सन्त कृष्ण दास जी
*"सन्त कृष्णदासजी"*
यह बात संसार में प्रसिद्ध है कि कृष्णदासजी ने लोगों को प्रेमरस अनुभूति कराई और ठाकुर श्रीनाथ जी ने आपको सच्चा भक्त कहके अपनाया। "आपने 'प्रेमतत्व निरुपण' नामक ग्रन्थ लिखा जिसे श्रीनाथ जी ने स्वयं मान्यता प्रदान की।" उस समय लाड़ले श्रीनाथजी ब्रज में ही गिरिराज शिखर पर विराज रहे थे, वहीं उनकी अष्टायाम सेवा होती थी।
एक बार कृष्णदास जी किसी कार्य से दिल्ली बाजार में गए वहाँ आपने गर्मा-गर्म जलेबियाँ बिकती देखीं, मन में इच्छा हुई कि इन स्वादिष्ट जलेबियों को अपने श्रीनाथजी को पवाने लिए ले जायें, किन्तु वहाँ दिल्ली से गोवर्धन (ब्रज) तक जलेबी ले जाते-जाते इतना अधिक समय हो जाता की वो जलेबियाँ भोग लगाने लायक न रहतीं, और फिर श्रीनाथ जी की सेवा में बाहर की किसी भी वस्तु का भोग निषेध था। कृष्णदास जी को बड़ा क्षोभ हुआ, वहीं उन जलेबियों को देखते हुए नेत्र सजल हो गए, आपने वहीं उन जलेबियों का मानसी भोग ठाकुर जी को लगा दिया। जब श्रीनाथ जी के मंदिर में जब भोग उसारा गया तो अन्य सामग्रियों के साथ जलेबियों का थाल भी पुजारियों ने देखा, सभी आश्चर्यचकित रह गए, ठाकुर जी ने कृष्णदास जी की मानसी सेवा को भी प्रत्यक्ष में स्वीकार कर लिया।
जब कृष्णदास जी पुनः लौटकर ब्रज आये और गोस्वामी विट्ठलनाथ जी ने उन्हें श्रीजी के भोग में जलेबियों के थाल वाली बात कह सुनाई तो कृष्णदास जी को मन ही मन बहुत प्रसन्नता हुई। किन्तु उन्होंने आचार्यो के समक्ष इन जलेबियों के रहस्य को गुप्त रखना ही उचित समझा व ह्रदय से श्रीनाथजी को धन्यवाद दिया। एक दूसरी घटना इस प्रकार कही जाती है कि-
एक दिन किसी वेश्या का नृत्य व गायन सुनकर आप उसपर रीझ गए और प्रेम के आवेश में भरकर आपने उस वेश्या से कहा - 'चंदमा के समान मुखवाले मेरे सरकार लालजू को अपना मधुर गाना सुनाने व नृत्य से रिझाने को आप मेरे साथ चलिये। इस कार्य के लिए मैं आपको बहुत सा धन दूँगा। वेश्या ने सोचा ये अवश्य ही कोई रस का मर्मज्ञ है और धन के लोभ में उनके साथ चल दी। आप भी लोक लज्जा को तिलांजलि देकर उस वेश्या को अपने साथ ही रथ में बैठाकर ब्रज में ले आये। जिस किसी ने भी आपको वेश्या के साथ देखा सब देखकर चकित रह गए। आज न जाने कृष्णदास जी को क्या हो गया और कोई तो गोस्वामी विट्ठलनाथजी को ही कोसने लगा कि ऐसे अनाअधिकारी को सेवा का अधिकार देकर विट्ठलनाथ जी ने घोर अनर्थ किया है। इधर कृष्णदास जी ने वेश्या को ब्रज में लाकर उसे यमुना जी के शुद्ध जल से स्नान कराया। श्री ठाकुरजी के ही सुन्दर आभूषण व् वस्त्र उसे पहनने को दिए और सुन्दर इत्र लगाकर उसे श्रीनाथ जी के मंदिर में ले आये।
श्रीनाथ जी के मनमोहक दर्शन कर वेश्या तो अपनी सुधबुध ही खो बैठी और अलापचारि करके नाचने लगी। उसे इस प्रकार प्रेम में विहल देखकर आपने पूछा- मेरे लाला को तूने देखा ? वेश्या ने उत्तर दिया- "देखा ही नही, मैंने तो उनपर अपना सर्वस्व न्योछावर भी कर दिया।" वेश्या ने सुधबुध खोकर दिल से नाचा, गाया, भगवत प्रेम में सराबोर होकर ताने सुनाईं, मुस्कराई और ठाकुर जी के नैनों की छवि में मानों लिपट कर रह गयी। इस प्रकार भगवान को अपने शुद्ध प्रेम और कला से रिझाकर वह तदाकार हो गयी। उस समय श्रीमंदिर में सैकड़ो लोगों ने यह अद्भुत दृश्य देखा, किस तरह प्रभु श्रीनाथ जी के चरणों से लिपटकर उस वेश्या की जीवनसत्ता नष्ट हो गयी और प्रेम की चरमावस्था में पहुँचकर उस वेश्या का शरीर छूट गया। भगवान ने अपनी इस भक्ता को अंगीकार किया, और शरीर समेत वेश्या श्री चरणों में विलीन हो गयी।
अहा ! कितनी अद्भुत गति है शायद ही किसी बहुत बड़े भक्त या मंदिर में सेवायत किसी जीव की भी ये गति संभव न हो। "एक तो अंत में ब्रजरज का स्पर्श और फिर गोवर्धन में प्रभु श्रीनाथ जी का श्रीमंदिर और उसमे भी साक्षात् श्रीनाथजी प्रभु के श्रीचरणों में उन्हें ही रिझाते हुए प्राण त्यागने का सुअवसर"। कहाँ वो नित्य पाप में आसक्त रहने वाली वेश्या किन्तु आज एक सच्चे वैष्णव भक्त की कृपा से अनजाने में ही देवदुर्लभ परम गति को प्राप्त किया। "वास्तव में श्रीनाथ जी ने तो उस वेश्या को उसी समय अंगीकार कर लिया था जिस क्षण कृष्णदास जी उस वेश्या को श्रीनाथजी को रिझाने के लिए मना रहे थे।"
परिचय
यह वही कृष्णदास जी हैं जिनका उल्लेख गोस्वामी विट्ठलनाथ जी के चरित्र में होता है। कृष्णदास जी अपने गुरु श्री वल्लभाचार्य जी द्वारा चलाई गयी भजन की प्रणाली के समुद्र थे। भक्त में जितने भी गुण होना चाहिए उन सबकी खान थे। आपकी कविता अनुपम तथा दोषों रहित होती थीं। आपकी कवित्व वाणी का विद्वानों में आदर था, क्योंकि उनमे सिर्फ गोपाल की लीलाओं का वर्णन होता था। आप ब्रजरज की आराधना करते थे, और सर्वतोभावेन उसे शरीर में लगाते थे। भगवान ने आप पर प्रसन्न होकर अपने नाम का अधिकारी आपको बनाया था, अर्थात कृष्णदास नाम रखा था। आपका जन्म गुजरात के एक गाँव के शुद्र के घर में हुआ था किन्तु आचार्य के कृपापात्र व श्रीजी की अनन्य कृपा होने के कारण मंदिर के प्रधान मुखिया हो गए थे। आपका लिखा युगलमान चरित्र नामक छोटा सा ग्रन्थ मिलता है। आपने राधा-कृष्ण प्रेम को लेकर बड़े ही सुन्दर पद लिखे। जिस पद को गाकर कृष्णदास जी ने शरीर छोड़ा वह पद इस प्रकार है :-
मो मन गिरिधर छवि पर अटक्यो।
ललित त्रिभंग चाल पे चलि कै चिबुक चारि गढ़ि अटक्यो।
सजन श्याम घन बरन खोन हे ,फिर चित अनत ना भटक्यो।
कृष्णदास किये प्राण न्यौछावर ,यह तन जग सर पटक्यो।
मो मन गिरिधर छवि पर अटक्यो।।मो मन गिरिधर।।
मंदिर के अधिकार तथा सुव्यवस्था के कारण वल्लभ संप्रदाय के इतिहास में कृष्णदास जी का महत्त्व और ख्याति इतनी बढ़ गयी कि आज तक श्रीनाथ जी के स्थान पर "कृष्णदास अधिकारी" की मोहर लगती है। श्रीनाथ जी का नवीन मंदिर प्रवेश १५६६ ई. की अक्षय तृतीय को हुआ था। कृष्णदास जी इस घटना के कुछ ही दिन पूर्व वल्लभाचार्य जी की शरण में आये थे। कहते है इस समय उनकी अवस्था मात्र १३ वर्ष थी। इस हिसाब से इनका जन्मकाल १५५२ वि. के आस पास आता है संवत १६३१ तक इनके जीवित रहने का अनुमान लगाया जाता है।
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"जय जय श्री राधे"
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