतम) का मिलन होता था। उसी मर्यादा को जीवित रखते हुए ब्रज की अविवाहित कन्याएं आज भी क्वार मास के कृष्ण पक्ष (पितृ पक्ष) में अपने घरों में गाय के गोबर से सांझियां सजाती हैं। इसमें राधाकृष्ण की लीलाओं का चित्रण अनेक संप्रदाय के ग्रंथों में मिलता है ताकि राधा कृष्ण उनकी सांझी को निहारने के लिए अवश्य आएगें। राधा जी के धाम वृन्दावन और बरसाना के आसपास के क्षेत्रों में आज भी यह परंपरा जीवित है। शुरू में पुष्प और सूखे रंगों से आंगनों को सांझी से सजाया जाता था लेकिन समय के साथ सांझी सिर्फ़ सांकेतिक रह गई।
सरसमाधुरी काव्य में सांझी का कुछ इस तरह उल्लेख किया गया है कि सलोनी सांझी आज बनाई
'श्यामा संग रंग सों राधे, रचना रची सुहाई।
सेवाकुंज सुहावन कीनी, लता पता छवि छाई।
मरकट मोर चकोर कोकिला, लागत परम सुखराई।
कविवर सूरदास ने सांझी पर पद प्रस्तुत किया कि
ऐ री तुम कौन हो फुलवा बिनन हारी।।
नेह लगन को बनो बगीचा फूलि रही फुलवारी।
आपु कृष्ण वनमाली आये तुम बोलो क्यों न प्यारी।।
हँसि ललिता जब कह्यो श्याम सौ ये बृषभानु दुलारी।
तुम्हरो कहा लगे या वन में रोकत गेल हमारी।।
श्याम सखा सखियन समझावै हठ न करो मेरी प्यारी।
फल द्रुम वन वाटिका सुघर के हमही है रखवारी।।
राधेजु फल फूल लिये है विविध सुगन्ध सम्हारी।
सूरश्याम राधा मुख निरखता एक टक रहे निहारी।।।
निम्बार्क संप्रदाय की महावाणी में भी हरिप्रिया दास ने सांझी का दोहा के रूप में उल्लेखित किया है कि'
चित्र विचित्र बनाव के, चुनिचुनि फूले फूल।
सांझी खेलहिं दोऊ मिल, नवजीवन समतूल।'
राधाकृष्ण लीला में मिलन पक्ष को प्रकट करने वाली सांझी लीला ठाकुर श्रीराधागोविन्द मंदिर, राधावल्लभ, श्रीजी मंदिर में सीमित हो गयी है ।
माधव गोस्वामी सेवाधिकारी श्री राधा रानी मन्दिर बरसाना धाम
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