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मोरकुटी युगलरस लीला-32
जय जय श्यामाश्याम !!
"सोहत जुगल राधे-स्याम।
नील नीरद स्याम,गोरी राधिका अभिराम।।
पीत बसन सुनील तन पर लसत सोभा-धाम। नील सारी अति सुसोभित गौर देह ललाम।।
उभय अनुपम रूप-निधि,सृंगार के सृंगार।
सील-गुन-माधुर्य-मंडित अतुल,सुषमागार।।
दिब्य देह,सुमन अलौकिक सुचि सदा अबिकार।
सर्ब,सर्वातीत,निरगुन,सकल गुन आधार।।
प्रकृति-गत,नित प्रकृतिपर,रस दिब्य पारावार।
एक नित जो,बने नित दो करत नित्य बिहार।।
करत अति पावन परस्पर प्रेममय ब्यौहार।
स्व-सुख-बाँछा-रहित पूरन त्यागमय आचार।।"
अद्भुत रस बरस रहा है युगल चरणों से।धन्य यह मोरकुटी धन्य यह कमल पुष्प और अति धन्य वह पराग कण जिन पर श्रीयुगल परस्पर सुख हेतु महारास रसक्रीड़ा में तन्मयता पूर्वक प्रेम निमग्न हैं।एक दूसरे को सुख पहुँचाने हेतु दोनों ही परस्पर एक दूसरे में खोए से हैं।
जहाँ श्यामा जु की नूपुर ध्वनि की सुमधुर ताल देती है वहीं श्यामसुंदर जु की करधनी की घंटियाँ बज उठतीं हैं।श्यामा जु की पैंजनियों की मधुर छन छन पर प्रियतम की पगड़ी के सिरपेच व मणियाँ नाच उठतीं हैं।चूड़ियों की मधुर झंकार प्रियतम के कर्णफूलों को ध्वनित करते हैं तो श्यामा जु की कटि पर लटकती कमरबंध की किंकणियाँ श्यामसुंदर जु की नयन पुतलियों को नचाती हैं।
जहाँ श्यामा जु के वक्ष् पर झूलती मणि रत्न युक्त गलमालाएँ हैं वहीं श्यामसुंदर जु के हृदय की वीणा के तार तेज़ धड़कन रूप बज उठते हैं।श्यामा श्यामसुंदर जु की अंगकांति रात्रि के अंधकार को ऐसे चीरती है जैसे नृत्य मुद्रा करते घन दमकती दामिनी एकमेक हो रहे हों।परस्पर बीच बीच में श्यामा जु का अंगस्पर्श श्यामसुंदर जु को कंपायमान करता है तो श्यामा जु श्यामसुंदर जु का अंग स्पर्श पाकर स्पंदन से सिमट सी जाती हैं।
एक तरफ तो श्यामसुंदर जु हैं जिनकी पलकें नहीं झुकतीं झपकतीं ना नेत्र हटते हैं अपनी प्राणप्रियतमा जु की अद्भुत सुंदर रूप माधुरी से और दूसरी ओर श्यामा जु अति शरमाई सी पलकों को झुकाए हुए प्रतिपल करूणा भरे नेत्रों में लज्जा की नमी का पर्दा किए हुए हैं।श्यामसुंदर जु श्यामा जु की त्रिभुवन को लजा देने वाली अंगकांति का पान करते सम्पूर्ण देह को नेत्र बनाए हुए हैं तो वहीं श्यामा जु अपनी अनंत कायव्यूहरूप सखियों के भावचित्रण को स्वयं में समेटे हुए महारास की वेला में भी कभी चूनर तो कभी हस्तकमलों से नृत्य मुद्रा में ही अंगों को छुपातीं स्पंदित होतीं हैं।
पर रसपिपासु भ्रमर श्यामसुंदर जु के नयनों के तीक्ष्ण बाणप्रहारों से स्वयं को लाज की झीनी चूनर में आखिर कब तक छुपा लेतीं श्यामा जु।तुरंत सुघड़ भावभंगिमाओं में नृत्य क्रीड़ा को नव रूप देतीं हैं और तेज रफ्तार से पुष्प के गोलाकार पराग कालीन पर गोलाकार घूमती श्यामा जु मनमोहन श्यामसुंदर जु को चौंका देतीं हैं।पर श्यामसुंदर जु भी पल नहीं लगाते श्यामा जु के भाव को पकड़ने में और वे भी उनके साथ ही गोलाकार घूम कर एक चक्कर लगा देते हैं।यूँ ही सुंदर भावरसक्रीड़ाएँ करते श्यामा श्यामसुंदर जु कुछ समय ताल से ताल मिलाते नाचते हैं।
श्यामसुंदर जु श्यामा जु के श्रमित होने का भान पाते ही फेंट से वंशी निकाल बजाने लगते हैं और श्यामा जु भी इसी भय से श्यामसुंदर जु के विशाल वक्ष् से लग मुग्ध सी गलबहियाँ डाले खड़ी हो जातीं हैं।
"दोऊ सदा एक रस पूरे।एक प्रान,मन एक,एक ही भाव,एक रँग रूरे।।
एक साध्य,साधनहू एकहि,एक सिद्धि मन राखैँ।
एकहि परम पवित्र दिब्य रस दुहू दुहुनि कौ चाखैँ।।
एक चाव,चेतना एक ही,एक चाह अनुहारे।
एक बने दो एक संग नित बिहरत एक बिहारै।।"
बलिहार !!सखीवृंद किशोरी श्यामा जु और रसिक शिरोमणि श्यामसुंदर जु सदा से ही परस्पर नित्य नव विहार रसलीला में निमग्न एकरस एकरूप वृंदावन आनन कानूनों में विहरते रहते हैं।अद्भुत भावरस में मग्न रसिकवर नित्य पल नव रसक्रीड़ा का दर्शन कर रहे हैं और निरंतर छके हुए से अपने प्राणधन नित्य नव नवनीत युगल में ही रमे हुए हैं।एक एक भावरस भंगिमा का नितांत रसपान करते युगल अपने भक्तों को भी नव नव रसपान कराते हैं और इनकी कृपा से यह आशीष रूप दिव्य रस किंचन अकिंचन सब बड़भागी जीव प्राणियों पर बरस रहा है।
क्रमशः
जय जय युगल !!
जय जय युगलरस विपिन वृंदावन !!
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