भक्त दर्जी

*"भक्त दर्जी और सुदामा माली"*🙏🏻🌹

         मथुरा में एक भगवद्भक्त दर्जी रहता था। कपड़े सीकर अपना तथा अपने परिवार का पालन करता एवं यथासंभव दान करता था। भगवान का स्मरण, पूजन, ध्यान ही उसे सबसे प्रिय था। इसी प्रकार सुदामा नामक एक माली भी मथुरा में था। भगवान की पूजा के लिये सुन्दर-से-सुन्दर मालाएं, फूलों के गुच्छे वह बनाया करता था। दर्जी और माली दोनों ही अपना-अपना काम करते हुए बराबर भगवान के नाम जप करते रहते थे और उन श्यामसुन्दर के स्वरूप का ही चिन्तन करते थे।
         भगवान न तो घर छोड़कर वन में जाने से प्रसन्न होते हैं और न तपस्या, उपवास या और किसी प्रकार शरीर को कष्ट देने से। उन सर्वेश्वर को न तो कोई अपनी बुद्धि से संतुष्ट कर सकता है और न विद्या से। बहुत-से ग्रंथों को पढ़ लेना या अद्भुत तर्क कर लेना, काव्य तथा अन्य कलाओं की शक्ति अथवा बहुत-सा धन परमात्मा को प्रसन्न करने में समर्थ नहीं है। दर्जी और माली दोनों में से कोई ऊंची जाति का नहीं था। किसी ने वेद-शास्त्र नहीं पढ़े थे, कोई उनमें तर्क करने में चतुर नहीं था और न ही उन लोगों ने कोई बड़ी तपस्या या अनुष्ठान ही किया था। दोनों गृहस्थ थे। दोनों अपने-अपने काम में लगे रहते थे। परंतु एक बात दोनों में थी, दोनों भगवान के भक्त थे। दोनों धर्मात्मा थे। अपने-अपने काम को बड़ी सच्चाई से दोनों करते थे। ईमानदारी से परिश्रम करके जो मिल जाता, उसी में दोनों को संतोष था। झूठ, छल, कपट, चोरी, कठोर वचन, दूसरों की निन्दा करना आदि दोष दोनों में नहीं थे। भगवान पर दोनों का पूरा विश्वास था। भगवान को ही दोनों ने अपना सर्वस्व मान रखा था और ‘राम, कृष्ण, गोविन्द‘ आदि पवित्र भगवननाम् उनकी जिह्वा पर निरन्तर नाचा करते थे। भगवान को तो यह निश्छल सरल भक्ति-भाव ही प्रसन्न करता है।
         जब अक्रूर जी के साथ बलराम और श्रीकृष्णचन्द्र मथुरा आये तो अक्रूर को घर भेजकर भोजन तथा विश्राम करने के पश्चात दिन के चौथे पहर वे सखाओं से घिरे हुए मथुरा नगर देखने निकले। कंस के घमंडी धोबी को मारकर श्यामसुन्दर ने राजकीय बहुमूल्य वस्त्र छीन लिये। वस्त्रों को स्वयं पहना, बड़े भाई को पहनाया और सखाओं में बांट दिया। वे वस्त्र कुछ राम-श्याम तथा बालकों के नाप से तो बने नहीं थे, अत: ढीले-ढाले उनके शरीर में लग रहे थे। भक्त दर्जी ने यह देखा और दौड़ आया वह। त्रिभुवनसुन्दर श्रीकृष्णचन्द्र हंसते हुए उसके सम्मुख खड़े हो गये। जिनकी एक झांकी के लिये बड़े-बड़े योगीन्द्र-मुनीन्द्र तरसते रहते हैं, वे श्यामसुन्दर दर्जी के सम्मुख खड़े थे। महाभाग दर्जी ने उनके वस्त्रों को काट-छांटकर, सीकर ठीक कर दिया।
         बलराम जी तथा सभी गोप बालकों के वस्त्र उसने उनके शरीर के अनुरूप बना दिये। प्रसन्न होकर भगवान ने दर्जी से कहा- "तुम्हें जो मांगना हो, मांगो।" दर्जी तो चुपचाप मुख देखता रह गया। श्रीकृष्णचन्द्र का। उसने किसी इच्छा से, किसी स्वार्थ से तो यह काम किया नहीं था। हाथ जोड़कर उसने प्रार्थना की- "प्रभो! मैं नीच कुल का ठहरा, मुझे आप लोगों की सेवा का यह सौभाग्य मिला, यही क्या कम हुआ।" भगवान ने दर्जी को वरदान दिया- "जब तक तुम इस लोक में रहोगे, तुम्हारा शरीर स्वस्थ, सबल, आरोग्य रहेगा। तुम्हारी इन्द्रियों की शक्ति क्षीण नहीं होगी। तुम्हें सदा मेरी स्मृति रहेगी। ऐश्वर्य तथा लक्ष्मी तुम्हारे पास भरपूर रहेंगी। इसके पश्चात मेरा रूप धारण करके तुम मेरे लोक में मेरे पास रहोगे। तुम्हें मेरा सारूप्य प्राप्त होगा।"
         इसके पश्चात श्रीकृष्णचन्द्र सुदामा माली के घर गये। सुदामा तो राम-श्याम को देखते ही कीर्तन करते हुए आनन्द के मारे नाचने लगा। उसने भूमि में लोटकर दण्डवत प्रणाम किया। सब को आसन देकर बिठाया। सखाओं तथा बलराम जी के साथ श्यामसुन्दर के उसने चरण धोये। सब को चन्दन लगाया, मालाएं पहनायीं, विविधत सब की पूजा की। पूजा करके वह हाथ जोड़कर स्तुति करने लगा। उसने कहा- "भगवन! मैंने ऋषि-मुनियों से सुना है कि आप दोनों ही इस जगत के परम कारण हैं। आप जगदीश्वर हैं। संसार के प्राणियों का कल्याण करने के लिये, जीवों के अभ्युदय के लिये आपने अवतार लिया है। आप तो सारे संसार के आत्मस्वरूप हैं। सभी प्राणियों के सुहृद हैं। आप में विषमदृष्टि नहीं है। सभी प्राणियों में समरूप से आप स्थित हैं। फिर भी जो आपका भजन करते हैं, उन पर आपका अनुग्रह होता है। मैं आपका दास हूँ, अत: मुझे कोई सेवा करने की आज्ञा अवश्य करें, क्योंकि आपकी सबसे बड़ी कृपा जीव पर यही होती है कि आप उसे अपनी सेवा का अधिकार दें। आपकी आज्ञा का पालन करना ही जीव का परम सौभाग्य है।"
         सुदामा ने सखाओं के साथ भगवान की पूजा कर ली थी, उन्हें मालाएं पहनायी थीं, फिर भी उसे प्रसन्न करने के लिये श्रीकृष्णचन्द्र ने कहा- "सुदामा! हम सबको तुम्हारी सुन्दर मालाएं और फूलों के गुच्छे चाहिये।" माली सुदामा ने बड़ी श्रद्धा से बहुत ही सुन्दर-सुन्दर मालाएं फिर भगवान को तथा सभी गोप बालकों को पहनायीं, उन्हें फूलों से सजाया और उनके हाथों में फूलों के सुन्दर गुच्छे बनाकर दिये। भगवान ने कहा- "सुदामा! मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूँ। तुम वरदान मांगो।" सुदामा भगवान के चरणों में लोट गया। हाथ जोड़कर उसने फिर प्रार्थना की- "प्रभो! आप अखिलात्मा में मेरी अविचल भक्ति रहे, आपके भक्तों से मेरी मैत्री रहे और सभी प्राणियों के प्रति मेरे मन में दया-भाव रहे- मुझे यही वरदान दें।"
         भगवान ने 'एवमस्तु' कहकर फिर कहा- "तुमने जो मांगा, वह तो तुम्हें मिल ही गया। तुम्हें दीर्घायु प्राप्त होगी। तुम्हारे शरीर का बल तथा कान्ति कभी क्षीण नहीं होगी। लोक में तुम्हारा सुयश होगा और तुम्हारे पास पर्याप्त धन होगा। वह धन तुम्हारी सन्तान परम्परा में बढ़ता ही जायेगा।" माली को यह वरदान देकर श्रीकृष्णचन्द्र नगर दर्शन करने चले गये।
         वे दर्जी और माली जीवन भर भगवान का स्मरण-भजन करते रहे और अन्त में भगवान के लोक में उनके नित्य पार्षद हुए।
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                          "जय जय श्री राधे"
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