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Showing posts from November, 2022

mc 76

मीरा चरित  भाग- 76 मंडप में बैठे हुए बहुत से लोगों ने भजन लिखने की सामग्री ले रखी थी।निज मंदिर में जोशी जी भगवान को श्रृंगार करवा रहे थे।पर्दा खुलते ही सब लोग उठ खड़े हुये। ‘बोल गिरधरलाल की जय’’साँवरिया सेठ की जय’’व्रजराज कुँवर की जय’ ‘छौगाला छैल की जय’ - की ध्वनि मंदिर से उठ कर महलों से टकराती और गगन में गूँजती हुई राणाजी के कान में पड़ी।उन्होंने दाँत पीस कर तलवार की मूठ पर हाथ रखा।उधर राणा तिलमिलाते रहे, इधर मीरा ने तानपुरा उठाया- म्हाराँ ओलगिया घर आज्या जी तन की ताप मिटी सुख पाया हिलमिल मंगल गाया जी। घन की धुनि सुनि मोर मगन भया यूँ मेरे आणँद छाया जी। मगन भई मिल प्रभु अपणा सूँ भौं का दरद मिटाया जी। चंदको निरसि कमोदिणि फूलै हरखि भई मेरी काया जी। रग रग सीतल भई मेरी सजनी हरि मेरे महल सिधाया जी। सब भगतन का कारज कीन्हा सोई प्रभु मैं पाया जी। मीरा विरहणी सीतल होई दु:ख दंद दूर नसाया जी। चम्पा के साथ-ही-साथ कइयों की कलमें कागज पर चलने लगीं। मधुर राग-स्वर की मोहिनी ने घूम घूम कर सबके मनों को बाँध लिया। मीरा के ह्रदय का हर्ष फूट पड़ा था। भावावेग से मीरा की बड़ी-बड़ी आँखें मुँद गईं और उसके तारो

mc 75

मीरा चरित  भाग- 75 उस दिन मीरा मन्दिर में नहीं पधारी।रसोई बंद रही। दासियों के साथ समवेत स्वर में कीर्तन के बोलों से महल गूँजता रहा। मिथुला का सिर गोद में लेकर मीरा गाने लगी-  सुण लीजो विनती मोरी, मैं सरण गही प्रभु तोरी। तुम तो पतित अनेक उतारे, भवसागर से तारे। और हरि मेरे जीवन प्राण अधार। और आसरो नाहीं तुम बिन तीनों लोक मँझार॥ तुम बिन मोहि कछु न सुहावै निरख्यो सब संसार। मीरा कहे मैं दासी रावरी दीजो मती बिसार॥ बाईसा हुकम’- मिथुला ने टूटते स्वर में कहा- ‘आशीर्वाद दीजिये कि जन्म-जन्मान्तर में भी इन्हीं चरणों की सेवा प्राप्त हो।’ ‘मिथुला’- मीरा ने उसके सिर पर हाथ फेरते हुये कहा- ‘तू भाग्यवान है।प्रभु तुझे अपनी सेवा में बुला रहे हैं। उनका ध्यान कर, मन में उनका नाम जप।दूसरी ओर से मन हटा ले। जाते समय यात्रा का लक्ष्य ही ध्यान में रहना चाहिए, अन्यथा यात्रा निष्फल होती है।ले, मुँह खोल, चरणामृत ले।’ ‘बाईसा हुकम ! देह में बहुत जलन हो रही है। ध्यान टूट-टूट जाता है।’ ‘पीड़ा देह की है मिथुला ! तू तो प्रभु की दासी है। अपना स्वरूप पहचान। पीड़ा की क्या मजाल है तेरे पास पहुँचने की?वस्त्र फटने से जैसे देह

mc 74

मीरा चरित  भाग- 74 मीरा ने स्त्रियों की ओर दृष्टि फेरी- ‘तुम दुर्गा और चामुण्डा का स्वरूप हो।बिना मन के कोई हाथ तुम्हें कैसे लगा सकता है? जो तुम्हारी ओर कुदृष्टि करे, उसकी आँखे निकाल लो।जो तुम्हारे धर्म पर हाथ डाले, उसे बेरहमी से कुचल दो।यदि मार न पाओ तो मर जाओ।स्त्रीत्व खोकर रोते छीजते जीवन से मरण बेहतर है।पापियों के हाथ में पड़ने से पूर्व ही देह छोड़ दो।मनमें दृढ़ता और भगवान पर भरोजा हो तो असंभव कुछ भी नहीं।तुम्हें लूटने वाले तो बहुत हैं और बचाने वाले कोई दिखाई नहीं देता।औरों के भरोसे मत जीओ, पराये का मुँह कब तक ताकती रहोगी।’ चित्तौड़ पहुँचने से पूर्व ही मीरा की ख्याति वहाँ पहुँच गई।प्रजा वर्ग जहाँ प्रसन्न हुआ, वहीं राणाजी की ऐड़ी की झाल (लपट) चोटी तक पहुँच गई।क्रोध से लाल पीले हो वे मीरा के महल पहुँचे- ‘न हो तो दीवानजी की पाग आप ही बाँध कर गद्दी पर विराज जायें’- उन्होंने जाते ही कहा। मीरा गिरधर के बागे सी रही थीं।देवर की बात सुनकर उन्होंने दृष्टि उठाकर एक बार उनकी ओर देखा और पुन:अपने काममें लग गईं।भाभी की यह निश्चिंतता देख कर विक्रम मन ही मन खीज उठे, पर स्वर को धीमा करके बोले- ‘आपके

mc 73

मीरा चरित  भाग- 73 उन्होंने लौटकर बताया- ‘वे तो मर्यादाहीन व्यक्ति हैं।हमें कहने लगे कि हम अपना काम कर रहे हैं।तुम कौन हो बीच में पाँव रोपने वाले? हम किसी मेड़तणीजी सा को नहीं जानते।जाकर कह दो हमें फुरसत नहीं है।’ ‘क्या?’- मीरा रथ से नीचे कूद गई।रथ में लगे हथियारों में से एक तलवार उन्होंने म्यान से खींच ली- ‘चलो कहाँ है अन्यायी?’ ‘अरे अन्नदाता, आप यह क्या करतीं हैं? आप यहीं बिराजें, हम अभी पकड़कर लाते हैं उनको।’ ‘नहीं पधारें आप भी।राणाजी की नाक तले इतना अत्याचार हो रहा है तो दूर सीमाओं पर क्या होता होगा।’ ग्रामीणों ने बताया- ‘मालवे के सैनिक तीसरे चौथे महीने आ धमकते हैं, स्त्रियों को उठ ले जाते हैं, बच्चों को चीरकर छप्पर पर फेंक देतें हैं।विरोध करने वालों को मारकर वे वापस भाग जाते हैं।’ मीरा से सुना नहीं जाता था।एक निःश्वास छोड़ उन्होंने सोचा कि ऐसे राजा कै दिन टिकेगें, जो प्रजा के पेट को अन्न और आँखों को निश्चिंत नींद नहीं दे सकते? आगे जाकर देखा कि पन्द्रह बीस आदमियों को बाँध कर एक ओर पटक दिया गया है।उनके घरों से अन्न, बर्तन और पशु निकाले जा रहे हैं।दो स्त्रियाँ रोती हुई मुख में तृण ले

mc 72

मीरा चरित  भाग- 72 उस छोटी सी आयु में ही वे न्यायासन पर बैठते तो बाल की खाल उतार देते।बैरी को मोहित कर लें ऐसा स्वभाव।रणमें प्रलयंकर और घर में नीलकंठ जैसे एकलिंग नाथ ही अवतरें हों।तेरी भुवाजीसा भक्ति करती है, दूसरा होता तो तेरह विवाह रचाता। मेवाड़ के राजराज को बीनणियों की कौन कमी थी पर दीवानजी के पुछवाने पर भी विवाह के लिए नहीं कह दिया। कुंभ श्याम के पास जो मन्दिर है न, वह तेरे फूफोसा ने भुवाजीसा के लिए बनवाया है।’ ‘अभी तो बावोसा, महाराणा विक्रमादित्य महाअयोग्य हैं।भाँड गवैये इकट्ठे करके साँग काढ़े भगतण्याँ (वेश्यायें) नचावैं और नशा करते हैं।राज्य के सारे खम्बे (उमराव) डगमग कर रहे हैं।परिवार में किचकिच चल रही है और प्रजा का तो सुनने वाला कोई है ही नहीं।राणाजी के मुँह लगे लोग प्रजा को मनमाने ढंग से लूटते हैं।उनकी गुहार सुने कौन? लोग कहरहे हैं कि राणाजी भुवाजा सा पर बहुत नाराज हैं, पर चौड़े धाड़े कुछ कर नहीं सकते।सभी उमराव सामंत नाराज है उनसे, अन्यथा इन्हें मरवा देते। ‘कौन किसको मरवा सकता है बेटा? आयु लिखी हो तो मनुष्य जलती हुई आग से भी सुरक्षित निकल जाता है, नहीं तो घर में बैठे बिठाये ल

mc 71

मीरा चरित  भाग- 71 ईडरगढ़ से आपके जवाँई पधारे हैं, यह तो आपने सुन ही लिया होगा।अब आपके कारण मुझे कितने उलाहने, कितनी वक्रोक्तियाँ सुननी पड़ी, सो तो मैं ही जानती हूँ।’ मीरा ने नेत्र उठा कर शांत दृष्टि ननद की ओर देखा, ‘बाईसा, जिनसे मेरा कोई परिचय या स्नेह का सम्बन्ध नहीं है, उनके द्वारा दिए गये उलाहनों का कोई प्रभाव मुझ पर नहीं होता।’ मीरा का यह ठंडा और उपेक्षित उत्तर सुनकर उदयकुवँर बाईसा मन ही मन जल उठी’ उदयकुँवर बाईसा ने व्यंग पूर्वक जहरीले स्वर में कहा- ‘किन्तु भाभी म्हाँरा, आप इन बाबाओं का संग छोड़ती क्यों नहीं हैं? सारे सगे-सम्बन्धियों और प्रजा में थू-थू हो रही है।क्या इन श्वेत वस्त्रों को छोड़कर और कोई रंग नहीं बचा पहनने को? और कुछ न सही पर एक एक स्वर्ण कंगन हाथों में और एक स्वर्ण कंठी गले में तो पहन सकतीं हैं न? क्या आप इतना भी नहीं जानती कि लकड़ी के डंडे जैसे सूने हाथ अपशकुनी माने जाते हैं।जब बावजी हुकम का कैलाश वास हुआ और गहने कपड़े उतारने का समय आया, तब तो आप सोलह श्रृंगार करके उनका शोक मनाती रही और अब? अब ये तुलसी की मालाएँ हाथों और गले में बाँधे फिरती हैं जैसे कोई बाबुड़ी या

mc 69

मीरा चरित  भाग- 69 ‘उसकी इच्छा के सामने सारे सिद्धांत और नियम धरे के धरे रह जाते हैं, थोथे हो जातें हैं।अत: केवल उसकी इच्छा के अधीन होकर रहो।’ ‘सुना है कि प्रभु के मंगल विधान में जीव का मंगल ही निहित है।उसके अनुसार सबको न्याय ही मिलता है।फिर आप जैसी ज्ञानी और भक्त के साथ इतना अन्याय क्यों? खोटे लोग आराम पाते हैं और भले लोग दु:ख की ज्वाला में झुलसते रहते हैं। लोग कहते हैं धर्म को दीमक लगती है, धर्मात्मा को भगवान तपाते हैं, ऐसा क्यों हुकम? इससे तो भक्ति का उत्साह ठंडा पड़ता है।’- मिथुला हिम्मत जुटाकर थोड़ा स्वामिनी की गद्दी के समीप अपनी गद्दी सरकाती हुई हाथ जोड़ कर बोली, ‘बहुत बरसों से मन की यह उथल पुथल मुझे खा रही है। यदि कृपा हो तो ....’ ‘कृपा की इसमें क्या बात है?’- मीरा ने कहा - ‘जो सचमुच जानना चाहता है उसे न बताना जाननेवाले के लिए भी दोष है और जो केवल अपनी बात श्रेष्ठ रखने के लिए तर्क अथवा कुतर्क करे, उसे बताना भी दोष है।’ ‘हाँ, उनके विधान में जीव का उसी प्रकार मंगल है, जिस प्रकार माँ के हर व्यवहार में बालक का मंगल निहित है। वह बालक को खिलाती, पिलाती, सुलाती अथवा मारती है तो उसके भल

mc 70

मीरा चरित  भाग- 70 वे पिता को अपनी निधि दिखाना चाहते थे, समझाना चाहते थे।वे चाहते थे कि जो उन्हें मिला, वह सबको मिले, किंतु सुख के दीवानों को फ़ुरसत कहाँ देखने सुनने की?’ ‘बाई सा हुकुम एक बात फरमाईये, क्या भक्त, धर्मात्मा और भले लोग पिछले जन्म में दुष्कर्म ही करके ही आये हैं जो वर्तमान में दु:ख पाना उनका भाग्य बन गया है और सभी खोटे लोग पिछले जन्म में धर्मायती थे कि इस जन्म में मनमानी करते हुए पिछले कर्मों के बल पर मौज मना रहें हैं?’ ‘अरे नहीं ऐसा नहीं होता।शुभ अशुभ और मिश्रित, इस प्रकार के कर्म करने वाले ये तीन भाँति के मनुष्य होते हैं।इनमें से मिश्रित कर्म करने वालों की संख्या अधिक है।इतने पर भी पापी केवल पाप ही नहीं करते, जाने अनजाने में किसी न किसी तरह के कुछ न कुछ पुण्य वे करते ही हैं।इसी प्रकार पुण्यात्मा के द्वारा भी कोई न कोई पाप हो ही जाता है।तुनमे देखा होगा मिथुला, माता पिता अपनी संतान में तनिक सा भी खोट सह नहीं पाते।यदि दो बालक खेलते हुए लड़ पड़ेंतो माँ बाप अपने ही बच्चे को डाँटते हैं कि तू उसके साथ खेलने क्यों गया?ठीक वैसे ही प्रभु अपने भक्त में तनिक सी भी कालिख नहीं देख नही

mc 68

मीरा चरित  भाग- 68 विक्रमादित्य का आक्रोश...... राणा विक्रमादित्य ने एक दिन बड़ी बहन उदयकुँवर बाईसा को बुला कहा- ‘जीजा ! भाभी म्हाँरा को अर्ज कर दें कि नाचना-गाना हो तो महलों में ही करने की कृपा करें। वहाँ मन्दिर में चौड़े चौगान, मौड़ौं की भीड़ में अपनी कला न दिखायें। यह रीत इनके पीहर में होगी, कि बहू बेटियाँ बाबाओं के बीच घाघरे फहराती हुई नाचतीं हों, हम सिसौदियों के यहाँ नहीं है।मैं कल उधर से निकला तो देखा आराम से नाच और गा रहीं हैं मानों बरजने वाले सभी मर गये।अब किसका भय है? मेरे तो एड़ी की झाल चोटी तक फूट गई।आज सह गया हूँ किंतु फिर कभी देखा तो मुझ सा बुरा न होगा।यह बात अच्छी तरह समझा कर कह दीजिएगा।’ उदयकुँवर बाईसा ने मीरा के पास आकर अपनी ओर से नमक मिर्च मिला कर सब बात कह दीं- ‘पहले तो अन्नदाता दाजीराज और बावजी हुकुम भारी पेट के थे, सो कुछ नहीं फरमाते थे भाभी म्हाँरा।, आज श्री जी बहुत रूष्ट थे।आप मन्दिर न पधारा करें।आपका फर्ज है कि इन्हे प्रसन्न रखें’ इसका उत्तर मीरा ने तानपुरा उठाकर गाकर दिया .... सीसोद्यो रूठ्यो तो म्हांरो कांई कर लेसी। म्हे तो गुण गोविन्द का गास्यां हो माई॥ राणोजी

mc 67

मीरा चरित  भाग-67 उसी दिन से मेड़तणी जी उपेक्षित ही नहीं घृणित भी हो गई। दूसरी ओर संत समाज में उनका मान सम्मान बढ़ता जा रहा था। पुष्कर आने वाले संत मीरा के दर्शन-सत्संग के बिना अपनी यात्रा अधूरी मानते थे। उनके सरल सीधे-सादे किन्तु मार्मिक भजन जनसाधारण के मानस को खींच लेते थे। चित्तौड़ की राजगद्दी पर विक्रमादित्य.... दिल्ली का सुल्तान इब्राहीम लोदी बाबर से पानीपत के युद्ध में हार गया।बाबर का हौसला बढ़ता देख राजपूताने के सभी शासक इकठ्ठे होकर बाबर ले लड़ने का विचार करने लगे।यही निश्चय हुआ कि मेवाड़ के महाराणा साँगा की अध्यक्षता में सभी छोटे-मोटे शासक बाबर से युद्ध करें। एक दिन युद्ध का धौंसा धमधमा उठा।शस्त्रों की झंकार से राजपूती उत्साह उफन पड़ा।आगरा के पास खानवा के मैदान में रणभेरी बज उठी।आज सिसौदियों के कलेजे में वीर भोजराज का अभाव कसक रहा था। रत्नसिंह वीर हैं, किन्तु उनकी रूचि कला की ओर अधिक झुकी है। महाराणा सांगा युद्ध के लिए गये और रत्नसिंह को राज्य प्रबन्ध के लिए चित्तौड़ ही रह जाना पड़ा। एक दिन रत्नसिंह ने अपनी मेतड़णी भाभी सा से पूछा, ‘जब संसार में सभी मनुष्य भगवान ने ही बनाए हैं,

mc66

मीरा चरित  भाग- 66 भोजराज की आँखों के चारो ओर गड्ढे पड़ गये थे।नाक ऊँची निकल आई थी।नाहर से खाली हाथ लड़ने वाला उनका बलिष्ठ शरीर सूखकर काँटा हो गया था।इतने पर भी वे मुस्कराते रहते।माँ बाप, भाई बहिन और साथियों के नयन भर आते किंतु वे हँस देते। ‘आपसे कुछ अर्ज करना चाहता हूँ मैं।’ -एक दिन एकान्त में भोजराज ने मीरा से कहा।  ‘जी फरमाईये’ - समीप की चौकी पर बैठते हुये मीरा ने कहा।  ‘मेरा वचन टूट गया, मैं अपराधी हूँ’ - भोजराज ने अटकती वाणी में नेत्र नीचे किए हुये कहा - ‘दण्ड जो बख्शें, झेलने को प्रस्तुत हूँ। केवल इतना निवेदन है कि यह अपराधी अब परलोक-पथ का पथिक है। अब समय नहीं रहा पास में। दण्ड ऐसा हो कि यहीं भुगता जा सके। अगले जन्म तक ऋण बाकी न रहे।’ उन्होंने हाथ जोड़कर सजल नेत्रों से मीरा की ओर देखा। ‘अरे, यह क्या? आप यूँ हाथ न जोड़िये’ - मीरा ने उनके जुड़े हाथ खोल कर आँसू पोंछ दिए।फिर गम्भीर स्वर में बोली -‘मैं जानती हूँ। उस समय तो मैं अचेत थी, किन्तु प्रातः साड़ी रक्त से भरी देखी तो समझ गई कि अवश्य ही कोई अटक आ पड़ी होगी। इसमें अपराध जैसा क्या हुआ भला?’ ‘अटक ही आ पड़ी थी।’ - भोजराज बोले - या

mc 65

मीरा चरित  भाग- 65 दाझया  ऊपर लूण  लगायो  हिवड़े करवत सारयो। मीरा के प्रभु गिरधर नागर हरि चरणा चित धारयो। ‘म्हें थारो कई बिगाड़यो रे पंछीड़ा ! क्यों तूने मेरे सिये घाव उधेड़े ? क्यों मेरी सोती पीर जगाई ? अरे हत्यारे, मेरे पिय दूर हैं। वे द्वरिका पधार गये, इसी से तुम्हें ऐसा कठोर विनोद सूझा? श्यामसुन्दर ! मेरे प्राण ! देखते हैं न आप इस पंछी की हिम्मत ? आपसे रहित जानकर ये सभी जैसे मुझसे पूर्व जन्म का बैर चुकाने को उतावले हो उठे हैं। पधारो-पधारो मेरे नाथ ! यह शीतल पवन मुझे सुखा देगी, यह चन्द्रमा मुझे जला देगा। अब और......... नहीं ...... सहा..... जाता ... नहीं.... स......हा... जा.... ता।’ भोजराज ने जलपात्र मुख से लगाया।जल पिलाकर वे पंखा झलते हुये मन में कहने लगे - ‘मुझ अधम पर कब कृपा होगी प्रभु ! कहते हैं भक्त के स्पर्श से ही भक्ति प्रकट हो जाती है, पर भाग्यहीन भोज इससे भी वंचित है।’ तब तक मीरा अचेत होकर गिर पड़ी। भोजराज ने मंगला और चम्पा को पुकार।उन्हें आज्ञा दी कि अब से वे अपनी स्वामिनी के पास ही सोयें।  सम्हँल के लिए सचिंत सचेष्ट भोजराज.... मीरा की अवस्था कभी दो-दो दिन,कभी तीन- तीन दिन

mc64

मीरा चरित  भाग- 64 दुष्टों का विनाश करना और साधुओं का परित्राण करना तो उनके अवतार काल का गौण कार्य होता है।जिसके भ्रू- संकेत से सृष्टि और प्रलय उपस्थित होते हैं, उनके लिए यह कौन बड़ा काम है।उनके साधारण सेवक भी इतने शक्ति सम्पन्न हैं कि कोई भी यह काम कर देगा।उन्हें इतनी सी बात के लिए क्यों पधारना पड़े? पाप प्रभु की पीठ कहलाता है, उसी से धर्म के धणी की पूछ है।प्रभु तो दोनों के आधार हैं।वे तो पधारते हैं उनके लिए जिन्होंने पाप का आश्रय लेकर साधना की है।उनका प्रभु के अतिरिक्त कहीं कोई ठिकाना दिखता है आपको? बैकुंठ ब्रह्मलोक स्वर्ग को छोड़िए, कोई इन्हें नरक में भी घुसने देगा? और तो अवकाश ही कहाँ है? ये किसके गले लगें? इन्हीं की धारण सबल करने के लिए पधारते हैं।जैसे वे असाधारण हैं वैसी ही असाधारण गति उन्हें देने पधारते हैं।जिन्हें सुनकर, जानकर जगत्ताप से तपते हुये दु:ख का हलाहल पान करके तड़फते हुये मानव के प्राण शीतल हों, जिससे भक्तों को आधार मिले और लोगों को भक्ति पथ पर आरूढ़ होने की प्रेरणा और प्रोत्साहन मिले।सुकृतिजन भक्त हों कि ज्ञानी, वे अपनी ही शक्ति से सम्पन्न हैं।वे कहीं भी जाना चाहें,

mc 63

मीरा चरित  भाग- 63 किसी को अप्रसन्न भी करना नहीं चाहती.... किंतु..... ‘ - निःश्वास छोड़ कर उन्होंने बात पूरी की- ‘अपने चाहने से ही सबकुछ नहीं हो जाता।भगवान तुम्हें सामर्थ्य दे, सुखी रखे।’ मीरा ने दासी को पुकारा- ‘मेरे आभूषणों की पेटी ले आ और चम्पा से कहनाकि मिष्ठान्न लेकर आये।बीनणी का मुँह मीठा कराये’ चित्तौड़ से आये पड़ला के सभी आभूषण उन्होंने देवराणी को पहना दिये।एक बहुत सुंदर और मूल्यवान पोशाक चाँदी के थाल में रख कर उन्हें दी और अपने हाथ से जलपान करा उन्हें विदा किया। उसी समय रतनसिंह के साथ छोटे देवर विक्रमादित्य आये। ‘भाभीसा हुकुम, देखिये तो आज मेरे साथ कौन आया है’- रतनसिंह ने प्रसन्न होते हुये कहा। ‘ओ हो हो आज तो सचमुच ही दूज का चन्द्रमा उदय हुआ है’- मीरा ने खड़ी होते हुये हँसकर कहा- ‘धन्य भाग मेरे, कैसे पधार गये लालजीसा?’ ‘शस्त्राभ्यास करके लौट रहे थे कि मैनें साथ चलने को कहा’ - रतनसिंह ने कहा।मीरा ने विक्रमादित्य के गालों पर हाथ फेरकर उन्हें रतनसिंह के समीप बिठा दिया। ‘बाई हुकुम नाराज तो नहीं होगीं आज बीनणी भी आई थी’ ‘क्यों नाराज़ क्यों होगी? आपके पास आना अपराध है क्या? मुझे तो

mc 61

मीरा चरित  भाग- 61 विरहावेश में उसे स्वयं का भी ज्ञान न रहता।पुस्तकों के पृष्ठ-पृष्ठ-में, वस्त्रों के कोने कोने में, धूल के कण कण में, वह अपने प्राणाधार को ढूँढने लगी। कभी ऊँचे चढ़कर पुकारने लगती और कभी संकेत से बुलाती। कभी हर्ष के आवेश में वह इस प्रकार दौड़ती कि मानों सम्मुख भीत या सीढ़ियाँ हैं ही नहीं।सामने मनुष्यया पशु है उन्हें कुछ भी दिखाई नहीं देता।कई बार टकराकर वह जख्मी हो जातीं। दासियाँ सदा साथ लगीं रहतीं किंतु कभी-कभी उनकी त्वरा का साथ देना अशक्य हो जाता। जो समझते थे, वे उसकी सराहना करते और चरण-रज सिर पर चढ़ाते। नासमझ लोग हँसते और व्यंग्य करते। भोजराज देखते कि होली या गणगौर के दिनों में महल में बैठी हुई मीरा की साड़ी अचानक रंग से भीज गई है, और वह चौंककर 'अरे' कहती हुई भाग उठती किसी अनदेखे से उलझने को। कभी वे रात को छत पर टहल रहे होते और अनजाने ही मीरा किसी और से बातें करने लग जाती।किसी के कंधे का आश्रय लेकर चल रही हो,ऐसे चलती हुई हर्ष से बावली सी हो जाती।कभी ऐसा भी होताकि किसी ने मीरा की आँखें मूँद ली हों, ऐसे किसी के हाथ को थामकर वह चम्पा, पाटला, विद्या ये अनसुने नाम

mc 62

मीरा चरित  भाग-62 ‘दृढ़ संकल्प हो तो मनुष्य के लिए दुर्लभ क्या है?’- मीरा ने कहा। ‘मेरी इच्छा से तो कुछ होता जाता नहीं लगता।सुना है भक्तों की बात भगवान नहीं टालते, तब आपकी कृपा ही कुछ कर दिखाये तो बात न्यारी है अन्यथा मेरे नित्य कर्म तो केवल बेकार होकर रह गये हैं।मैं निराश होता जा रहा हूँ।जीवन की व्यर्थता भाले का अणी सी चुभती रहती है।’- भोजराज की आँखे भर आईं।वे दूसरी ओर देखते हुये आंसुओं को आँखों से पीने का प्रयत्न करने लगे। ‘संसार में ऐसी कोई समस्या नहीं जो हल न हो सके’- मीरा ने गम्भीरता से कहा - ‘बात तो यह है कि कोई सचमुच समाधान चाहता भी है? आप यह क्यों सोतचे हैं कि मेरे मन में आपका कोई मान सम्मान नहीं? रणांगण में ढाल क्या आपको व्यर्थ बोझ लगती है? वह प्राण रक्षिका प्राणों की भाँति ही प्रिय नहीं लगती? खड्ग जितना आवश्यक है, ढाल क्या उससे कम आवश्यक नहीं है? नहीं, इतने पर भी वह साधन ही है, लक्ष्य नहीं।लक्ष्य है रण विजय।ठीक वैसे ही हम भी एक दूसरे की ढाल हैं, आप मेरी और मैं आपकी’- मीरा ने मुस्कुरा कर कहा। ‘आप मेरी ढाल कैसे हैं’ ‘आप विवाह क्यों नही कर लेते’ ‘यह संभव नहीं है’ ‘क्यों?’ ‘वह सब

mc 60

मीरा चरित  भाग-60  विधाता ने सोच समझ करके जोड़ी मिलाई है, पर आकाश कुसुम कैसे?’q ‘इसलिए कि वह धरा के सब फूलों से सुंदर है’ ‘बावजी हुकुम अखाड़े और शस्त्राभ्यास से मैं भले ही जी चुरातारहा होऊँ, किंतु कला और साहित्य की थोड़ी समझ आपके इस सेवक में हैं।इसी कारण वहाँ खड़े इतने लोगों का ध्यान इस ओर नहीं गया किंतु मैं उसी क्षण से बैचेन हो उठा हूँ।क्या इतना अपदार्थ हूँ कि ......।’ रतनसिंह ने भोजराज की ओर सजल नेत्रों से देखा। भोजराज ने भाई को बाँहों में भर लिया- ‘ऐसा न कहो, ऐसा न कहो भाई’- कुछ क्षण के लिए भोजराज चुप होकर सामने कहीं दूर जैसे क्षितिज में कुछ ढूँढ़ने लगे।तब तक रतनसिंह उनके मुख पर आने वाले उतार चढ़ाव का निरीक्षण करते रहे। ‘क्या करोगे सुनकर’ ‘यह नहीं जानता, इस पर भी सुनना चाहता हूँ’ ‘आकाश कुसुम किसे कहते हैं’ ‘सुंदर किंतु जो अप्राप्य हो’ बस यही है, जो तुम जानना चाहते हो’ ‘बावजी हुकुम’- रतनसिंह केवल सम्बोधन करके रह गये।क्षणभर में अपने को सम्हाँल कर उन्होंने पूछा- ‘किंतु क्यों कैसे? ‘यदि तुम्हें ज्ञात हो जाये कि जिसे तुम विवाह करके लाये हो वह पर- स्त्री है, तो क्या करोगे?’ ‘पर-स्त्री? पर

mc59

मीरा चरित  भाग- 59 मीरा की इस बात पर दोनों की सम्मिलित हँसी सुनकर बाहर बैठी दासियाँ भी मुस्करा पड़ी। ‘भीतर का अथवा बाहर का?’- भोजराज ने मुस्करा कर पूछा। मीरा ने बात बदली- ‘एक निवेदन है।मेड़ते में तो संत आते ही रहते थे।यहाँ सत्संग नहीं मिलाता। प्रभु के प्रेमियों के मुख से झरती उनकी रूप-गुण-सुधा के पानसे सुख प्राप्त होता है, वह जोशीजी के सुखसे पुराण कथा सुनने में नहीं मिलता।’ भोजराज गम्भीर हो गये- ‘यहाँ महलों में तो संतो का प्रवेश अशक्य है। हाँ, किले में संत महात्मा आते ही रहते हैं, किन्तु आपका बाहर पधारना कैसे हो सकता है?’  ‘सत्संग बिना तो प्राण तिसायाँ मरै (सत्संग बिना प्राण तृषा से मर जाते हैं)।’- मीरा ने उदास स्वर में कहा। ‘ऐसा करें, कुम्भ श्याम के मंदिर के पास एक मंदिर बनवा दें। वहाँ आप नित्य दर्शन करने के लिए पधारें। मैं भी प्रयत्न करूँगा कि गढ़ में आने वाले संत वहाँ मंदिर में पहुँचे। इस प्रकार थोड़ा बहुत ज्ञान मैं भी पा जाऊँगा’ ‘जैसे आप उचित समझें’ श्री जी का आदेश मिलते ही मंदिर बनना आरम्भ हो गया। अन्त: पुर में मंदिर का निर्माण चर्चा का विषय बन गया।एक दूसरी से पूछा गया-  ‘महल में

mc 58

मीरा चरित  भाग- 58 ‘गणगौर पूजने का मुहूर्त आ गया है बावजी हुकुम, रात को ही भाभी म्हाँरा को कहलवा दिया था।सबेरे नर्मदा जीजी को भेजा, अब तीसरी बार मैं स्वयं आई हूँ।वहाँ सभी प्रतीक्षा कर रहें हैं और मुहूर्त टला जा रहा है।’ ‘इन्होंने क्या कहा’ भोजराज ने पूछा। ‘इन्होंने तो फरमाया है कि मेरे पति ठाकुर जी हैं।पहले इनकी सेवा करके फिर समय बचे तो दूसरों की भले कर लूँगी।मेरा सुहाग अमर है, मुझे किसी की चिंता नहीं है।तब मैनें पूछा कि बावजी हुकुम तुम्हारे क्या लगते हैं? तो इन्होंने फरमाया कि उन्हीं से पूछ लीजिए।’ ‘बात तो इन्होंने सच ही कही उदा, जिसका सुहाग अमर है, तू ही बता, वह क्यों सुहाग माँगती फिरेगी?’ - भोजराज ने मुस्करा कर कहा। ‘आप भी बावजी हुकुम’- उदयकुँवर बाईसा ने आश्चर्य से भाई की ओर देखा। ‘जा बहिन जा’- भोजराज नीचे उतर आये।बहिन की पीठ पर हाथ रखते हुये बोले- ‘अपन भक्ति और भक्तों की बातें नहीं समझ सकते।इसलिए वे जैसे कहें वैसा ही कर लेना चाहिए।’ ‘हूँ, कर लेना चाहिए। यह बहू है कि बछैरा।’- वह तुनक कर चलीं गईं। इस घटना ने जैसे घर में आग लगा दी।सास ननदों के क्रोध की सीमा नहीं रही।भोजराज सांयकालीन अ