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Showing posts from July, 2020

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मेरे तो गिरधर गोपाल 48- आपके ऐसे मृदुल स्वभाव को सुनकर ही आपके सामने आने की हिम्मत होती है। अगर अपनी तरफ देखें तो आपके सामने आने की हिम्मत नहीं होती। आपने वृत्रासुर, प्रह्लाद, विभीषण, सुग्रीव, हनुमान, गजेन्द्र, जटायु, तुलाधार वैश्य, धर्मव्याध, कुब्जा, व्रज की गोपियाँ आदि का भी उद्धार कर दिया, यह देखकर हमारी हिम्मत होती है कि आप हमारा भी उद्धार करेंगे।जैसे अत्यन्त लोभी आदमी कूडे़-कचडे़ में पडे़ पैसे को भी उठा लेता है, ऐसे ही आप भी कूडे़-कचडे़ में पडे़ हम-जैसों को उठा लेते हो। थोड़ी बात से ही आप रीझ जाते हो।-‘तुम्ह रीझहु सनेह सुठि थोरें’।कारण कि आपका स्वभाव है- रहति न प्रभु चित चूक किए की। करत सुरति सय बार हिए की। अगर आपका ऐसा स्वभाव न हो तो हम आपके नजदीक भी न आ सकें; नजदीक आने की हिम्मत भी न हो सके! आप हमारे अवगुणों की तरफ देखते ही नहीं। थोड़ा भी गुण हो तो आप उस तरफ देखते हो। वह थोड़ा भी आपकी दृष्टि से है। हे नाथ! हम विचार करें तो हमारे में राग-द्वेष, काम-क्रोध, लोभ-मोह अभिमान आदि कितने ही दोष भरे पड़े हैं। हमारे से आप ज्यादा जानते हो, पर जानते हुए भी आप उनको मानते नहीं- ‘जन अवगुन प्रभु

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मेरे तो गिरधर गोपाल 47- अभिन्नता दो होते हुए भी हो सकती है; जैसे बालक की माँसे, सेवक की स्वामी से, पत्नी की पति से अथवा मित्र की मित्र से अभिन्नता होती है। इसलिये भक्ति में आरम्भ से ही भक्त की भगवान् से अभिन्नता हो जाती है-‘साह ही को गोतु गोतु होती है गुलाम को’।कारण कि भक्त अपना अलग अस्तित्व नहीं मानता। उसमें यह भाव रहता है कि भगवान् ही हैं, मैं हूँ ही नहीं। प्रेम में माधुर्य है। अतः ‘प्रभु मेरे हैं’ ऐसे अपना पन होने से भक्त भगवान् का ऐश्वर्य (प्रभाव) भूल जाता है। जैसे, महारानी का बालक उसको ‘माँ मेरी है’ ऐसे मानता है तो उसका प्रभाव भूल जाता है कि यह महारानी है। एक बाबा जी ने गोपियों से कहा कि कृष्ण बड़े ऐश्वर्यशाली हैं, उनके पास ऐश्वर्य का बड़ा खजाना है, तो गोपियाँ बोलीं कि महाराज! उस खजाने की चाबी तो हमारे पास है! कन्हैया के पास क्या है? उसके पास तो कुछ भी नहीं! तात्पर्य है कि माधुर्य में ऐश्वर्य की विस्मृति हो जाती है। संसार में तो ऐश्वर्य का ही ज्यादा आदर है, पर भगवान् में माधुर्य का ज्यादा आदर है। जिस समय भगवान् में माधुर्य-शक्ति प्रकट रहती है, उस समय ऐश्वर्य-शक्ति दूर भाग जाती है,

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मेरे तो गिरधर गोपाल 46- अनन्तरस को प्रवाहित करने वाली प्रेम रूपी नदी के दो तट हैं- नित्यमिलन और नित्यविरह। नित्यमिलन से प्रेम में चेतना आती है, विशेष विलक्षणता आती है, प्रेम का उछाल आता है और नित्यविरह से प्रेम प्रतिक्षण वर्धमान होता है अर्थात् अपने में प्रेम की कमी मालूम देने पर ‘प्रेम और बूढ़े, और बूढ़े’ यह उत्कण्ठा होती है। अरबरात मिलिबे को निसिदिन, मिलेइ रहत मनु कबहुँ मिलै ना। जैसे धनी आदमी में तीन चीजें रहती हैं-1. धन और 2. धन का नशा अर्थात् अभिमान और 3. धन बढ़ने की इच्छा। ऐसे ही प्रेमी में तीन चीजें रहती हैं- 1. प्रेम 2. प्रेम की मादकता, मस्ती और 3. प्रेम बढ़ने की इच्छा। धनी आदमी में जो ‘धन और बढ़े, और बढ़े’- यह इच्छा रहती है, वह लोभरूपी दोष के बढ़ने से होती है। परन्तु प्रेमी में जो ‘प्रेम और बूढ़े, और बढ़े’- यह इच्छा रहती है, वह अहंता-ममता रूपी दोषों के मिटने से होती है।अहंता-ममता रूपी दोषों के मिटने के बाद जहाँ अहंता (मैं-पन) थी, वहाँ ‘नित्यमिलन’ प्रकट होता है और जहाँ ममता (मेरा-पन) थी, वहाँ ‘नित्यविरह’ प्रकट होता है वास्तव में नित्यमिलन (नित्ययोग) और नित्यविरह-दोनों जीव में सद

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मेरे तो गिरधर गोपाल 45- भगवान् का मिलन और विरह दोनों ही नित्य हैं, अनिर्वचनीय हैं, दिव्य हैं, जिनसे प्रेम प्रतिक्षण वर्धमान होता है। मिलन में प्रेम को अपने में प्रेम की कमी मालूम देती है कि जैसे भगवान् हैं, वैसा (भगवान् के लायक) मेरे में प्रेम नहीं है; और विरह में प्रेम को कभी प्रेमास्पद की विस्मृति नहीं होती, प्रत्युत निरन्तर स्मृति (तल्लीनता) बनी रहती है। यह मिलन और विहर-दोनों भगवान् देते हैं और दोनों भगवत्स्वरूप ही होते हैं। वे ‘विरह’ इसलिये देते हैं कि भक्त अपने में प्रेम की कमी का अनुभव करे और कमी का अनुभव होने से प्रेम बढ़े। वे ‘मिलन’ इसलिये देते हैं कि भक्त प्रेम का अनुभव करे, आस्वादन करे। भक्त का भगवान् में दास्य, सख्य, वात्सल्य, माधुर्य आदि कोई भी भाव हो, भक्त की अपनी अलग सत्ता नहीं होती; क्योंकि प्रेम में भक्त और भगवान् एक होकर दो होते हैं और दो होकर भी एक रहते हैं। इसलिये प्रेमी और प्रेमास्पद-दोनों में कभी सेवक स्वामी हो जाता है, कभी स्वामी सेवक हो जाता है। शंकर जी के लिये कहा भी है- ‘सेवक स्वामि सखा सिय पी के’।दक्षिण भारत में एक मन्दिर है, जिसमें शंकर जी ने नन्दी को उठा रखा

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मेरे तो गिरधर गोपाल 44- यहाँ शंका हो सकती है कि जिन गोपियों का गुणमय शरीर नहीं रहा, उनकी भगवान् के साथ रासलीला कैसे हुई? इसका समाधान है कि वास्तव में रासलीला गुणों से अतीत (निर्गुण) होने पर ही होती है। गुणों के रहते हुए भगवान् के साथ जो सम्बन्ध होता है, उसकी अपेक्षा गुणों से रहित होकर भगवान् के साथ होने वाला सम्बन्ध अत्यन्त विलक्षण है। दास्य, सख्य, वात्सल्य, माधुर्य आदि भाव भी वास्तव में गुणातीत (मुक्त) होने पर ही होते हैं।एक श्लोक आता है- ‘तत्त्वबोध से पहले का द्वैत तो मोह में डालता है, पर बोध हो जाने पर भक्ति के लिये स्वीकृत द्वैत अद्वैत से भी अधिक सुन्दर होता है।’ भगवान् को विलक्षण आनन्द देने वाला जो प्रेम है, वह गुणों में नहीं है, प्रत्युत निर्गुण में है। कारण कि गुणातीत भगवान् भी जिस प्रेम के लोभी हैं, वह प्रेम गुणमय कैसे हो सकता है? जैसे भगवान् का शरीर दिव्य है, गुणमय नहीं है, ऐसे ही उन गोपियों का शरीर भी दिव्य हो गया, गुणमय नहीं रहा। सगुण भगवान् भी सत्व-रज-तम-गुणों से युक्त नहीं हैं, प्रत्युत ऐश्वर्य, माधुर्य, सौन्दर्य, औदार्य आदि दिव्य गुणों से युक्त हैं। इसलिये सगुण भगवान् की

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मेरे तो गिरधर गोपाल 43- अतः भागवत के उपर्युक्त श्लोकों में आये ‘धुताशुभाः’ पद का अर्थ हुआ कि रजोगुण तथा तमोगुण नष्ट हो गये और ‘क्षीणमंगलाः’ पद का अर्थ हुआ कि सत्वगुण नष्ट हो गया।सत्वगुण प्रकाशक और अनामय है, इसलिये उसको यहाँ ‘मंगल’ नाम से कहा गया है।परन्तु प्रकाशक और अनामय होने पर भी वह सुख और ज्ञान के संग से बाँधने वाला होता है-‘सुखसंगेन बध्नाति ज्ञानसंगेन चानघ’ (गीता 14/6)। ध्यान में आये हुए श्रीकृष्ण मन-ही-मन आलिंगन करने से गोपियों को जो विलक्षण सुख हुआ, उस सुख से सत्वगुण से होने वाले सुख संग और ज्ञान संग का भी सुख मिट गया अर्थात् सात्विक सुख और सात्विक ज्ञान की भी आसक्ति मिट गयी! इस प्रकार जन्म-मरण का कारण जो तीनों गुणों का संग है, वह सर्वथा नहीं रहा, जिसके न रहने से गोपियों का गुणमय शरीर भी नहीं रहा। तत्त्व ज्ञान शरीर के शरीर के सम्बन्ध (अहंता-ममता)-का नाश तो करता है, पर शरीर का नाश नहीं करता। कारण कि जीवमुक्त होने पर संचित और क्रियमाण कर्म तो क्षीण हो जाते हैं, पर प्रारब्ध क्षीण नहीं होता। इसलिये जीवन्मुक्ति, तत्त्व ज्ञान होने पर भी जब तक प्रारब्ध का वेग रहता है, तब तक शरीर भी रहत

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मेरे तो गिरधर गोपाल 42- भगवान् के विरह से गोपियों को जो ताप (दुःख) हुआ, वह दुःसह और तीव्र था- ‘दुःसहप्रेष्ठ विरहतीव्रताप।’ यह ताप संसार के ताप से अत्यन्त विलक्षण है। सांसारिक ताप में तो दुःख-ही-दुःख होता है, पर विरह के ताप में आनन्द-ही-आनन्द होता है। जैसे मिर्ची खाने से मुख में जलन होती है, आँखों में पानी आता है, फिर भी मनुष्य उसको खाना छोड़ता नहीं; क्योंकि उसको मिर्ची खाने में एक रस मिलता है। ऐसे ही प्रेमी भक्त को विरह के तीव्र ताप में उससे भी अत्यन्त विलक्षण एक रस मिलता है। इसीलिये चैतन्य महाप्रभु-जैसे महापुरुष ने भी विरह को ही सर्वश्रेष्ठ माना है। सांसारिक ताप तो पापों के सम्बन्ध से होता है, पर विरह का ताप भगवत्प्रेम के सम्बन्ध से होता है। इसलिये विरह के ताम में भगवान् साथ मानसिक सम्बन्ध रहने से आनन्द का अनुभव होता है-‘ध्यानप्राप्ताच्युताश्लेषनिर्वृत्या’। जैसे प्यास वास्तव में जल से अलग नहीं है, ऐसे ही विरह भी वास्तव में मिलन से अलग नहीं है। जल का सम्बन्ध रहने से ही प्यास लगती है। प्यास में जल की स्मृति रहती है। अतः प्यास जलरूप ही हुई। इसी तरह विरह भी मिलन रूप ही है। विरह और मिलन-दो

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मेरे तो गिरधर गोपाल 41- उस समय कुछ गोपियों को उनके पति, पुत्र आदि ने अथवा पिता, भाई आदि ने घर में ही बन्द कर दिया, जिससे उनको घर से निकलने में मार्ग नहीं मिला। मार्ग न मिलने पर उन गोपियों की क्या दशा हुई- इस विषय में श्री शुकदेव जी महाराज कहते हैं- दुःसहप्रेष्ठाविरहतीव्रतापधुताशुभाः। ध्यानप्राप्ताच्युताश्लेषनिर्वृत्या क्षीणमंगलाः।। तमेव परमात्मानं जारबुद्ध्यापि संगताः।। जहुर्गुणमयं देहं सद्यः प्रक्षीणबन्धनाः।।(श्रीमदा0 10/21/10-11) ‘उन गोपियों के हृदय में अपने परम प्रियतम श्रीकृष्ण के असह्य विरह का जो तीव्र ताप हुआ, उससे उनका अशुभ जल गया और ध्यान में आये हुए श्रीकृष्ण का आलिंगन करने से जो सुख हुआ, उससे उनका मंगल नष्ट हो गया।’ ‘यद्यपि उन गोपियों की श्रीकृष्ण में जारबुद्धि थी, फिर भी एकमात्र परमात्मा (श्रीकृष्ण)-के साथ सम्बन्ध होने से उनके सम्पूर्ण बन्धन तत्काल एवं सर्वथा नष्ट हो गये और उन्होंने अपने गुणमय शरीर का त्याग कर दिया।’ अगर उपर्युक्त श्लोकों पर विचार करते हुए ऐसा मानें कि भगवान् के विरह की तीव्र जलन से गोपियों के पाप नष्ट हो गये- ‘धुताशुभाः’ तथा ध्यान जनित सुख से पुण्य नष्ट हो

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मेरे तो गिरधर गोपाल 40- शम (शान्ति)-का अर्थ है- कुछ न करना। जब तक ‘करने’ के साथ सम्बन्ध है, तब तक प्रकृति के साथ सम्बन्ध है और जब तक प्रकृति के साथ सम्बन्ध है, तब तक अशान्ति है, दुःख है, जन्म-मरण है। प्रकृति के साथ सम्बन्ध ‘न करने’ से मिटेगा। कारण कि क्रिया और पदार्थ दोनों प्रकृति के हैं। चेतन-तत्त्व में न क्रिया है, न पदार्थ। क्रिया अनित्य है, अक्रियपना नित्य है। क्रिया का आरम्भ और अन्त होता है, पर अक्रियपना नित्य-निरन्तर ज्यों-का-त्यों रहता है। इसलिये परमात्मप्राप्ति के लिये ‘शम’ अर्थात् कुछ न करना ही कारण है। हाँ, अगर इस शान्ति का उपभोग किया जायगा तो परमात्मा की प्राप्ति नहीं होगी। ‘मैं शान्त हूँ’- इस प्रकार शान्ति में अहंकार लगाने से और ‘बड़ी शान्ति है’- इस प्रकार शान्ति में राजी होने से शान्ति का उपभोग हो जाता है। इसलिये शान्ति में व्यक्तित्व न मिलाये, प्रत्युत ऐसा समझे कि शान्ति स्वतः है। शान्ति का उपभोग करने से शान्ति नहीं रहेगी, प्रत्युत चंचलता आ जायगी अथवा नींद आ जायगी। उपभोग नहीं करने से शान्ति स्वतः रहेगी। बिना क्रिया और बिना अभिमान के जो स्वतः शान्ति होती है, वह ‘योग’ है। क

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मेरे तो गिरधर गोपाल 39- इसलिये क्रिया करने में दो आदमी भी बराबर नहीं होते, पर कुछ न करने में लाखों-करोड़ों आदमी भी एक हो जाते हैं। कोई विद्वान हो या मूर्ख हो, धनी हो या निर्धन हो, रोगी हो या नीरोग हो, निर्बल हो या बलवान् हो, योग्य हो या अयोग्य हो, कुछ न करने में सब एक हो जाते हैं, सबकी स्थिति परमात्मा में हो जाती है। तात्पर्य है कि अगर कुछ भी चिन्तन करेंगे तो संसार में स्थिति होगी और कुछ भी चिन्तन नहीं करेंगे तो परमात्मा में स्थिति होगी। वास्तव में हमारी स्थिति स्वतः परमात्मा में ही है, पर चिन्तन करने से इसका भान नहीं होता। इसलिये गीता में भगवान कहते हैं- शनैः शनैरुपरमेद्बुद्धया धृतिगृहीतया। आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत्। ‘धैर्ययुक्त बुद्धि के द्वारा संसार से धीरे-धीरे उपराम हो जाय और मन (बुद्धि)-को परमात्मस्वरूप में सम्यक् प्रकार से स्थापन करके फिर कुछ भी चिन्तन न करे।’ तात्पर्य है कि सात्त्विक बुद्धि और सात्त्विक धृति के द्वारा क्रिया और पदार्थ रूप संसार से धीरे-धीरे उपराम हो जाय। जल्दबाजी न करे; क्योंकि जल्दबाजी करने से साधन बढ़िया नहीं होता। एक सच्चिदानन्दघन परमात्मा

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मेरे तो गिरधर गोपाल 38- यह (आत्मा) शरीर में रहता हुआ भी न करता है और न लिप्त होता है।’ तात्पर्य है कि कर्तापन और भोक्तापन शरीर में है, पर हम उसको अपने में मान लेते हैं। इसी बात का विवेचन भगवान ने गीता में आकाश और सूर्य का दृष्टान्त देकर किया है कि जैसे आकाश किसी भी वस्तु से लिप्त नहीं होता, ऐसे ही आत्मा भी किसी देह से लिप्त नहीं होती; और जैसे सूर्य तीनों लोकों को प्रकाशित करता है, ऐसे ही आत्मा सम्पूर्ण शरीरों को प्रकाशित करती है।तात्पर्य है कि सूर्य के प्रकाश में ही वेद का पाठ होता है और सूर्य के प्रकाश में ही व्याध शिकार करता है, पर सूर्य को उन क्रियाओं का न पुण्य लगता है, न पाप। कारण कि सूर्य किसी भी क्रिया का कर्ता नहीं बनता। भगवान कहते हैं-   यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते। हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते। ‘जिसका अहंकृत भाव (मैं कर्ता हूँ- ऐसा भाव) नहीं है और जिसकी बुद्धि लिप्त नहीं होती, वह युद्ध में इन सम्पूर्ण प्राणियों को मारकर भी न मारता है और न बँधता है।’ जैसे आकाश भोक्ता नहीं है, ऐसे ही हम भी भोक्ता नहीं हैं और जैसे सूर्य कर्ता नहीं है, ऐसे ही हम भी कर्ता

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मेरे तो गिरधर गोपाल 37- शरीर के साथ सम्बन्ध रखते हुए मनुष्य कर्म करने से भी बँधता है और कर्म न करने से भी बँधता है। परन्तु शरीर से सम्बन्ध-विच्छेद होने पर वह कर्म करते हुए भी वास्तव में कुछ नहीं करता- ‘कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किञ्चित्करोति सः’जैसे, दही के साथ घी भी रहता है, पर दही में से घी निकाल दिया जाय तो फिर वह उसमें (छाछ में) नहीं मिलता, अलग हो जाता है। ऐसे ही शरीर से अलग होने के बाद फिर स्वयं उससे नहीं मिलता। वास्तव में वह मिला हुआ होने पर भी अलग ही है, पर मिला हुआ मान लेता है। तात्पर्य है कि जड़ चेतन तक नहीं पहुँचता, पर चेतन जड़ तक पहुँचता है और उसके साथ सम्बन्ध मान लेता है तथा जड़ में होने वाली क्रियाओं को, विकारों को अपने में मान लेता है। अगर सम्बन्ध न माने तो बन्धन है ही नहीं और मुक्ति स्वाभाविक है। एक बात साधक मात्र के हृदय में बैठ जानी चाहिये कि हम सब भगवान् के पुत्र हैं- ‘अमृतस्य पुत्राः’ । कारण कि हम सब भगवान् के ही अंश है- ‘ममैवांशो जीवलोके’। हमसे यही गलती होती है कि हम जिनके अंश हैं, उन भगवान् को अपना न मानकर जड़ वस्तुओं (शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि)- को अपना मान लेत

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मेरे तो गिरधर गोपाल 36- हमारा स्वरूप स्वाभाविक मुक्त है। प्रकृति में निरन्तर क्रिया होती है- सर्गावस्था में भी और प्रलयावस्था में भी। पर स्वरूप में कभी क्रिया होती ही नहीं। वह है ज्यों ही रहता है। अनन्त-अनन्त-अनन्त कल बीत जायँ तो भी वह है ज्यों-का-त्यों रहेगा। वह अनेक शरीर धारण करने पर भी उनसे अलग रहता है। एक दिन में कई क्रियाएँ करता है, पर स्वयं अलग रहता है। अलग रहने पर से पहली क्रिया को छोड़कर दूसरी को क्रिया पकड़ता है, दूसरी को छोड़कर तीसरी पकड़ता है, तीसरी को छोड़कर चौथी पकड़ता है। अगर स्वरूप में भी क्रियाशीलता होती तो वह सदा एक ही क्रिया में और एक ही शरीर में रहता। वह पहली क्रिया को छोड़कर दूसरी को कैसे पकड़ता? एक शरीर को छोड़कर चौरासी लाख योनियों के दूसरे शरीरों में कैसे जाता? सबसे अलग होने पर भी यह जड़ शरीर, वस्तु, व्यक्ति और क्रिया के साथ सम्बन्ध जोड़कर बँध जाता है। बँध जाने के बाद फिर छूटना कठिन हो जाता है- ‘जड़ चेतनहि ग्रंथि परि गई। जदपि मृषा छूटत कठिनई। वास्तव में यह बँधा हुआ है ही नहीं। इसलिये मुक्ति स्वाभाविक है- यह बात हरेक को मान लेनी चाहिये। बन्धन अस्वाभाविक है, कृतिसाध

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मेरे तो गिरधर गोपाल 35- पुरुष भोक्तापन में हेतु तो है, पर क्रिया में हेतु नहीं है। सभी भोग क्रियाजन्य होते हैं। जब पुरुष प्रकृति में स्थित होता है, तभी वह भोक्ता होता है- ‘पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुंक्ते प्रकृतिजान्गुणान्’।प्रकृति से अलग होने पर पुरुष भोक्ता नहीं होता। यह पुरुष की विलक्षणता है कि देह में स्थित होता हुआ भी वह देह से पर है अर्थात देह से असंग, अलिप्त, असम्बद्ध है- ‘देहेऽस्मिन्पुरुषः परः’।शरीर के साथ अपनी एकता मानने से ही वह कर्ता-भोक्ता बनता है, अन्यथा वह कर्ता-भोक्ता है ही नहीं- ‘शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते’।जैसे सूर्य सब को प्रकाशित करता है, पर वह किसी क्रिया का कर्ता नहीं बनता। सूर्य के प्रकाश में कोई वेद पढ़ता है तो सूर्य उस पुण्य का भागी नहीं होता और कोई शिकार करता है तो सूर्य उस पाप का भागी नहीं होता। ऐसे ही पुरुष शरीर के साथ सम्बन्ध न जोड़े तो वह पाप-पुण्य का भागी नहीं होता। जीवात्मा की प्रकृति के साथ मानी हुई एकता है और परमात्मा के साथ स्वरूप से एकता है; क्योंकि यह परमात्मा का ही अंश है। शरीर के साथ सम्बन्ध जोड़ने से यह कर्ता-भोक्ता बनता है और जन्म-मरण में

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मेरे तो गिरधर गोपाल 34- शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि और अहंकार-इन सबके अभाव का अनुभव तो सबको होता है, पर अपने अभाव का अनुभव कभी किसी को नहीं होता। जिसके अभाव का अनुभव होता है, उसके हम अतीत हैं। हमारी भाव रूप सत्ता हरदम रहती है। सुषुप्ति में शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, अहंकार कुछ भी नहीं रहता, सब लीन हो जाते हैं। कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं कहता कि सुषुप्ति में मैं मर गया था, अब जी गया हूँ। सुषुप्ति में भी हम रहते हैं, तभी तो हम कहते हैं कि मैं बड़े सुख से सोया कि कुछ भी पता नहीं था। सुषुप्ति में भी हमारा होनापन ज्यों-का-त्यों था। कारण कि हमारी सत्ता (होनापन) अहंकार के अधीन नहीं है, बुद्धि के अधीन नहीं है, मन के अधीन नहीं है, इन्द्रियों के अधीन नहीं हैं, शरीर के अधीन नहीं है। हमारी सत्ता स्वतन्त्र है। स्थूल, सूक्ष्म और कारण सब शरीरों का अभाव होता है, पर हमारा अभाव नहीं होता। इसलिये हमारा स्वरूप निराकार है। साकाररूप शरीर पीछे बनता है और मिट जाता है। हम निराकाररूप से हैं, पर शरीररूप से अपने को साकार मानते हैं। यह मूल भूल है। इस भूल का हमें प्रायश्चित करना है। प्रायश्चित करने में तीन बातें ह

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मेरे तो गिरधर गोपाल 33- संसार में हमें दो चीजें दीखती हैं- पदार्थ और क्रिया। ये दोनों ही प्रकृति का कार्य है। साधारण दृष्टि से हम लोगों को संसार में पदार्थ प्रधान दीखता है, पर वास्तव में क्रिया प्रधान है, पदार्थ प्रधान नहीं है। पदार्थ में हरदम परिवर्तन-ही-परिवर्तन होता है तो फिर क्रिया ही हुई, पदार्थ कहाँ हुआ? क्रिया का पुंज ही पदार्थरूप से दीखता है। वह क्रिया भी बदलने वाली है। ये क्रिया और पदार्थ प्रकृति का स्वरूप हैं, हमारा स्वरूप नहीं है। हमारा स्वरूप क्रिया और पदार्थ से रहित ‘अव्यक्त’ है। जैसे हम मकान में बैठे हुए हैं तो माकन अलग है, हम अलग हैं। इसलिये हम मकान को छोड़कर चले जाते हैं। ऐसे ही हम शरीर में बैठे हुए हैं। शरीर यहीं पड़ा रहता है, हम चले जाते हैं। मकान पीछे रहता है, हम अलग हो जाते हैं तो वास्तव में हम पहले से ही उससे अलग हैं। वास्तव में हम शरीर में रहते नहीं हैं, प्रत्युत रहना मान लेते हैं। इसलिये भगवान् ने कहा है- ‘अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्’ ‘अविनाशी तो उसको जान, जिससे यह सम्पूर्ण संसार व्याप्त हैं।’ तात्पर्य है कि स्वरूप सर्वव्यापी है, एक शरीर में सीमित नहीं

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मेरे तो गिरधर गोपाल 32- इसलिये वास्तव में साधक अव्यक्त होकर ही भगवान् का भजन करते हैं। एक पांचभौतिक शरीर होता है और एक अव्यक्त भाव शरीर होता है। भजन-ध्यान वास्तव में भाव शरीर से ही होता है। भजन नाम प्रेम का है- ‘पन्नगारि सुनु प्रेम सम भजन न दूसर आन’।प्रेम भाव शरीर से ही होता है। अतः वास्तव में अव्यक्तमूर्ति ही भगवान् में प्रेम करता है, भगवान का भजन करता है, भगवान् में तल्लीन होता है। उसी को भगवान् मीठे लगते हैं, भगवान की बात अच्छी लगती है, भगवान् की लीला अच्छी लगती है, भगवान् का नाम अच्छा लगता है। भगवान ने कहा है कि यह जीव अनादिकाल से मेरा ही अंश है- ‘ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः’।यहाँ ‘मम एक अंशः’ कहने का तात्पर्य है कि जैसे शरीर में माता-पिता दोनों का अंश है, ऐसे जीव में प्रकृति का अंश नहीं है, प्रत्युत केवल मेरा ही अंश है। प्रकृति का अंश शरीर तो प्रकृति में ही स्थित रहता है, पर जीव परमात्मा का अंश होते हुए भी परमात्मा में स्थित नहीं रहता। वह अपने-आप को संसार में स्थित मानता है, भगवान् में स्थित नहीं मानता। वह प्रकृति में स्थित शरीर- इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि को अपना स्वरूप मान लेता है

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मेरे तो गिरधर गोपाल 31- ज्ञानमार्ग में पहले साधक समझता है, फिर वह मान लेता है। भक्तिमार्ग में पहले मानता है, फिर समझ लेता है। तात्पर्य है कि ज्ञान में विवेक मुख्य है और भक्ति में श्रद्धा-विश्वास। ज्ञानमार्ग और भक्तिमार्ग में यही फर्क है। दोनों मार्गों में एक-एक विलक्षणता है। ज्ञानमार्ग वाला साधक तो आरम्भ से ही ब्रह्म हो जाता है, ब्रह्म से नीचे उतरता ही नहीं, पर भक्त सिद्ध हो जाने पर, परमात्मा की प्राप्ति हो जाने पर भी ब्रह्म नहीं होता, प्रत्युत ब्रह्म ही उसके वश में हो जाता है! गोस्वामी जी महाराज ने सब ग्रन्थ लिखने के बाद अन्त में विनय-पत्रिका की रचना की। उसमें वे छोटे बच्चे की तरह सीता माँ से कहते हैं- कबहुँक अंब, अवसर पाइ। मेरिऔ सुधि द्याइबी, कछु करुन-कथा चलाइ। दीन, सब अँगहीन, छीन, मलीन, अघी अघाइ । नाम लै भरै उदर एक प्रभु-दासी-दास कहाइ। बूझिहैं ‘सो है कौन’, कहिबी नाम दसा जनाइ। सुनत राम कृपालु के मेरी बिगरिऔ बनि जाइ। जानकी जगजननि जन की किये बचन सहाइ। तरै तुलसीदास भव तव नाथ-गुन-गन गाइ। तात्पर्य है कि सिद्ध, भगवत्प्राप्त होने पर भी भक्त अपने को सदा छोटा ही समझते हैं। वास्तविक दृष्टि से

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मेरे तो गिरधर गोपाल 30- भगवान कहते हैं- ‘मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिंना’ ‘यह सब संसार मेरे अव्यक्त (निराकार)-स्वरूप से व्याप्त है।’ जिसकी आकृति होती है, उसको ‘मूर्ति’ कहते हैं और जिसकी कोई भी आकृति नहीं होती, उसको ‘अव्यक्तमूर्ति’ कहते हैं। जैसे भगवान् अव्यक्तमूर्ति हैं, ऐसे ही साधक भी अव्यक्तमूर्ति होता है- ‘अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते’ साधक शरीर नहीं होता- ऐसी बात ग्रन्थों में आती नहीं, पर वास्तव में बात ऐसी ही है। साधक भाव शरीर होता है। वह योगी होता है, भोगी नहीं होता। भोग और योग का आपस में विरोध है। भोगी योगी नहीं होता और योगी भोगी नहीं होता। साधक को भी काम भोगबुद्धि अथवा सुखबुद्धि से नहीं करता, प्रत्युत योगबुद्धि से करता है। समता का नाम ‘योग’ है- समत्वं योग उच्यते’ समता भाव है। अतः साधक भाव शरीर होता है। स्थूल शरीर परिक्षण बदलता है। ऐसा कोई क्षण नहीं है, जिस क्षण में शरीर का परिवर्तन न होता हो। परमात्मा की दो प्रकृतियाँ हैं। शरीर अपरा प्रकृति है और जीव परा प्रकृति है। परा प्रकृति अव्यक्त है और अपरा प्रकृति व्यक्त है। सम्पूर्ण प्राणी पहले अव्यक्त हैं, बीच में व्यक्त

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मेरे तो गिरधर गोपाल 29- शरीर से जप, ध्यान, पूजन, तीर्थ, व्रत आदि जो कुछ भी किया जाय, वह इस भाव से किया जाय कि दूसरों का हित हो। अपने लिये कुछ भी करना भोग है, योग नहीं। तात्पर्य हुआ कि शरीर संसार का अंश है, इसलिये शरीर से होने वाली प्रत्येक क्रिया संसार के लिये ही है, हमारे लिये नहीं। हमारे लिये केवल परमात्मा हैं; क्योंकि हम उन्हीं के अंश हैं। अतः पराश्रय और परिश्रम भोग है। जो पराश्रय को छोड़कर भगवदाश्रय को अपनाता है और परिश्रम को छोड़कर विश्राम को अपनाता है, वह योगी होता है। परन्तु जो पराश्रय और परिश्रम को अपनाता है, वह भोगी होता है। पराश्रय और परिश्रम में सभी पराधीन हैं, पर भगवदाश्रय और विश्राम में सब-के-सब स्वतन्त्र हैं। पराश्रय और परिश्रम तो संसार के लिये हैं, पर भगवदाश्रय और विश्राम अपने लिये हैं। साधक को अपने में जितनी कमी दीखती है, उतना ही पराश्रय और परिश्रम है। भगवदाश्रय और विश्राम के आते ही मानव-जीवन पूर्ण हो जाता है। कारण कि एक भगवान् के सिवाय और कोई ऐसा नहीं है, जो सदा हमारे साथ रहे, कभी हमसे बिछुड़े नहीं। संसार की प्राप्ति के लिये क्रिया है और परमात्मा की प्राप्ति के लिये वि

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मेरे तो गिरधर गोपाल 28- अब इन तीन बातों पर गम्भीरतापूर्वक विचार करें। पहली बात है- मेरा कुछ भी नहीं है। इसको स्वीकार करने के लिये साधक को इस बात का मनन करना चाहिये कि हम अपने साथ क्या लाये हैं और अपने साथ क्या ले जायँगे? मनन करने से साधक को पता लगेगा कि हम अपने साथ कुछ लाये नहीं और अपने साथ कुछ ले जा सकते नहीं। तात्पर्य यह निकला कि जो वस्तु मिलने और बिछुड़ने वाली है, वह हमारी नहीं हो सकती। जो वस्तु उत्पन्न और नष्ट होने वाली है, वह हमारी नहीं हो सकती। जो वस्तु आने और जाने वाली है, वह हमारी नहीं हो सकती। कारण कि स्वयं मिलने-बिछुड़ने वाला, उत्पन्न-नष्ट होने वाला, आने-जाने वाला नहीं है। अतः सिद्ध हुआ कि अनन्त ब्रह्माण्डो में तिल-जितनी वस्तु भी हमारी नहीं है। दूसरी बात है- मेरे को कुछ नहीं चाहिये। साधक को विचार करना चाहिये कि जब संसार में कोई वस्तु मेरी है ही नहीं, तो फिर मेरे को क्या चाहिये? शरीर को अपना मानने से ही चाह पैदा होती है कि हमें रोटी चाहिये, जल चाहिये, कपड़ा चाहिये, मकान चाहिये आदि-आदि। साधक इस बात पर विचार करे कि शरीर से अलग होकर मेरे को क्या चाहिये? तात्पर्य है कि जब साधक इस

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मेरे तो गिरधर गोपाल 27- अगर साधक साध्य के बिना रहता है तो समझना चाहिये कि वह साध्य के सिवाय अन्य (भोग तथा संग्रह)- का भी साधक है। उसने अपने मन में दूसरे को भी सत्ता दी है। अगर साध्य साधक के बिना रहता है तो समझना चाहिये कि साध्य के सिवाय साधक का अन्य भी कोई साध्य है अर्थात भोग तथा संग्रह भी साध्य है। हृदय में नाशवान का जितना महत्त्व है, उतनी ही साधकपनें में कमी है। साधकपनें में जितनी कमी रहती है, उतनी ही साध्य से दूरी रहती है। पूर्ण साधक होने पर साध्य की प्राप्ति हो जाती है। शरीर को मैं, मेरा तथा मेरे लिये मानने से ही साधक को साध्य की अप्राप्ति दीखती है। साध्य के सिवाय अन्य की सत्ता स्वीकार न करना ही उसकी प्राप्ति का बढ़िया उपाय है। इसलिये साधक की दृष्टि केवल इस तरफ रहनी चाहिये कि संसार नहीं है। संसार का पहले भी अभाव था, बाद में भी अभाव हो जायगा और बीच में भी वह प्रतिक्षण अभाव में जा रहा है। संसार की स्थिति है ही नहीं। उत्पत्ति-प्रलय की धारा ही स्थिति रूप से दीखती है। साधक के लिये साध्य में विश्वास और प्रेम होना बहुत जरूरी है। विश्वास और प्रेम उसी साध्य में होना चाहिये, जो विवेक-विरोधी

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मेरे तो गिरधर गोपाल 26- “हौं तो सदा खर को असवार, तिहरोइ नामु गयंद चढ़ायो।” मैं कितना अयोग्य था, पर आपकी कृपा ने कितना योग्य बना दिया! इसलिये भगवान् की कृपा की ओर देखो। हम जो कुछ बने हैं, अपनी बुद्धि, बल, विद्या, योग्यता, सामर्थ्य से नहीं बने हैं। जहाँ मन में अपनी बुद्धि, बल आदि से बनने की बात आयी, वहीं अभिमान आता है कि हमने ऐसा किया, हमने वैसा किया। इस अभिमान से बचने के लिये भगवान को पुकारो। अपने बल से नहीं बच सकते, प्रत्युत भगवान् की कृपा से ही बच सकते हैं। भगवान् की स्मृति समस्त विपत्तियों का नाश करने वाली है- ‘हरिस्मृतिः सर्वविपद्विमोक्षणम्’। इसलिये भगवान को याद करो, भगवान् का नाम लो, भगवान् के चरणों की शरण लो। उनके सिवाय और कोई रक्षा करने वाला नहीं है। भगवान् के बिना संसार मात्र अनाथ है। भगवान के कारण से ही संसार सनाथ है। चलती चक्की में आकर सब दाने पिस जाते हैं, पर जिस कील के आधार पर चक्की चलती है, उस कील के पास जो दाने चले जाते हैं, वे पिसने से बच जाते हैं- ‘कोई हरिजन ऊबरे कील माकड़ी पास’। इसलिये प्रभु के चरणों की शरण लो और प्रभु को पुकारो, इसके सिवाय अभिमान से बचने का कोई उपाय नह

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मेरे तो गिरधर गोपाल 25- नारद जी ने कहा कि बन्दर आपकी सहायता करेंगे- ‘करिहहिं कीस सहाय तुम्हारी’ तो यह शाप हुआ कि वरदान? यह तो वरदान हुआ! इसलिये कहा है- ‘साधु ते होइ न कारज हानी’। शाप के कारण भगवान का अवतार हुआ और विविध लीलाएँ हुईं, जिनको गा-गाकर लोगों का कल्याण हो रहा है। तात्पर्य है कि नारद जी का शाप लोगों के कल्याण का उपाय हो गया! ऐसे ही भगवान का भी क्रोध वरदान के समान कल्याणकारी होता है- ‘क्रोधोअपि देवस्य वरेण तुल्यः’। भगवान् और उनके भक्त- दोनों ही बिना हेतु सबका हित करने वाले हैं- हेतु रहित जग जुग उपकारी। तुम्ह तुम्हार सेवक असुरारी । इन दोनों के साथ किसी भी तरह से सम्बन्ध हो जाय तो लाभ-ही-लाभ होता है। ये सब पर कृपा करते हैं। लोग कहते हैं कि भगवान ने दुःख भेद दिया! पर भगवान् के खजाने में दुःख है ही नहीं, फिर वे कहाँ से दुःख लाकर आपको देंगे? भगवान् और सन्त कृपा-ही-कृपा करते हैं, इसलिये इनका संग छोड़ना नहीं चाहिये। मनुष्य जन्म में किये गये पाप चौरासी लाख योनियाँ भोगने पर भी सर्वथा नष्ट नहीं होते, बाकी रह जाते हैं। फिर भी भगवान् कृपा करके मनुष्य शरीर दे देते हैं, अपने उद्धार का मौका दे

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मेरे तो गिरधर गोपाल 24- सन्तों की वाणी में एक बड़ी विचित्र बात आयी है कि भगवान् ने संसार को मनुष्य के लिये बनाया और मनुष्य को अपने लिये बनाया। तात्पर्य है कि मनुष्य मेरी भक्ति करेगा तो संसार की सब वस्तुएँ उसको दूँगा! उसको किसी बात की कमी रहेगी ही नहीं! सदा के लिये कमी मिट जायगी! पर वह भक्ति न करके अभिमान करने लग गया। अभिमान भगवान को सुहाता नहीं- ईश्वरस्याप्यभिमानद्वेषित्वाद् दैन्यप्रियत्वाच्च । ‘ईश्वर का भी अभिमान से द्वेषभाव है और दैन्य से प्रियभाव है।’ सुनहु राम कर सहज सुभाऊ। जन अभिमान न राखहिं काऊ। संसृत मूल सूलप्रद नाना। सकल सोक दायक अभिमाना। ताते करहिं कृपानिधि दूरी। सेवक पर ममता अति भूरी। भगवान् अभिमान को दूर करते हैं, पर मनुष्य फिर अभिमान कर लेता है! अभिमान करते-करते उम्र बीत जाती है! इसलिये हरदम ‘हे नाथ! हे मेरे नाथ!’ पुकारते रहो और भीतर से इस बात का खयाल रखो कि जो कुछ विशेषता आयी है, भगवान् से आयी है। यह अपने घर की नहीं है। ऐसा नहीं मानोगे तो बड़ी दुर्दशा होगी! यह मानव जन्म भगवान् का ही दिया हुआ है। भगवान् ने मनुष्य को तीन शक्तियाँ दी हैं- करने की शक्ति, जानने की शक्ति और मानन

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मेरे तो गिरधर गोपाल 23- साधक को इस बात का खयाल रखना चाहिये कि अपने में जो कुछ विशेषता आयी है, वह खुद कि नहीं है, प्रत्युत भगवान् से आयी है। इसलिये उस विशेषता को भगवान् की ही समझे, अपनी बिलकुल न समझे। अपने में जो कुछ विशेषता दीखती है, वह प्रभु की दी हुई है- ऐसा दृढ़तापूर्व मानने से ही अभिमान दूर हो सकता है। मैं जैसा कीर्तन करता हूँ, वैसा दूसरा नहीं कर सकता; दूसरे इतने हैं, पर मेरे जैसा करने वाला कोई नहीं है- इस प्रकार जहाँ दूसरे को अपने सामने रखा कि अभिमान आया! साधक को ऐसा मानना चाहिये कि मैं करने वाला नहीं हूँ, प्रत्युत यह तो भगवान् की कृपा से हो रहा है। जो विशेषता आयी है, वह मेरी व्यक्तिगत नहीं है। अगर व्यक्तिगत होती तो सदा रहती, उस पर मेरा अधिकार चलता। ऐसा मानने से ही अभिमान से छुटकारा हो सकता है। भगवान् की कृपा है कि वे किसी का अभिमान रहने नहीं देते। इसलिये अभिमान आते ही उसमें टक्कर लगती है। भगवान् विशेष कृपा करके चेताते हैं कि तू कुछ भी अपना मत मान, तेरा सब काम मैं करूँगा। भगवान् अभिमान को तोड़ देते हैं, उसको ठहरने नहीं देते- यह उनकी बड़ी अलौकिक, विचित्र कृपा है। जिसमें अभिमान रह ज

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मेरे तो गिरधर गोपाल 22- फिर स्वरूप जिसका अंश है, उस परमात्मा को अपना मानने से, उसके शरणागत होने से अलौकिक साधना (भक्तियोग)-की सिद्धि हो जाती है अर्थात् परम प्रेम की प्राप्ति हो जाती है। परम प्रेम की प्राप्ति में ही मनुष्य जन्म की पूर्णता है।इसलिये साधक को आरम्भ से ही इस सत्य को स्वीकार कर लेना चाहिये कि मैं शरीर नहीं हूँ, शरीर मेरा नहीं है और शरीर मेरे लिये नहीं है। कारण कि मैं परा प्रकृति (चेतन) हूँ, जो कि परमात्मा का अंश है और शरीर-संसार अपरा प्रकृति (जड़) है। अपरा प्रकृति अपनी पूरी शक्ति लगाकर भी हमारी वास्तविक इच्छा की पूर्ति नहीं कर सकती अर्थात हमें अमर नहीं बना सकती, हमारा अज्ञान नहीं मिटा सकती और हमें सदा के लिये सुखी नहीं कर सकती। प्रश्न- सत्संग में ऐसी बातें सुनते हुए भी जब व्यवहार करते हैं, तब राजी-नाराज हो जाते हैं, क्या करें? उत्तर- व्यवहार में राजी-नाराज हो जाते हैं तो यह बालकपना है। बच्चे खेलते हैं तो वे मिट्टी इकट्ठी करके पहाड़, मकान आदि बना देते हैं और उसमें लाइन खींच देते हैं कि इतनी जमीन मेरी है, इतनी तुम्हारी है। दूसरा बच्चा जमीन ले लेता है तो लड़ने लग जाते हैं कि तु

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मेरे तो गिरधर गोपाल 21- आपने अबतक कई शरीर धारण किये, पर सब शरीर छूट गये, आप वही रहे। शरीर तो यहीं छूट जायगा, पर स्वर्ग या नरक में आप जाओगे, मुक्ति आपकी होगी, भगवान् के धाम में आप पहुँचोगे। तात्पर्य है कि आपकी सत्ता (स्वरूप) शरीर के अधीन नहीं है। अतः शरीर के रहने अथवा न रहने से आपकी सत्ता में कोई फर्क नहीं पड़ता। अनन्त ब्रह्माण्ड हैं, अनन्त सृष्टियाँ हैं, पर उनका आप पर सत्ती भर भी फर्क नहीं पड़ता। केश-जितनी चीज भी आप तक नहीं पहुँचती। ये सब मन-बुद्धि तक ही पहुँचती हैं। प्रकृति का कार्य मन-बुद्धि से आगे जा सकता ही नहीं। इसलिये अनन्त ब्रह्माण्डो में केश-जितनी चीज भी आपकी नहीं है। आपके परमात्मा हैं और आप परमात्मा के हो। साधन करके आप ही परमात्मा को प्राप्त होंगे, शरीर प्राप्त नहीं होगा। इसलिये साधन करते हुए ऐसा मानना चाहिये कि हम निराकार हैं, साकार (शरीर) नहीं हैं। आप मकान में बैठते हैं तो आप मकान नहीं हो जाते। मकान अलग है, आप अलग हैं। मकान को छोड़कर आप चल दोगे। फर्क आपसे पड़ेगा, मकान में नहीं। ऐसे ही शरीर यहीं रहेगा, आप चल दोगे। पाप-पुण्य का फल आप भोगोगे, शरीर नहीं भोगेगा। मुक्ति आपकी होगी,

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मेरे तो गिरधर गोपाल 20- मन का सम्बन्ध प्रकृति के साथ है और आपका सम्बन्ध परमात्मा के साथ है। आपने मन के साथ अपना सम्बन्ध मान लिया तो अब दुःख पाना ही पड़ेगा। अब आप मन से, शरीर से जो काम करोगे, उसका पाप-पुण्य आपको लगेगा ही। कुत्ते के मन में कुछ भी आये, उससे आपको क्या मतलब? ऐसे ही इस मन में कुछ भी आये, उससे आपको क्या मतलब? आपका सम्बन्ध शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि के साथ नहीं है, प्रत्युत परमात्मा के साथ है- इस बात को समझाने के लिये ही गीता में भगवान कहते हैं- ‘ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः’ ‘इस संसार में जीव बना हुआ आत्मा मेरा ही सनातन अंश है’। इस बात को समझ लो तो आपकी वृत्तियों में, आपके साधन में फर्क पड़ जायगा। आप अपने को ‘मैं हूँ’- इस तरह जानते हैं। इसमें ‘मैं’ तो जड़ है और ‘हूँ’ चेतन है। ‘मैं’ के कारण से ‘हूँ’ है। अगर 'मैं' (अहम्) ना रहे तो 'हूँ' नही रहेगा, प्रत्युत केवल 'है’ (चिन्मय सत्ता मात्र) रह जायगा। इसी बात को गीता में भगवान् ने कहा है कि जब साधक निर्मम-निरहंकार हो जाता है, तब उसकी स्थिति ब्रह्म में हो जाती है- ‘एषा ब्राह्मी स्थितिः’। अहंकार हमारा स्वरूप नहीं

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मेरे तो गिरधर गोपाल 19- यहाँ शंका हो सकती है कि भगवान् में राजस-तामस भाव कैसे होते हैं? इसका समाधान है कि जैसे घर एक ही होता है, पर उसमें रसोई भी होता है और शौचालय भी अथवा एक ही शरीर शरीर में उत्तमांग भी होते हैं और अधमांग भी, ऐसे ही एक भगवान् में सात्त्विक भाव भी हैं और राजस-तामस भाव भी। संसार को मिथ्या मानकर केवल भगवान को सत्य मानना भी एक पद्धति (साधन-मार्ग) है। पर इस पद्धति में संसार बहुत दूर तक साथ रहता है। कारण कि त्याग करने से त्याज्य वस्तु की सूक्ष्म सत्ता बनी रहती है। इसलिये इस पद्धति में भगवान् से अभेद तो होता है, पर अभिन्नता (आत्मीयता) नहीं होती। परन्तु जो संसार रूप से भगवान् को देखते हैं, वे भगवान् के साथ अभिन्न हो जाते हैं। साधकों की प्रायः यह शिकायत रहती है कि यह जानते हुए भी कि संसार की कोई भी वस्तु अपनी नहीं है, जब कोई वस्तु सामने आती है तो उसका असर पड़ जाता है। इस विषय में दो बातें ध्यान देने योग्य हैं। एक बात तो यह है कि असर पड़े तो परवाह मत करो अर्थात उसकी उपेक्षा कर दो। न तो उसको अच्छा समझो, न बुरा समझो। न उसके बने रहने की इच्छा करो, न मिटने की इच्छा करो। उससे उदासीन

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मेरे तो गिरधर गोपाल 18- संसार की स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। उसको जीव ने ही अहंता-ममता-कामना के कारण स्वतन्त्र सत्ता दी है। जब तक साधक में अहंता-ममता-कामना रहती है, तब तक उसको यह मानना चाहिये कि परमात्मा में संसार है और संसार में परमात्मा है। परन्तु जब उसकी अहंता-ममता-कामना मिट जायगी, तब उसकी दृष्टि में न संसार में परमात्मा रहेंगे, न परमात्मा में संसार रहेगा, प्रत्युत परमात्मा-ही-परमात्मा रहेंगे। परमात्मा में संसार को देखना अथवा संसार में परमात्मा को देखना अधूरी आस्तिकता है। परन्तु केवल परमात्मा को ही देखना पूरी आस्तिकता है। भगवान ने कहा है- ‘ममैवांशो जीवलोके’।भगवान का अंश होने के कारण जीव का सम्बन्ध केवल भगवान के साथ है, प्रकृति के साथ बिलकुल नहीं है। इसलिये जड़-चेतन का ठीक-ठीक विवेक करना साधक के लिये बहुत आवश्यक है। साधक को यह जानना चाहिये कि हमारा विभाग ही अलग है। हम चेतन-विभाग में हैं। जड़-विभाग से हमारा किंचिन्मात्र भी सम्बन्ध नहीं है। सम्पूर्ण पदार्थ और क्रियाएँ जड़-विभाग में हैं। चेतन-विभाग में न पदार्थ है, न क्रिया। वास्तव में पदार्थ और क्रिया की सत्ता ही नहीं है। इसलिये साधक को प