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Showing posts from 2016

युगल नामावली

अथ श्री युगल नामावली ~~~~~~~~~~~~~ जामिनी जाम जबै रहै , सोवत ते तबे जाग । जुगल नाम माधुर्य के , उठि भाखे बडिभाग ।। 1।। स्यामा कुंजबिहारिणी , कुञ्ज बिहारी स्याम । पति मन हरनी माननी , सुंदर मोहन काम ।। 2।। रास विलासिनी राधिका , नागर नृत्य निधान । प्रिया सहचरि स्वामिनी ,प्रीतम सहचरि प्रान।।3।। ललित लड़ैती रसिकिनी ,रसिक लाड़िले लाल। गौरांगी हरिवल्लभा , जलधर कांति रसाल ।। 4।। चारु चन्द्रिका मौलिनी , धारिनी नील निचोल । सीस सिखण्डी मुकटधर ,धरपटपीत अमोल ।। 5 ।। तन्वी तरुणी चूडमनि , कोमल तरुन अवतंस। मनि बल्यावलि धारिनी , भुजधर प्यासी अंस ।। 6।। चन्द्रमुखी चंचल चखी ,तृभंगि रमनीय । पिकभाषिनि सुधाधरी ,कृष्णचन्द्र कमनीय ।। 7।। नासा बेसर धारिनी ,प्यारी जलज बुलाक । सुकुमारी सुसिमत् मुखी ,मूक मधुर मृदु वाक।। 8।। नागरी नाहु विमोहनी ,नटवर कला प्रवीन। श्रीफलतुल्यपयोधरी , वक्षस्थल कल पीन ।। 9।। पृथु नितमि्बनी कृसकटी ,धारिनि रसना जाल । पग मनि नुपुर भूषिता , गामिनी गमन मराल ।। 10।। भूषित मध्यम किंकिनी , मोहन कछनी धार । रंजित पद मंजीर मनी ,गामी गजगति चार ।। 11 ।। जमुना जल क्रीड़ावती , पु

ब्रज लीला

*श्रीब्रज-प्रेम-प्रशंसा-लीला* श्रीकृष्ण- अहा, यह ब्रज बैकुंठ हू सौं उत्कृष्ट तथा मेरे निज धाम गोलोक हू सौं अति श्रेष्ठ सौंदर्यमय सोभा कूँ प्राप्त है रह्यौ है। यामें मेरी तनी ममता क्यों है याकौ हू उत्तर थोरे से सब्दन में यह है कि ‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।’ अस्तु यह मेरी जन्मभूमि है। संसार में तौ मैं पूज्यौ हूँ, किंतु या ब्रज में तौ मैं ही पुजारी बन्यौ हूँ और गोपी गोप गैयान की मैंने स्वयं ही पूजा करी है। वास्तव में या ब्रज कौ सौ बिलच्छन प्रेम कहूँ देखिबे में नहीं आयौ। संक्षिप्त उदाहरण में मैया जसोदा दूध पिबायबे के समय म रे मुख सौं तौ दूध कौ कटोरौ लगाय देय है और ऊपर सौं थप्पर की ताड़ना दैकैं कहै है ‘अरे कन्हैया! कै तौ या सबरे दूध कूँ पी जैयो, नहीं तौ दारीके! तेरी चुटिया छोटी सी रहि जायगी। धन्य है या प्रेम कूँ! या प्रेम डोर में बँधि कै फिर मेरौ मन छूटिबे कूँ नहीं करै है।’ (रसिया) कैसैहुँ छूटै नाहिं छाटायौ रसिया बँध्यौ प्रेम की डोर, ऐसी प्रेममई ब्रजछटा घटा लखि नाचि उठै मन मोर। मन मो स्वच्छंद फँस्यौ गोपिन के फंद, कोई कहै ब्रज चंद, कोई आनंद कौ कंद। नंद-जसुदा कौ लाल, कोई ग्

जुगलकिशोर

जुगलकिशोर मेरे बाँके बिहारी । सुंदर नैंन विशाल मनोहर       चितवन दिन    चित आनंदकारी ।१। पचरंग तिलक बेंदी मृगमद की    केसर चित्र  सुभाल उकारी । पियरी पाग पेचिदा तुर्रा        शीश फूल       कलगी अनियारी ।२। बाम किरीट जड़ाऊ जगमग   कबरी पुहुप   विचित्र सँवारी । नासिका बेसर मुक्ता झलकत   श्रृवनन झलकत कुण्डल वारी ।३। चिबुक चखौड़ा अधर अरूणता  गोल कपोल   बिहँसि सुखकारी । कंठसिरी दुलरी हीरन गल   हार जटित    वनमाल सिंगारी ।४। अँगिया फरिया जामा  चुनरि  झगा पीत पट   कंचन सारी । अँगुरिन मुदरी चारि चारि चूरी   हाथ फूल   बहु भूषन  धारी ।५। पायजेब नूपुरन बीछूआ   कटि किंकिनी    झूलत झुनकारी । बाँके तन सुत्रिभंगी मुद्रा    चरण पै चरण   छबि अति न्यारी ।६। दोऊ कर अधर बँसुरि टेढ़ी धरि   कनक छड़ी  हू टेढ़ी धारी । कृष्णचन्द्र राधा चरणदासि दोऊ   निरखि एक वपु    दिन बलिहारी ।७। साभार श्रीहरिदास कृपा से

गोवर्धन वासी साँवरे

श्री गोवर्धनवासी सांवरे लाल तुम बिन रह्यो न जाये । हों ब्रजराज लडे तें लाडिले ॥ बंकचिते मुसकाय के लाल सुंदर वदन दिखाय । लोचन तलफें मीन ज्यों लाल पलछिन कल्प विहाय ॥१॥ सप्तक स्वर बंधान सों लाल मोहन वेणु बजाय । सुरत सुहाई बांधि के लाल मधुरे मधुर गाय ॥२॥ रसिक रसिक रसीली बोलनी लाल गिरि चढ गैया बुलाय । गांग बुलाई धूमरी लाल ऊंची टेर सुनाय ॥३॥ दृष्टि परी जा दिवस तें लाल तबतें रुचे नही आन । रजनी नींद न आवही मोहि विसर्यो भोजन पान ॥४॥ दरसन को नयना तपें लाल वचनन को सुन कान । मिलवे को हियरा तपे मेरे जिय के जीवन प्रान ॥५॥ मन अभिलाखा व्हे रही लाल लागत नयन निमेष । इक टक देखु आवते प्यारो नागर नटवर भेष ॥६॥ पूरण शशि मुख देख के लाल चित चोट्यो वाहि ओर । रूप सुधारस पान के लाल सादर कुमुद चकोर ॥७॥ लोक लाज कुळ वेद की छांड्यो सकल विवेक । लहल कली रवि ज्यों बढे लाल छिन छिन प्रति विशेष ॥८॥ मन्मथ कोटिक वारने लाल निरखत डगमगी चाल । युवति जन मन फंदना लाल अंबुज नयन विशाल ॥९॥ यह रट लागी लाडिये लाल जैसे चातक मोर । प्रेमनीर वरखा करो लाल नव घन नंद किशोर ॥१०॥ कुंज भवन क्रीडा करो लाल सुखनिधि मदन गोपाल ।

एक बार तुम आ जाते

हे श्यामसुंदर! हे जगदीश्वर!! हे मनमोहन! हे परमेश्वर!! स्वीकार कभी कर पाओगे, क्या मेरे विकल-निवेदन को? बसंत कभी दे पाओगे फिर, क्या मेरे हृदयाआँगन को? क्या तृप्त कभी कर पाओगे, जो प्यास लगी इन नैनन को? सरबस ही दे डालूँगी, फिर से तेरे मधुर-मधुर उस दर्शन को. विरह-वेदना थकी मेरी, अब गीत तेरे गाते-गाते सूख गए हैं सब सपने इन पलकों तक आते आते माना तुमको जाना ही था ,लेकिन मुझ से कह कर जाते हे श्यामसुंदर! तनिक इक बार और तुम आ जाते गुजरी रात अमावस की जब पूनम आने वाली थी मुख की आभा जब मेरे तन मन पर छाने वाली थी कुछ देर अगर रुक जाते तो सारांश नेह का पा जाते माना तुमको जाना ही था लेकिन मुझ से कह कर जाते हे श्यामसुंदर! तनिक इक बार और तुम आ जाते सिन्दूर लगा का लगा रह गया शृंगार किया का किया रह गया मेरे अनुनय और विनय का व्यवहार धरा का धरा रह गया इक नज़र देख लेते मुझको तो मुझ पर नयन ठहर जाते माना तुमको जाना ही था लेकिन मुझ से कह कर जाते हे श्यामसुंदर! तनिक इक बार और तुम आ जाते संबंध निभाए मैंने पर कोई कमी रही होगी जो पायी थी सानिध्य तेरा वो प्यासी जमीं रही होगी तुम गए छोड़ कर मुझ को प

राधेरानी के मुख्य गुण

श्री राधा 🌺🙌🏻🌺 💟💟श्रीमती राधारानी जी के 25 मुख्य गुण💟💟 💟अनंत गुण श्री राधिकार, पच्चीस प्रधान सेइ गुणेर वश हय कृष्ण भगवान💟                       (चै*च* मध्य 23.86) 💟श्रीमती राधारानी जी के अनंत दिव्या गुण है जिनमे से 25 गुण मुख्य है। श्रीकृष्ण श्रीमती राधारानी जी के इन दिव्या गुणों द्वारा नियंत्रित होते है। 1⃣मधुरा💟(मीठा):: वे अत्यंत मधुर स्वभाव वाली हैं। 2⃣नव-वया💟(यौवन सम्पन्ना):: वे सर्वदा नव- यौवनपूर्ण रहती हैं। 3⃣चल-अपांग💟(चंचल नयन विशिष्टा)::उनकी आँखें बहुत चंचल हैं। 4⃣उज्जवल-सिमता💟(उज्जवल सिमत हास्य शोभिता):: उनकी मुस्कान उल्लासित एवम् प्रसन्नचित्त करने वाली हैं। 5⃣चारु-सौभाग्य-रेखाढया💟(शरीर पर सूंदर एवम् मंगलकारी रेखाएं होना):: उनके शरीर पर यानि हस्त एवम् चरण में सुन्दर एवम् शुभ रेखाएं अंकित हैं। 6⃣गन्धोंन्मादित-माधव💟अपूर्व अंग-सौरभ से माधव को उन्मत करने वाली मोहक द्वारा कृष्ण को प्रसन्न करती हैं। 7⃣संगीत- प्रसाराभिज्ञा💟(संगीत के प्रसार में सुविज्ञा) :: वे संगीत कला में अत्यंत निपुणा हैं। 8⃣रम्यवाक्💟(मनोरम वाक् शैली सम्पन्ना) :: उनकी वाणी बहुत मनोह

सिद्ध और साधक

एक आंतरिक प्रश्न के उत्तर में भगवान ने कल कुछ कहा जिसे शब्दों में ढालना सहज नहीँ , साधक के प्रति आकर्षण होता है , सिद्ध के प्रति समर्पण । विषय गूढ़ होने से कहते नही होगा । साधक एक चुम्बक है वह लोलुप्ता के चुम्बक से सर्व भुत रस को खेंचता है  , और सिद्ध एक कमलवत् है जिसने रस में पूर्ण गोता लगाया हो , सिद्ध तृप्त है अथवा सारत्व का पान कर चूका है । साधक चन्द्र की तरह सूर्य से ऊष्मा प्राप्त अवस्था है और सिद्ध सूर्य है । वैसे सूर्य भी सूक्ष्म रूप साधक है उसे भी प्रकाश प्राप्त हो रहा है वह प्रकाश का जनक नहीँ है । साधक के लिये आकर्षण का कारण उसकी कृष्णीय शक्ति है , खिंचने की शक्ति । परन्तु साधक एक व्याकुल अवस्था है , वह अतृप्त रहेगा तो ही रस को स्वयं से अभिन्न कर सकेगा सिद्ध को लोभ और लोलुप्ता का सार प्राप्त होता है वह दृष्टि से समर्पित को निहाल कर सकता है , उसे पदार्थ भोग की आवश्यकता नही रहती । साधक की आकर्षणी शक्ति उसकी व्याकुलता से है उसे चुम्बक ही रह कर रस अवशोषण करना चाहिये , अभिव्यक्ति साधक को सिद्ध कर देती है जबकि सिद्ध अवस्था उसे प्राप्त नही , वह व्याकुल रहे तो रस अवशोषण चलता रहे ,

धैर्य और उत्साह

-- धैर्य और उत्साह – हमारी सफलता की कुंजी -- हमें धैर्य एवं उत्साहपूर्वक भक्ति करनी चाहिए । उत्साहात् निश्चयात् धैर्यात् तत्-तत् कर्म प्रवर्तनात् (श्री उपदेशामृत श्लोक -३) । हमें उत्साही होना चाहिए कि, “मुझे स्वयं को कृष्ण भावनामृत आंदोलन में में पूर्णतया रत करना है ।” उत्साह, यह प्रथम योग्यता है । सुस्ती आपकी कोई सहायता नहीं करेगी । आपको बहुत उत्साही होना होगा । मेरे गुरु महाराज कहा करते थे, “प्राण आछे यांर सेइ हेतु प्रचार ।” वह व्यक्ति प्रचार कर सकता है जिसमे प्राण हैं । एक मृत व्यक्ति ही प्रचारक नहीं बन सकता । आपको उत्साही होना चाहिए कि, “मुझे अपनी श्रेष्टतम सामर्थ्य से भगवान् कृष्ण की महिमाओं का प्रचार करना है ।”  ऐसा नहीं है कि प्रचार करने के लिए किसी को बहुत विद्वान बनना होगा । केवल उत्साह की आवश्यकता है: मेरे भगवान इतने महान हैं, इतने दयालु, इतने सुन्दर, इतने अद्भुत हैं, इसलिए मुझे उनके विषय में कुछ बोलना चाहिए ।” यही योग्यता है, उत्साह । आप कृष्ण को पूर्ण रूप से नहीं जानते । कृष्ण को पूर्ण रूप से जानना संभव नहीं है । कृष्ण असीमित हैं । हम कृष्ण को शत-प्रतिशत नहीं नहीं जान सक