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Showing posts from April, 2017

रैन दिवस

रैन दिवस बरसत मोरे नैना पिय बिन कित जाऊँ सखी री, कौन सुने मेरो बैना बाँवरी बन मैं इत उत डोलूँ , क्षण को चैन परै ना हिय की पीर सो कैसो जाने , जो उर बाण प्रेम सहै ना बिरहन को हाय प्राण न निकसै , विधना ऐसो कार करै ना क्षण क्षण पीर उठे अति भारी , मेरो सांवल वैध मिलै ना

मानसी सेवा

मानसी सेवा हम अपने मानसिक रुप से हृदय में प्रत्यक्ष विराजमान ठाकुरजी की करते हैं।अकिंचन वैष्णव को इससे दोहरा लाभ मिलता है।किसी कारण से वह तनुजा वित्तजा सेवा नहीं कर सकता तो मानसी में उसकी जरूरत नहीं पडती।दूसरा मानसी सिद्ध होने पर सानुभाव तत्काल मिलने लगता है।भगवद् साक्षात्कार की स्थिति होती है।तनुजा वित्तजा सेवा करने वाले भी खाली समय में मानसी कर सकते हैं।कोई सुंदर सामग्री बनाने की विधि पढी।नहीं बना पाये तो मानसी में बनायें।सुंदर वस्त्र,सुंदर शृंगार,पुष्प हार,आभूषण,पगा,फेंटा,कुल्हे मानसी में बना बनाकर ठाकुरजी को धरायें,कैसे दिखते हैं प्रभु!कभी कभी दिखने लगेगा ठाकुरजी यह नहीं वह शृंगार धराने के लिये कह रहे हैं।तनुजा में तो ठाकुरजी पुष्टि सेवा प्रणालिका से बंधे हैं।हर घर और उसके वैष्णवों के यहाँ उसी प्रणालिका का पालन होता है।मानसी में तो सेवक और स्वामी दोनों स्वतंत्र हैं।एक प्रश्न है मानसी में कोई वस्तु तो होती नहीं फिर ठाकुरजी को संतुष्टि कैसे मिलती होगी?तो बाह्य जगत में कौनसी वस्तु से संतुष्टि होती है यदिभाव न हो!यह ठीक है किसी मनुष्य का पेट भाव से नहीं भरा जा सकता पर मानसी में भाव से

प्रेम की अवस्थाएं

आनंद के कुछ भाव होते है - "रति", "प्रेम", "स्नेह", "मान" "प्रणय", "राग", "अनुराग", "भाव" फिर "महाभाव" 🌹 1. रति - जब चित्त में भगवान के सिवा अन्य किसी विषय की जरा भी चाह नहीं रहती ,जब सर्वेन्द्रिय के द्वारा श्रीकृष्ण की सेवा में ही रत हुआ जाता है, तब उसे "रति" कहते है.जब रति में प्रगाढ़ता आती है तो उसे प्रेम कहते है। 🌹2. प्रेम - प्रेम में अनन्य ममता होती है सब जगह से सारी ममता निकलकर यह भाव हो जाए कि "सर्वज्ञ", "सर्वदा" और "सर्वथा" एकमात्र श्रीकृष्ण के सिवा और कोई मेरा नहीं है, इसी का नाम "प्रेम" है.जब प्रेम में प्रगाढ़ता आती है तो उसे स्नेह कहते है। 🌹3.स्नेह - हम लोग छोटे के प्रति होने वाले, बडो के वात्सल्य को स्नेह कहते है, पर यहाँ चित्त कि द्रवता का नाम "स्नेह" है.जो केवल भावान्वित चित्त होकर अपने प्रीतम के प्रेम में द्रवित रहता है, उस द्रवित चित्त कि स्थिति का नाम स्नेह है.जब स्नेह में प्रगाढ़ता आती है, तब स्नेह की मधुरता का व

विवेक

महाप्रभुजी विवेक धैर्याश्रय ग्रंथ में आज्ञा करते हैं-परिवार अथवा असत पुरुषों के आक्रमणों को सहन करें।'सभी वैष्णवों को अनुकूलता नहीं रहती।लोगों के व्यवहार संबंधी प्रतिकूलता का अक्सर सामना करना पडता है।इससे चित्त की जो स्थिति बनती है वह सेवा सत्संग में बाधक है।वल्लभ कहते हैं-समाधान होता हो तो कर लेना चाहिए,न होता हो तो सहन करना चाहिए।विचलितता या घबराहट कब होती है जब मन में ऐसा पूर्वाग्रह होता है कि समाधान तो होना ही चाहिए अन्यथा अनर्थ हो जायेगा।इस तरह का सोच सामान्य प्रयास भी नहीं करने देता।कहा गया है-'यदि अपने भीतर या दूसरों के भीतर सुधार संभव न हो सके तो धैर्यपूर्वक सहन करना चाहिए जब तक ईश्वर कोई प्रबंध न करे।ऐसा सोचो यह शायद तुम्हारे लिये इसलिए अच्छा है क्यों कि परीक्षा एवं धैर्य बिना गुणों की कीमत नहीं होती।'वैष्णव को विवेक,धैर्य,आश्रय तीनों की रक्षा करनी चाहिए।तीनों परस्पर जुडे हुए हैं।विवेक और धैर्य होंगे तो आश्रय भी रहेगा,विवेक और आश्रय होंगे तो धैर्य भी होगा।धैर्य और आश्रय हैं तो विवेक भी सुरक्षित रहेगा।इसके लिये किसी पर निर्भर नहीं हुआ जा सकता।सिर्फ तादृशी वैष्णव इस

श्री रंगमहल

[12/9/2016, 10:51 PM] श्री राधे: श्री रंगमहल जहाँ युगल की विभिन्न प्रेम लीलाए होती है।उसके बारे मे सुना जाता है की वह शीशे का बना है किंतु वास्तव मे वह स्वर्ण निर्मित है।किंतु वह शीशे का है यह बात गलत नही है क्योकी उस पर युगल सरकार की विभिन्न लीलाओ के चित्र बनाकर उनको भिन्न भिन्न रंगो के रत्नो से इस प्रकार चित्रित किया गया है की सब जगह रत्नमय हो गयी है।स्वर्ण तो कही दिखाई ही नही देता।उस पर जब सूर्य का प्रकाश पडता है तब लगता है मानो काँच पर पड रहा हो।वह उसी भाँति प्रकीर्ण होने लगता है। जैसे एक भित्ती पर युगल सरकार नृत्य करते हुए अंकित किये गये है जिनके पटके को किन्ही हरे रंग के रत्नो से बनाया गया है इसी प्रकार दूसरे दूसरे अंगो वस्त्रो आदि को भी। [12/9/2016, 10:51 PM] श्री राधे: युगल सरकार जहाँ विश्राम करते है व सखिया जहाँ विश्राम करती है,दोनो कक्ष अलग अलग है। सखियो के लिए एक बडा लंबा सा कक्ष बनाया गया है।जिसमे नीचे भूमि पर सबकी शैय्या लगाई जाती है। जब सवेरे सखिया युगल को जगाने जाती है तब कपाट बंद होते है वृंदा सखीजु एक सारीका को भीतर भेज देती है।भीतर फिर क्या होता है वह तो नही मालूम

एक मंजिल की पगडंडी

एक मंजिल की कुछ पगडंडियाँ हो गई हो तो सबको लगता सही पर वह चल रहा है । शेष गलत । सब विधि , सब सूत्र पँहुचते है । प्यारे जु तक जाने की कोई विधि हो उन्हें तो स्वागत करना । सच तो यह है कि वास्तव में पूर्ण का पूर्ण में अभिन्न प्रवेश होता है । अज्ञानता रूपी अपूर्णता बाधक है , बस । उनकी और से गहनतम अभिन्नता है । इतनी गहनतम की अपने प्यारे की आंतरिक स्थिति स्वतः हृदय में वैसे प्रकट होती है जैसे माँ को शिशु के भीतर की स्थितियाँ । कुछ समय पूर्व हमने लिखा विष जिसने पिया उसकी सम्भावना अधिक सरल , विष यहाँ संसार के जहर से नहीँ , प्रतिकूलता रूपी विष पान से है । हम सब रस पिपासु है , सुर-असुर सब अमृतसुधा से तृप्त होना चाहते इसके विपरीत प्राप्त हलाहल शिव पीगए परन्तु रस और स्वरूपगत वह तृप्त हुए अपेक्षाकृत अमृत पीने वाले देवताओं से । *एक बहुत गहरी बात इतनी कि वास्तविक साधक ने इसे जिया भी हो कभी न कभी वह कि साधना साध्य का स्वभाव और साधक का जीवन है ।* अब इसके सार में कोई उतरे तो समस्त उत्तर है वहां । साधना यानि एक पथ जिस पर उनके हेतु चला जा रहा । साध्य यानि जिनके लिये पथ पर चल रहे । साधक यानि जो पथ प

मन की पवित्रता

"मन की पवित्रता"..(संक्षिप्त) भजन करने वाले भक्त जो भजन करना तो चाहते है पर सांसारिक वृतियों के चलते उनसे भजन बन नहीं पा रहा है..भक्तों के लिए जीवन में इस महासंकट के चलते उनका ह्रदय बहुत ही बेचैनी का अनुभव करता है.. वह अनुभव जो भक्त एक रसिक (जो भगवद रस को जनता है) के सिवाए किसी और से चाह कर भी नहीं बाँट सकता है..और यदि बाँटने का प्रयास करेगा तो आम जन समुदाय में अपना हास्य बनवाने के लिए एक मुद्दा बन रह जाएगा.. यद्यपि जो व्यक्ति यह सोचते है कि हम भजन कैसे कर पाएं या क्यों नहीं कर पा रहे.. वस्तुतः इस मानसिकता का उनके मन में प्रकट हो जाना ही भजन का एक रूप है..! अब यहाँ बात यह आती है की सत्यता में भजन हो तो हो कैसे.. यहाँ ध्यान देने वाली बात है..कि भजन में मन लगे.इसके लिए सबसे पहले मन का ही कार्य सर्वोपरि है.. वह मन जो संसार के आकर्षणों से इस प्रकार मोहित हो चुका है जो केवल इंद्रियों के विषय भोगो को पूर्ण करने के सिवाए भजन करने में असमर्थ ही है..और यदि भजन करता भी है तो घूम फिर कर वही आ जाता है जहाँ से निकलने का प्रयास करता है.. इस स्थति में भी जो व्यक्ति भजन करने में रूचि