बरज के भक्त ईश्वरदास बाबा जी
*"व्रज के भक्त-66"*🙏🏻🌹
*श्रीईश्वरदास बाबाजी*
*(वृन्दावन)*
दिल्ली के श्रीईश्वरदयाल माथूर बी. ए. पास करने के बाद वृन्दावन की साधु माँ के शिष्य पं० मंगलसेन के सम्पर्क में आये। २५ वर्ष की अवस्था में उनसे दीक्षा ले वृन्दावन चले गये। दो-तीन वर्ष प्रेम महाविद्यालय में अध्यापन कार्य किया। इस बीच उनका मन भजन में इतना रम गया कि अध्यापन करना सम्भव न रहा। नौकरी से इस्तीफा दे उन्होंने किसी से वेश ले लिया। नाम हुआ ईश्वरदास।
अब उनका अधिकांश समय श्रीगौरांगमहाप्रभु की लीला से सम्बन्धित पदों की रचना करने में जाता। वे पद-रचना करते और श्रीओमप्रकाशजी कीर्तनियाँ नृत्य-कीर्तन सहित उनका अभिनय करते। अपनी रचनाओं का इस प्रकार कीर्तन और अभिनय के माध्यम से मूर्तरूप में आस्वादन कर वे आत्म-विभोर हो जाते। श्री ओमप्रकाशजी ने गौर-लीला-कीर्तन में निष्णात हो जो भक्त-समाज की सेवा की वह अपूर्व है। पर कम ही लोग जानते हैं कि उसके पीछे श्रीईश्वरदास बाबा का कितना हाथ था।
ईश्वरदास बाबा को ही आचार्य श्रीकिशोरीरमणजी की भागवत-कथा निष्णात करने का श्रेय है। १७ वर्ष की अल्पावस्था में ही उन्होंने आग्रहपूर्व उनसे भागवत सप्ताह की कथा कहलाना प्रारम्भ किया। वे नित्य परिश्रम कर कथा की रूपरेखा तैयार करते। किशोरीरमणजी उनसे उसकी व्याख्या सुनते और उसी के अनुरूप कथा कहने की चेष्टा करते। बाबा भी उस कथा में एक श्रोता होते। कथा के पश्चात् वे उनका ध्यान आकर्षित करते कथा के उन अंशों की ओर, जो भूल से रह जाते, या जिनका सिद्धान्त वे ठीक से व्यक्त न कर पाते।
ईश्वरदास बाबा ने पण्डित रामकृष्णदास बाबा का संग बहुत किया। श्रीगौरांगदास बाबाजी से भी वे बहुत प्रभावित थे। उनकी कथा वे बड़े ध्यान सेसुनते और उसके नोट्स लेते। उनकी कथा सुनते-सुनते उनका श्रीराधाकृष्ण के चरणों में अनुराग बहुत बढ़ गया। वे राधाकृष्ण के विग्रह की सेवा करते और उसके माध्यम से अष्टकालीन लीला का चिन्तन करते। सेवा करते समय वे सखीवेश धारण करते और कुटिया का दरवाजा बन्दकर लेते।
ठाकुर की वे आत्मवत् सेवा करते। उन्हें अपने बगल में ही दूसरे पलंग पर सुलाते। रात्रि में अपने को प्यास लगती, तो पहले उन्हें जल पिलाकर आप पीते, अपने को ठण्ड लगती, तो पहले उन्हें दोहर या रजाई उढ़ाकर अपने आप ओढ़ते।
कुछ दिन पूर्व ईश्वरदास बाबा टिकारी घाट से बिहारीपुरा चले आये थे और अब स्थायी रूप से सेवाकुञ्ज स्थित गोपालकुटी में रहने लगे थे। नवीन अवस्था के दो बाबाजी श्रीगोपालदास और श्रीरामदुलारे उनके पास रहते थे, जो उनकी सेवा करते थे।
एक बार बाबा बीमार पड़े। ठाकुर-सेवा में गोपालदास बाबा को नियुक्त करना पड़ा। गोपालदास नित्य प्रेम से सेवा करने लगे। एक दिन उन्हें सेवा करते समय राधारानी के पैर का नूपुर न मिला। बहुत खोजकर हार गये तो डरते-डरते बाबा से कहा। बाबा ने कहा - 'चौकी, सिंहासन, पलंग आदि सब ठीक से देखो, जायगा कहाँ ?' गोपालदास के फिर खोजने पर भी जब नूपुर न मिला, तो बाबा कुछ चिन्ता में पड़ गये। थोड़ी देर आँखें बन्द किये न जाने क्या सोचते रहे। फिर एकाएक बोल पड़े-'गोपाल, यह दोनों नित्य रात्रि में सेवाकुञ्ज में रास करने जाते हैं न ! देख जाकर, कहीं रास चबूतरे पर न गिरा आये हों।'
गोपालदास बाबा भागे गये सेवाकुञ्ज। पुराने रास-चबूतरे पर वे जैसे ही चढ़े उसके ईशान भाग में नूपुर पड़ा देख खुशी से उछल पड़े। उसे उठाकर अपने अश्रुसिक्त नेत्रों से लगाया। कुटिया पर आकर जब बाबा को दिया, वे रो पड़े और बोले- 'हाय ! मैं अभी भी लाड़िली की सेवा के योग्य न बन सकी। रास के समय सेवा में मेरी असावधानी के कारण ही तो नूपुर वहाँ पड़ा रह गया !'
बाबा लगातार तीन वर्ष वीमार रहे। धीरे-धीरे उनकी शक्ति इतनी क्षीण हो गयी कि वे करवट भी अपने-आप न बदल सकते। पर उनका लीला चिन्तन बराबर चलता रहा। अन्त में एक दिन रात में उन्होंने कहा-'मुझे रज में लिटा दो।'
उन्हें भूमिपर लिटा दिया गया। गोपाल और रामदुलारे उनके दोनों ओर बैठकर महामन्त्र का कीर्तन करने लगे। रात को ३॥ बजे उन्होंने पूछा - 'कै बजे हैं ?' ४ बजे फिर पूछा- 'कै बजे हैं ?' तीसरी बार जब पूछा तो गोपाल ने कहा-४॥ बजे हैं। राधारमण की मंगला का घण्टा बज रहा है।'
'अच्छा !' कह वे चौंक पड़े। मन्द स्वर में मंगला का पद गुनगुनाने लगे। पद समाप्त होते ही न जाने कहाँ से शक्ति प्राप्तकर वे एकदम उठ बैठे और दोनों भुजाएँ ऊपर उठाकर मन्द स्मित के साथ सजल और विस्फारित नेत्रों से टकटकी लगाए अपने बायीं ओर ऊपर किसी को देखते हुए चीख पड़े- 'लाड़ली-लाल की जय ! लाड़ली-लाल की जय ! लाड़िली-!' बस इतना ही कह पाये थे कि उनका पार्थिव शरीर रज में लुढ़क गया। तीसरी बार 'लाड़ली' कहने के साथ ही वे सिद्ध देह से लाड़िली के चरणों में जा पहुँचे !
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लेखक: बी. एल कपूर
पुस्तक: व्रज के भक्त
(द्वितीय खण्ड)
"जय जय श्री राधे"
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