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Showing posts from 2023

mc 94

मीरा चरित  भाग- 94 मेरी दृष्टि वक्ष पर टिकी और तनिक भी प्रतिकार न करते देखकर उन्होंने भी अपने वक्ष की ओर माथा झुकाया- ‘क्या देख रही है री मेरी छाती पर?’ एक हाथ छुड़ाकर दाहिने वक्ष पर पद चिह्न के आकार के लांछन पर हाथ धरते हुये मैं बोली- ‘यह’ ‘यहक्या आज ही देखा है तूने? यह तो जन्म से ही है, मेरी मैया कहती है।मेरे मोहढ़े से भी यह अधिक सुंदर है।’ मेरी पलक एकबार उठ कर फिर झुक गई।मन की दशा कही नहीं जाती। ‘अरी रोती क्यों है? तुम छोरियों में यह बहुत बुरी आदत है।होरी को सारो ही मजो किरकिरो कर दियो’- उन्होंने अँजलि में मुख लेकर कहा- ‘कहा भयो, बोल?’ हाथ छुटे तोमैनें चपलता से उनकी पीठ पर भी गुलाल मली तो छुड़ा लिए और छिटक कर दूर जा खड़ी हुई।इसी बीच मेरी ओढ़नी का छोर उनके हाथ में आ गया।उन्होंने झटके से उसे खींचा तो मैं उघाड़ी हो गई।अब तो लज्जा का अंत न रहा।दौड़ कर आम के वृक्ष के पीछे छिपकर खड़ी हो गई। ‘ऐ मीरा, चुनरी ले अपनी। मैं इसका क्या करूँगा?’- उन्होंने कहा।  ‘वहीं धर दो, मैं ले लूँगी’- मैंने धीरे से कहा।  ‘लेनी है तो आकर ले जा। नहीं तो मैं बरसाने जा रहा हूँ।’ ‘नहीं, नहीं, तुम्हीं यहाँ आकर दे जा

mc 46

मीरा चरित  भाग- 46 भाणेज बावजी (जयमलजी) ने केवल कटार से आखेट में झुंड से अलग हुए एकल सुअर को पछाड़ दिया। हमारे महाराज कुमार जब आखेट पधारते हैं तो सिंह के सामने पधार ललकारकर मारते हैं। हाथी और सुअरों से युद्ध करते....।' भोजराज ने बायाँ हाथ ऊँचा करके पीछे खड़ी जीजी को बोलने से रोक दिया। मंडप से उठकर जनवासे में कुलदेव, पिताजी, पुरोहितजी को प्रणाम कर लौटे। दोनों को एक कक्ष में पधरा दिया गया। द्वार के पास निश्चिन्त मन से खड़ी मीरा को देखकर भोजराज धीमे पदों से उसके सम्मुख आ खड़े हुए। 'मुझे अपना वचन याद है। आप चिन्ता न करें। जगत् और जीवन में मुझे आप सदा अपनी ढाल पायेंगी।' उन्होंने गम्भीर मीठे स्वर में कहा। थोड़ा हँसकर वे पुनः बोले—'यह मुँह दिखायी का नेग, इसे कहाँ रखूँ?' उन्होंने खीसे में से हार निकालकर हाथ में लेते हुए कहा। मीरा ने हाथ से झरोखे की ओर संकेत किया। 'यहाँ पौढ़ने की इच्छा हो तो.... अन्यथा नीचे पधारें। ज्यों मन मानें।'- भोजराज ने कहा। 'एकलिंग के सेवक पर अविश्वास का कोई कारण नहीं दिखायी देता, फिर मेरे रक्षक कहीं चले तो नहीं गये हैं।'-मीरा ने आँचल

mc 45

मीरा चरित  भाग- 45 इन चूड़ियों में से, जो कोहनी से ऊपर पहनी जाती हैं उन्हें खाँच कहते हैं) गलेमें तमण्यों (यह भी ससुराल से आनेवाला गले का आभूषण है, जिसे सधवा स्त्रियाँ मांगलिक अवसरों पर पहनती हैं) छींक और बीजासण, नाक में नथ, सिर पर रखड़ी (शिरोभूषण) हाथों में रची मेंहदी, दाहिनी हथेली में हस्तमिलाप का चिह्न और साड़ी की पटली में खाँसा हुआ पीताम्बर का गठजोड़ा, चोटी में गूँथे फूल और केशों में पिरोये गये मोती, कक्ष में और पलंग पर फूल बिखरे हुए हैं। "यह क्या मीरा! बारात तो अब आयेगी न?"– राणावतजी ने हड़बड़ाकर पूछा।  “आप सबको मुझे ब्याहने की बहुत हौंस थी न, आज पिछली रात को मेरा विवाह हो गया।" – मीरा ने सिर नीचा किये पाँव के अँगूठे से धरा पर रेख खींचते हुए कहा- 'प्रभु ने कृपाकर मुझे अपना लिया भाभा हुकम! मेरा हाथ थामकर उन्होंने भवसागर से पार कर दिया।' उसकी आँखों में हर्ष के आँसू निकल पड़े। 'पड़ले (बारात और वर के साथ वधू के लिये आने वाली सामग्री को पड़ला या बरी कहा जाता है) में आये हैं भाबू! पोशाकें, मेवा और शृंगार सामग्री भी है वे इधर रखे हैं। आप देख सँभाल लें।'– मीर

mc 21

मीरा चरित  भाग- 21 पथ पाकर जैसे जल दौड़ पड़ता है, वैसे ही मीराकी भाव-सरिता भी शब्दोंमें ढलकर पदोंके रूपमें उद्दाम होकर बह चली। मेरे नयना निपट बंक छवि अटके।  देखत रूप मदन मोहन को पियत पीयूख न भटके।  बारिज भवाँ अलक टेढ़ी मनो अति सुगन्ध रस अटके।।  टेढ़ी कटि टेढ़ी कर मुरली टेढ़ी पाग लर लटके।  मीरा प्रभु के रूप लुभानी गिरधर नागर नट के। मीराको प्रसन्न देखकर मिथुला समीप आयी और उसने गलीचेको थोड़ा समेटते हुए सम्मानपूर्वक घुटनोंके बल बैठकर धीमे स्वरमें कहा– "जीमण पधराऊँ (भोजन लाऊँ)?" 'अहा मिथुला, अभी ठहर जा अभी प्रभुको रिझा लेने दे। कौन जाने ये परम स्वतंत्र कब निकल भागें। आज प्रभु पधारे हैं तो यहीं क्यों न रख लें? किसी प्रकार जाने न दें- ऐसो प्रभु जाण न दीजे हो।  तन मन धन करि बारणे हिरदे धरि लीजे हो।।  आव सखी! मुख देखिये नैणा रस पीजै हो।  जिण जिण बिधि रीझे हरि सोई कीजे हो।।  सुन्दर श्याम सुहावणा मुख देख्याँ जीजे हो। मीरा के प्रभु श्यामजी बड़भागण रीझे हो। मीरा जैसे धन्यातिधन्य हो उठी। लीला चिन्तनके द्वार खुल गये और अनुभव की अभिव्यक्ति के भी। दिनानुदिन उसके भजन-पूजनका चाव बढ़ने लगा।

mc 133विश्राम

मीरा चरित  भाग- 133 कई क्षण तक लोग किंकर्तव्यविमूढ़ से रहे।किसी की समझ में नहीं आया कि क्या हुआ। एकाएक चमेली ‘बाईसा हुकम’ पुकारती हुई निज मंदिर के गर्भ गृह की ओर दौड़ी। पुजारी जी ने सचेत होकर हाथ के संकेत से उसे रोका और स्वयं गर्भ गृह में गये। उनकी दृष्टि चारों ओर मीरा को ढूँढ रही थी। अचानक प्रभु के पार्श्व में लटकता भगवा-वस्त्र खंड दिखाई दिया।वह मीरा की ओढ़नी का छोर था। लपक कर उन्होंने उसे हाथ में लिया, पर मीरा कहीं भी मन्दिर में दिखाई नहीं दीं। निराशा के भाव से भावित हुए पुजारीजी गर्भ गृह से बाहर आये और उन्होंने निराशा व्यक्त करने करने के सिर हिला दिया। उनका संकेत का अर्थ समझकर, मेवाड़ और मेड़ता के ही नहीं, वहाँ उपस्थित सभी जन आश्चर्य विमूढ़ हो गये।  ‘यह कैसे सम्भव है? अभी तो हमारे सामने उन्होंने गाते गाते गर्भ गृह में प्रवेश किया है। भीतर नहीं हैं तो फिर कहाँ हैं? हम अपने स्वामी को जाकर क्या उत्तर देंगें?’- मेवाड़ी वीर बोल उठे।  ‘मैं भी तो आपके साथ ही बाहर था। मैं कैसे बताऊँ कि वह कहाँ गईं? अगर आप समझना चाहो तो समझ लो कि मीरा बाई प्रभु में समा गईं, प्रभु श्री विग्रह में विलीन हो गईं

mc132

मीरा चरित  भाग- 132 संख्या की बहुलता के कारण सम्भव नहीं लगता था, अतः यह निश्चित हुआ कि सर्वप्रथम एक-एक दिन आठों पटरानियाँ भोजन का आयोजन करें, एक दिन महाराज उग्रसेन और कुछ दिन ऐसे ही प्रधान-प्रधान सामंतो के यहाँ। अंत में पाँच पाँच सौ महारानियाँ मिलकर एक-एक दिन भोजन का आयोजन करें।इस प्रकार थोड़े समय में ही सबको सुयोग प्राप्त हो जायेगा।निश्चय के अनुसार ही व्रजवासियों का भोजन और स्नेहाभिसिक्त स्वागत सत्कार हुआ।  श्री किशोरी जू के शील, सदाचार, सरलता और सौन्दर्य पर महारानी वैदर्भी जी ऐसे मुग्ध हुईं, जैसे अपने ही प्राणों के साथ देह का लगाव होता है। वे बार-बार उन्हें आमंत्रित करतीं, अपने ही सुकुमार हाथों से रंधन कार्य करतीं और अतिशय प्रेम एवं अपार आत्मीयता पूर्वक अपने हाथों से जिमाती। कभी-कभी दोनों एक ही थाली में भोजन करतीं और प्रभु की बातें चर्चा करते हुए ऐसी घुल-मिल जातीं कि लगता जैसे दो सहोदरा बहिनें बहुत काल पश्चात मिली हों। भानुनन्दिनी अकेली नहीं पधारतीं थीं, उनके साथ दो-चार सखियाँ अवश्य ही होतीं। एक बार उनके साथ आप भी पधारी थीं। द्वारिकाधीश की पट्टमहादेवी साक्षात लक्ष्मीरुपा वैदर्भी के म

mc 131

मीरा चरित  भाग- 131 यह बूढ़ा ब्राह्मण आज अपनी यजमान वधू से मेवाड़ री रक्षा की भीख माँगता है’- राजपुरोहित जी ने सिर से साफा उतारकर भूमि पर रखा- ‘मेरी इस पाग की लाज आपके हाथ में है स्वामिनी।हमें सनाथ करो।हम अनाथ हो गए हैं’- दोनों हाथ जोड़कर उन्होंने धरती पर मस्तक रखा और बिलख कर रो पड़े। मेड़ते के राजपुरोहित उठकर कक्ष में आए।मीरा ने भूमि पर सिर रख उन्हें प्रणाम किया और आसन ग्रहण करने की प्रार्थना की। पुरोहित जी के साथ ही हरिसिंह जी और रामदास जी भी कक्ष में आये। उन्होंने मीरा को प्रणाम किया। सबने आसन ग्रहण किया और आज्ञा पाकर बैठ गये।सबके मुख-मलीन थे। मेड़ते के राजपुरोहित जी कहने लगे- ‘बाईसा हुकम ! केवल आपका श्वसुर कुल ही आपदाग्रस्त नहीं है, पितृकुल भी तितर-बितर हो गया है।मेरे पिता ने युद्ध करते हुये वीरगति प्राप्त की और माँ सती हो गई।आपके भाई भतीजे विपदा के मारे पैतृक राज्य खोकर जीविका के लिए भटक रहे हैं।महाराज के दो पुत्र मारवाड़ और मालवा पधार गये।महाराणा ने बदनोर परगना प्रदान किया था, उस पर उसके पाँचवे पुत्र मुकुन्ददास जी गद्दी पर विराजते हैं।एक बार महाराज मुकुन्द दासजी क् पूछने पर किसी

mc 130

मीरा चरित  भाग- 130 संकेत के लिए पतली सी रजत श्रंखला से बँधी घंटी पलँग के सिरहाने की ओर पार्श्व में लटकी थी।कक्ष में मल्लिका पुष्पों की मालाओं से सजावट की गई थी। शवेत कमल उनमें जहाँ तहाँ गुँथे हुये थे।सौंदर्य सौरभ और श्वेत रंग का ही प्राधान्य था। मीरा अभी घुटने पर चिबुक टिकाये सब देख ही रही थी कि द्वार-रक्षिका ने सावधान किया। वह चौंककर पलँग से उतर पड़ी।नीची दृष्टि से द्वार में प्रवेश करके आगे बढ़ते उन भुवन वन्दनीय चरणों के दर्शन करती रहीं।पदत्राण संभवत: द्वार पर ही सेविकाओं ने उतार लिए होगें।धीर मंथर गति से वे चरण उनके सम्मुख आकर थम गये।ह्रदय के आवेग, संकोच और लज्जा के द्वन्द ने उसकी साँस की गति बढ़ा दी थी और अब तुलसी, कमल, चन्दन, केशर और अगुरू के सौरभ से मिश्रित देह सुगन्ध ने उसे अवश सा कर दिया।नीचे झुककर चरण स्पर्श की चेष्टा में वह गिरने लगीं कि उनकी सदा की आश्रय सबल बाहुओं ने संभाल लिया। कितने दिन, कितने मास, और कितने ही वर्ष यह सुख सौभाग्य मीरा का स्वत्व बना, वह नहीं जान पाई। जहाँ देश, काल दोनों ही सापेक्ष हैं, वहाँ यह गिनती नगण्य हो जाती है।            आँख खुलने पर उन्होंने अपने क

mc129

मीरा चरित  भाग- 129 उसका सौन्दर्य माधव की महिषियों से तनिक भी न्यून नहीं लगता था। सोलह श्रृंगार धारण करा दोनों ओर से बाँहें थामें दासियों ने उन्हें देवी जाम्बवती के पास बिठा दिया।  ‘अहा ! देखो हमारी छोटी बहिन को?’- देवी सत्या ने मीरा का चिबुक उठाकर ऊपर दिखाया। ‘सच है, किंतु यह आपकी हमारी तरह क्रम से नहीं आई, अत: छोटी बड़ी कुछ नहीं, केवल बहिन है यह।’- देवी कालिन्दी ने कहा। मीरा संकोच की प्रतिमा सी पलकें झुकाई बैठी रही।लगता था कि अभी-अभी विवाह मण्डप से उठकर आई हो। थोड़ी ही देर में गाने बजाने वालीं आ गईं।महारानियाँ चार चार, छ: छ: या और अधिक की संख्याँ में नाचने लगीं। सत्यभामा ने मीरा को भी अपने साथ ले लिया। कितने समय तक यह नृत्योत्सव चल, का नहीं जा सकता। इसके बाद दासियाँ पुनः पेय लेकर प्रस्तुत हुईं, और फिर भोजन की तैयारी। मीरा मन ही मन स्वामी के दर्शन के लिए आकुल थी। भोजन के समय भी उन्हें उपस्थित न देखकर उससे रहा न गया।उसने देवी जाम्बवती से पूछा- ‘प्रभु के भोजन से पूर्व ही हम भोजन कर लें?’ ‘स्वामी का भोजन आज माता रोहिणी के महल में है। अपने समस्त सखाओं और भाइयों के साथ वे वहाँ भोजन कर रहे

mc 128

मीरा चरित  भाग- 128 फव्वारे से ही चारों ओर ने भवनों में प्रवेश के लिए अनेक पथ बने हुये थे।वृक्ष पंक्तियाँ पार करके वे एक विशाल ड्योढ़ी द्वार में प्रविष्ट हुईं।द्वार पर भाला लिए दासियों ने उन्हें सिर झुकाया और हाथ से आदर पूर्वक प्रवेश के लिए संकेत किया।भीतर चौक में उपवन के मध्य पुष्करणी में कुमुदिनियाँ खिल रही थीं। आम्र की डालियों पर कहीं कहीं झूले बँधे थे।वृक्षों पर बैठे मयूर, पपीहा और दूसरे कई पक्षी कभी कभार बोल पड़ते थे।मीरा को लगा कि उनके आकार और ध्वनि मात्र लौकिक पक्षियों जलचरों पुष्पों वृक्षों लताओं वस्तुओं और मनुष्यों से मिलती है, अन्यथा सबकुछ अलौकिक है।सब कुछ रत्नमय होते हुये भी सजीव कोमलता सुन्दरता सुकुमारता की मानों सीमा हो, प्रत्येक ध्वनि मानों अलौकिक संगीत की तरंग हो और ऐसी सहस्त्रों सहस्त्रों तरंगें वहाँ सदा उठती रहतीं हैं। ड्योढ़ी के भीतर महलों में चारों ओर दासियों की चहल पहल थी। मीरा ने हिन्दुआ सूर्य का वैभव देखा था और देखी थी उनकी रानियों की सुन्दरता किंतु यहाँ के ऐश्वर्य की नन्हीं कणिका की भी समता उनका समस्त राज्य नहीं कर पाता।एक साधारण दासी भी उन महारानियों से अधिक ऐश्

mc 127

मीरा चरित  भाग- 127 कभी उन्हें लगता कि समुद्र के बीचों-बीच द्वारिका ऊपर उठ रही है। उसकी परिखा -द्वार से श्याम कर्ण अश्व पर सवार होकर मुस्कराते हुए श्यामसुन्दर पधार रहे हैं। हीरक जटित ऊँचा मुकुट, जिसमें लगा रत्नमय मयूर पंख अश्व की चाल से झूम जाता है। गले में विविध रत्नहारों के साथ वैजयन्ती पुष्प माल, कमर में बँधा नंदक खड्ग, कमरबन्द की झोली से झाँकता पाञ्चजन्य शंख, घनकृष्ण अलकों से आँखमिचौनी खेलते मकराकृत कुण्डल, बाहों में जड़ाऊ भुजबन्द और करों में रत्न कंकण, केसरिया अंगरखा और वैसी ही धोती, वैसा ही चमकता रेशमी दुपट्टा, जिसके दोनों छोरों पर जरी का कामऔर मुक्ता गुँथें हैं, जो वायुवेग से पीछे की ओर फहरा रहा है।जरीदार रत्नजड़ित पगरखियों की नोंक रकाब में रखी हुई सागर तरंगों पर दौड़ता हुआ अश्व, उसकी टापों से उछलता जल, अश्व पर बैठने की वह शान, दाहिने हाथ में लगी वल्गा बायें हाथ में ले उन्होंने दायाँ हाथ मुस्कराकर ऊपर उठाया- वह उतावली हो सम्मुख दौड़ पड़ी-‘मेरे स्वामी .... मेरे नाथ ! पधार गये आप?’ कहकर वह दौड़ती हुई अपने यहाँ गाये जाने वाले गीत गाने लगी- केसरिया बालम हालो नी पधारो म्हाँरो देस। पि

mc126

मीरा चरित  भाग- 126 एक दिन योगी ने जाने का निश्चय कर अपना झोली- डंडा उठाया। मीरा उन्हें रोकते हुए व्याकुल हो उठी- 'आपके पधारने से मुझे बहुत शान्ति मिली योगीराज। अब आप भी जाने को कहते हैं, तब प्राणों को किसके सहारे शीतलता दे पाऊँगी।आप ना जायें प्रभु ! न जायें।’- एक क्षण मानो विद्युत दमकी हो, ऐसे योगी के स्थान पर द्वारिकाधीश हँसते खड़े दिखलाई दिये, दूसरे ही क्षण अलोप।मीरा व्याकुल हो उठी-  जोगी मत जा, मत जा, मत जा, जोगी। पाँय परु मैं तेरे, मत जा जोगी॥ प्रेम भक्ति को पेंडों ही न्यारो, हमकूँ गैल बता जा। अगर चन्दन की चिता बणाऊँ, अपने हाथ जला जा॥ जल बल होय भस्म की ढेरी, अपणे अंग लगा जा। मीरा के प्रभु गिरधर नागर, जोत में जोत मिला जा॥ मत जा, मत जा, मत जा, जोगी॥ दिव्य द्वारिका- दिव्य दर्शन..... मीरा रात दिन व्याकुल होकर सोचती- ‘कितने ही दिन प्रभु के साथ रही, पर मैं अभागिन पहचान नहीं पाई।उन्हें योगी समझकर दूर-दूर ही रही।कभी ठीक से उनके चरणों में सिर तक नहीं रखा। हा, कैसा अभाग्य मेरा।कहतें है कि सच्चा प्रेम अंधेरी रात में सौ पर्दों के पीछे भी अपने प्रेमास्पद को पहचान लेता है।मुझ अभागिन में प्र

mc 125

मीरा चरित  भाग- 125 आप मेरे पति का सन्देश लेकर पधारे हैं, अतः आप मेरे पूज्य हैं।यद्यपि मेरे प्राण मेरे प्रिय का सन्देश सुनने को आकुल हैं, फिर भी कोई सेवा स्वीकार करने की कृपा करें तो सेविका कृतार्थ होगी।’ ‘सेवक की क्या सेवा देवा? स्वामी की प्रसन्नता ही उसका वित्त है और सेवा ही व्यसन।आपकी यदि कोई इच्छा हो तो पूर्ण कर मैं स्वयं को बड़भागी अनुभव करूँगा।’ ‘अंधे को क्या चाहिये भगवन ! दो आँखें और चातक क्या चाहे - दो बूंद स्वाति जल।मेरे आराध्य की चर्चा कर हृदय को शीतलता प्रदान करें। क्या प्रभु कभी इस सेविका को भी स्मरण करते हैं? क्या दर्शन देकर कृतार्थ करने की चर्चा करते हैं? आप तो उनके अन्तरंग सेवक जान पड़ते हैं, अतः आपको अवश्य ज्ञात होगा कि उनको कैसे प्रसन्नता प्राप्त होती है? उन्हें क्या रुचता है? कैसे जन उन्हें प्रिय हैं? उनका स्वरुप, आभूषण वस्त्र,उनकी पहनिया, उनकी  क्रियायें, उनका हँसना-बोलना, स्नान, भोजन क्या कहूँ उससे सम्बंधित प्रत्येक चर्चा मुझे मधुर पेय-सी लगती हैं, जिससे कभी पेट न भरे, यह पिपासा कभी शांत नहीं होती। कृपा कर आप उनकी ही बात सुनायें।’ ‘देवी ! आपका नाम लेकर मेरे स्वामी ए

mc124

मीरा चरित  भाग- 124 मीरा व्याकुल बिरहणी सुध बुध बिसरानी हो॥ एक दिन वह अचेत पड़ी थीं।मुखाकृति ऐसी डरावनी हो गई थी कि किसी प्रकार पहचान में नहीं आती थी। मुख से झाग और आँखों से पानी निकल रहा था।मीरा की तप्तकांचन वर्ण झुलसी कुमुदिनी सा और देह फूलकर पानी भरी मशक सी दिखाई देती थी। मुख से अस्पष्ट स्वर निकलता।उस दशा को किसी भी प्रकार प्रयत्न करके भी वे समझ नहीं पा रहीं थीं।सब मिल कर रोते हुए प्रार्थना कर रही थीं- ‘हे द्वारिका नाथ, म्हे तो जनम से अभागण हाँ।ऐसी स्वामिनी पाकर भी न तुम्हारी भक्ति कर पाई और न हमसे इनकी उचित सेवा ही बन पडी। इतने पर भी, हे जगन्नाथ ! किसी जन्म में हमसे भूल से भी कोई पुण्य बन गया हो तो कृपा कर हमारी स्वामिनी को दर्शन दो ....दर्शन दो।हमें भले जब तक धरती रहे, नरक मैं डाल देना, पर अब इनकी यह दशा देखी नहीं जाती।हम असहाय क्या करें?’- वे फूट-फूट कर रो पड़ीं। उसी समय द्वार पर स्वर सुनाई दिया- ‘अलख’ ‘हे भगवान! अब इस राजनगरी में कौन निरगुनिया आ गया?’- कहते हुए शंकर उसका स्वागत करने उठा। ‘तुम ठहरो, मैं जाती हूँ’-चमेली ने उठकर गई।उसने देखा- ‘यह तो आलौकिक साधु है।सिंगी सेली मुद्रा

mc 123

मीरा चरित  भाग- 123 जिनणा पिया परदेस बसत हैलिख लिख भेजे पाती। म्हाँरा पिया म्हाँरे हिवड़े रहत है, कठी न आती जाती। मीरा रे प्रभु गिरधर नागर, मग जोवाँ दिन राती॥ ‘सार की बात यही है कि बिना सच्चे वैराग्य के घर का त्याग न करें’ ‘धन्य, धन्य मातः ‘- लोग बोल उठे। ‘क्षमा करें माँ, आपका यह सुत महा अज्ञानी है।श्रीचरण ने फरमाया कि भजन करो। भजन का अर्थ सम्भवतः जप है।जप में मन लगता नहीं माँ’- उसने दु:खी स्वर में कहा- ‘हाथ माला की मणियाँ सरकाता है, जीभ नाम लेती रहती है, किन्तु मन मानों धरा-गगन के समस्त कार्यों का ठेका लेकर उड़ता फिरता है। ऐसे में माँ, भजन से, जप से क्या लाभ होगा? जी खिन्न हो जाता है।’ ‘भजन का अर्थ है कैसे भी, जैसे हो, मन-वचन-काया से भगवत्सम्बन्धी कार्य हो। हमें उसका ध्यान वैसे ही बना रहे, जैसे घर का कार्य करते हुये, माँ का ध्यान पालने में सोये हुये बालक की ओर रहता है और सबकी सेवा कार्य करते हुये भी पत्नी के मन में पति का ध्यान रहता है। पत्नी कभी मुख से पति का नाम नहीं लेती, किन्तु वह नाम उसके मन प्राणों से ऐसा जुड़ा रहता है कि वह स्वयं चाहे तो भी न हटा पायेगी।अब रही मन लगने की बात। म

mc 122

मीरा चरित  भाग- 122 तज्यो देसरु वेस हू तजि तज्यो राणा वास। दास मीरा सरणआई थाने अब सब लाज॥ वह अपने स्वामी से निहोरा करतीं- साजन घर आवो नी मिठ बोलाँ। बिन देख्याँ म्हाँने कल न परत है कर घर रही कपोला। आवो निसंक संक नहीं कीजै हिल मिल रंग घोलाँ। थाँरे खातिर सब रंग तजिया काजल तिलक तम्बोला। मीरा दासी जनम जनम की मन री घुंडी खोलाँ। वे कहतीं- ‘तुम्हारा विरद मुझे प्रिय लगा। इसलिए सब मेरे वैरी हो गये। अब यदि तुम सुधि ना लो, ना निभायो, तो मुझे कहीं कोई सहारा नहीं है’- रावलो विरद म्हाँने रूड़ो लागे पीड़ित म्हाँरा प्राण। सगा सनेही म्हारे न कोई बैरी सकल जहान। ग्राह गह्याँ गजराज उबारयो अछत करया वरदान। मीरा दासी अरजी करै है म्हाँरे सहारो ना आन। सच्चर्चा के प्रेरक क्षण..... एक बार एक दु:खी व्यक्ति, जिसका एकमात्र जवान पुत्र मर गया था।वह सभी तीर्थों में घूमता-फिरता द्वारिका पहुँचा और मीराबाई का नाम सुन दर्शन करने आया। अपनी विपद गाथा सुना कर उसने साधु होने की इच्छा प्रगट की। मीरा ने उसे समझाया- ‘क्या केवल घर छोड़ना और कपडे रंगाना ही तुम्हारी समस्या का हल है?’ ‘मैं दुःख से तप गया हूँ। पुनः दुःख से सामना न हो’

mc 120

मीरा चरित  भाग- 120 उसी समय वे ड्योढ़ी से सूचना दिलवा कर अंत:पुर में माँ के कक्ष में पधारे- ‘भाभा हुकुम, मैं आपको कहाँ मिला, जब आप बाहर महलों में पधारीं?’ ‘आपके पूजन कक्ष से पहले जो कक्ष है, जहाँ आप विश्राम करते हैं, उसी के द्वार से बाहर आते हुये मैनें आपको देखा।आपने हँसकर पूछा कि आज आप यहाँ कैसे?’ मैनें उत्तर दिया- ‘आपकी तलवार से सभी डरते हैं, इसलिए मैं आई हूँ कि चाहे जो हो बिना खबर किये तो जोधाणे की सेना भीतर घुस आयेगी।’ ‘फिर?’ ‘क्यूँ पूछो हो लालजी? फेर आप घोड़ा माथे विराज लड़न ने पधारिया (क्यों पूछते हो लालजी, फिर आप घोड़े पर सवार होकर लड़ने पधारे)।’ माँ की बात पूरी होते ही जयमल उनके चरण पकड़ कर फूट पड़े- ‘आप धन्य हो भाभा हुकुम, आप धन्य हैं, धन्य हैं जोधाणनाथ और धन्य हैं वे जो मारे गये।अभागा एक मैं ही रहा, हा.... हतभाग जयमल।तेरे लिये रघुनाथजी ने इतना कष्ट झेला।’ वे अगँरखे से आँसू पोछते बाहर चले गये।रनिवास के सेवक सेविकायें जहाँ के तहाँ चित्र लिखित से रह गये।उन्होंने बाहर आकर पूजा की सामग्री मगाँई। घुड़शाला में जाकर उन्होंने उस अश्व की पूजा आरती की, भोग लगाया और औधें लेटकर दण्डवत् प्

mc121

मीरा चरित  भाग- 121 मेरा सब कुछ लेकर कोई मुझे मेरी म्होटा माँ लौटा दे।मुझे उनके सिवा कुछ नहीं चाहिए।वे ठाकुरजी को उलाहना देतीं कि गोपाल म्हाँरा वीरा, यों कई कीधो थे? अब म्हाँरा माँ ने म्हूँ कद देखूँला? कुण लाड़ सूँ म्हाँने छाती सूँ चिपाय ठावस देवे? किण रे कणे बैठ बैठ मन री बाफ काढूँ? कुण हँस हँस र सासरा री बाताँ पूछे? कुण घड़ी घड़ी मूँघी लेवे? बड़ा हुकुम, आप बिना आपकी श्यामा सागे ई अनाथ ह्वेगी’- ऐसा कहकर बाईसा हुकुम मेरी गोद में सिर रखकर सिसक पड़तीं।’ मंगला के मुख से लाडली श्यामा का समाचार सुनकर मीरा ने गंभीर नि:श्वास छोड़ते हुए कहा- ‘बेटा ! तेरे गोपाल तेरी सार-संभाल करेंगे।वे समर्थ हैं बेटा।वे तेरे अपने हैं। म्होटा माँ का मोह छोड़।वे ही तो एक अपने हैं।’ प्रवास और द्वारिका वास.....            प्रातः सूर्योदय से पूर्व ही मीरा श्यामा-श्याम की आज्ञा ले यात्रियों-संतो के साथ द्वारिका के लिए चल पड़ी। इन पच्चीस वर्षो में दूर-दूर तक उनकी ख्याति फैल गयी थी। दूर-दूर के संत-यात्री उनके सत्संग-लाभ और दर्शन के लिए हाजिर होते। ज्ञान-भक्ति की गहन-से-गहन गाँठ वे सहज सरल शब्दों में सुलझा देतीं। चमेली

mc 118

मीरा चरित भाग- 118 राजमहल में आकर भी किसी अन्य महल में न जाकर वह उन्हीं के साथ आ गई तो मिथुला ने पूछा- ‘तू किस महल की है?’ उसने हँसकर उत्तर दिया- ‘इसी महल की हूँ मैं तो’ ‘तेरी धणियाणी कौन है?’ उसने मीरा के कक्ष की ओर अँगुली उठा दी। ‘किसकी बेटी है तू?’ ‘क्या नाम है?’ ‘कहाँ से आई है?’ ‘किस जाति की है?’ ‘तेरे माँ बापकहाँहैं?’ ‘तुझे कौन लाया यहाँ?’ ‘कौन गाँवकी है?’ प्रश्नों से घबराकर वह अपनी बड़ी बड़ी हिरनी जैसी आँखों से सबको देखने लगी।उसके सुंदर नेत्रों में जल भर आया हुआ देखकर गंगा ने सबको डाँटा- ‘ऐ छोरियों इसे तंग मत करो।मैं बाईसा हुकुम के पास ले जाती हूँ।’ मीरा अपने कक्ष में गिरधर गोपाल के वस्त्र परिवर्तित करते हुये उनसे बातें कर रही थी- ‘कैसा लगा तुम्हें? झूलनें में, गानेमें मजा आयान? श्याम जीजा क्याकहरहीं थीं कि छोटी होकर भी एक तू ही बींद वाली हो गई है।सच मुझे बड़ा अच्छा लगा।पता नहीं, जीजा हुकुम क्यों छिपा गईं, वरना मैनें तो सुना है कि उनकी सगाई मदारिया के साँगाजी से हो गई है।क्या बींदकी बात छिपानी चाहिए? तुम्हीं कहो भला किते दिन छिपेगी? ब्याह होगा तो सब जान जायेगें।शायद ऐसा होकि जीजा