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mc 94

मीरा चरित  भाग- 94 मेरी दृष्टि वक्ष पर टिकी और तनिक भी प्रतिकार न करते देखकर उन्होंने भी अपने वक्ष की ओर माथा झुकाया- ‘क्या देख रही है री मेरी छाती पर?’ एक हाथ छुड़ाकर दाहिने वक्ष पर पद चिह्न के आकार के लांछन पर हाथ धरते हुये मैं बोली- ‘यह’ ‘यहक्या आज ही देखा है तूने? यह तो जन्म से ही है, मेरी मैया कहती है।मेरे मोहढ़े से भी यह अधिक सुंदर है।’ मेरी पलक एकबार उठ कर फिर झुक गई।मन की दशा कही नहीं जाती। ‘अरी रोती क्यों है? तुम छोरियों में यह बहुत बुरी आदत है।होरी को सारो ही मजो किरकिरो कर दियो’- उन्होंने अँजलि में मुख लेकर कहा- ‘कहा भयो, बोल?’ हाथ छुटे तोमैनें चपलता से उनकी पीठ पर भी गुलाल मली तो छुड़ा लिए और छिटक कर दूर जा खड़ी हुई।इसी बीच मेरी ओढ़नी का छोर उनके हाथ में आ गया।उन्होंने झटके से उसे खींचा तो मैं उघाड़ी हो गई।अब तो लज्जा का अंत न रहा।दौड़ कर आम के वृक्ष के पीछे छिपकर खड़ी हो गई। ‘ऐ मीरा, चुनरी ले अपनी। मैं इसका क्या करूँगा?’- उन्होंने कहा।  ‘वहीं धर दो, मैं ले लूँगी’- मैंने धीरे से कहा।  ‘लेनी है तो आकर ले जा। नहीं तो मैं बरसाने जा रहा हूँ।’ ‘नहीं, नहीं, तुम्हीं यहाँ आकर दे जा