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Showing posts from December, 2018

गीता महात्म्य

श्रीमद भगवद गीता का माहात्म्यं श्री वाराह पुराणे में  गीता का माहात्म्यं बताते हुए श्री विष्णु जी कहते हैं : श्रीविष्णुरुवाच: प्रारब्ध को भोगता हुआ जो मनुष्य 'सदा' श्रीगीता के अभ्यास में आसक्त हो वही इस लोक में मुक्त 'और' सुखी होता है 'तथा' कर्म में लेपायमान 'नहीं' होता |(2) जिस प्रकार कमल के पत्ते को जल स्पर्श 'नहीं' करता उसी प्रकार जो मनुष्य श्रीगीता का ध्यान करता है उसे महापापादि पाप 'कभी' स्पर्श नहीं करते |(3) जहाँ श्रीगीता की पुस्तक होती है और जहाँ श्रीगीता का पाठ होता है वहाँ प्रयागादि 'सर्व' तीर्थ निवास करते हैं |(4) जहाँ श्रीगीता प्रवर्तमान है वहाँ 'सभी' देवों, ऋषियों, योगियों, नागों और गोपालबाल श्रीकृष्ण भी नारद, ध्रुव आदि सभी पार्षदों सहित 'जल्दी ही' सहायक होते हैं |(5) जहाँ श्री गीता का विचार, पठन, पाठन तथा श्रवण होता है वहाँ मैं (श्री विष्णु भगवान) 'अवश्य' निवास करता हूँ | (6) मैं (श्री विष्णु भगवान) श्रीगीता के आश्रय में रहता हूँ, श्रीगीता मेरा (श्री विष्णु भगवान) 'उत्तम

वंदना

*विगलित-नयन-कमल-जलधारं* *भूषण - नवरस - भावविकारम्।* *गति - अतिमन्थर - नृत्यविलासं* *तं प्रणमामि च श्रीशचीतनयम्।।* *चंचल-चारु-चरण-गति-रुचिरं* *मंजीर-रंजत-पदयुग-मधुरम्।* चन्द्र - विनिन्दित - शीतलवदनं तं प्रणमामि च श्रीशचीतनयम्।। घृत-कटि-डोर-कमण्डलु-दण्डं दिव्य कलेवर-मुण्डित-मुण्डम्। दुर्जन - कल्मष - खण्डन - दण्डं तं प्रणमामि च श्रीशचीतनयम्।। भूषण - भूरज - अलका - वलितं कम्पित-बिम्बाधरवर-रुचिरम्। मलयज-विरचित-उज्ज्वल-तिलकं तं प्रणमामि च श्रीशचीतनयम्।। जिनके नयन-कमलोंसे निरन्तर अश्रुधारा प्रवाहित होती रहती है, नवरस भाव-विकार जिनके श्रीअंगोंके भूषण-स्वरूप हैं और नृत्य-विलास हेतु जिनकी गति अति मन्थर है, उन शचीनन्दन श्रीगौरहरिको प्रणाम करता हॅू।। जिनके नूपुर-शोभित श्रीचरण-यगुलकी गति अतिशय मनोहर है, उन चन्द्र-विनिन्दित सुशीतल वदन विशिष्ट शचीनन्दन श्रीगौर हरिको प्रणाम करता हू। जिन्होंने कटितटमें (कमरमें) डोर-बहिर्वास एवं हाथमें दण्ड कमण्डलु धारण कर रखा है, मुण्डन किया हुआ अति भव्य जिनका मस्तक है, जो अतिशय दिव्य कलेवर विशिष्ट हैं, जिनका दण्ड दुर्जनोंके पाप-समहूका खण्डनकार

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 6 श्री नरोत्तम प्रार्थना-( 6 )   प्रार्थना :- ------------ हरि हरि कवे मोर हइवे सुदिन ।   भजिब से राधाकृष्ण हञा प्रेमाधीन ॥ सुयन्त्रे मिशाये गाब सुमधुर तान ।     आनन्दे करिबे दोंहाई रूप गुण गान ॥ राधिकागोविंद बलि कांदिब उच्चे: स्वरे।    भिजिवे सकल अंग नयनेर नीरे ॥ एइबार करूणा कर ललिता विशाखा ।    सख्य भावे मोर प्रभु सुबलादि सखा । सबे मिलि कर दया पुरूक मोर आश ।    प्रार्थना करये सदा नरोत्तम दास ॥ ♻ शब्दकोष :- -------------- कवे - ( ऐसा ) कब होगा भजिब - भजन करूँगा सुयन्त्र - सुन्दर वाद्य मिशाये -मिला कर कांदिब -रोना भिजिवे - भीग जायेगा एइबार -इसी जन्म में पुरूक -पूर्ण करो  अनुवाद :- ------------- ♻ नरोत्तम श्री हरि की करूणा की गुहार लगाते हुए कह रहे है ," हे हरि ! वह शुभ दिन मेरे लिए कब आयेगा , जब मैं प्रेमाविष्ट होकर श्री राधाकृष्ण का भजन करूँगा ?" ♻ प्रियालाल की जी सेवा में बजते सुन्दर वाद्य के साथ स्वर मिलाकर मधुर आलाप करूँगा और आनन्द पूर्वक श्री युगल लाल के रूप-गुण- माधुरी का गान करूँगा !! हे हरि ऐसा शुभ दिन मेरे लिये कब आयेगा ?? ♻ हे श्

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34 श्री नरोत्तम प्रार्थना - ( 34  प्रार्थना :- -----------  प्राणेश्वरी ! कबे मोर हबे कृपादिठी । अरूण कमल दले, शेज बिछाइव, बसावव किशोर किशोरी । अलका आवृतमुख , पंकज मनोहर , मरकत श्याम , हेम गोरी ॥ आज्ञाय आनिया कबे, विविध फुलवर शुनव वचन दुहुँ मिठि । मृगमद तिलक , सिन्दुर बनायब, लेपव चन्दन गन्धे ॥ गाँथि मालती फुल, हार पहिरा-ओव , धाओयाय मधुकर वृन्दे । ललिता कबे मोर , बीजन देओयव, बीजव मारूत मन्दे ॥ श्रमजल सकल , मिटिब दुहुँ कलेवर , हेरव परम आनन्दे । नरोत्तम दास, आश पद पंकज सेवन माधुरी -पाने । होओयव हेन दिन , न देखिये कोन चिन्ह , दुहुँजन हेरव नयाने ॥ ♻ शब्दकोष :- ------------- कृपादिठी - कृपादृष्टि शेज- सेज हेम - स्वर्ण कान्ति मृगमद - कस्तूरी धाओयाय -हटाऊँगी बीजन - पँखा मिटिब -पौंछना हेरव - दर्शन करना  नरोत्तम ठाकुर चम्पक मञ्जरी स्वरूप में ललिता आदि प्रधाना सखी के अनुगत्य में निकुञ्ज में प्रियालाल जी के श्रृगांर की विभिन्न सेवा की प्रार्थना कर रहे है ।             इस प्रार्थना में निकुञ्ज में हास-परिहास करती श्री राधा-माधव की सुन्दर झाँकी है - जिसक

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37श्री नरोत्तम प्रार्थना - ( 37  )  प्रार्थना :- ------------- प्रभु हे ! एइबार करह करूणा । जुगल चरण देखि , सफल करिब आँखि , ऐइ मोर मनेर कामना ॥  निज पद सेवा दिवा,नाहि मोरे उपेखिवा दुँहु पँहु करूणा सागर । दुँहु बिनु नाहि जानो, एइ बड़भाग्य मानो मुइ बड़ पतित पामर ॥  ललिता आदेश पाञा, चरण सेविव जाञा, प्रिय सखी संगे हय मने । दुँहु दाता शिरोमणि, अति दीन मोरे जानि , निकटे चरण दिबे दाने ॥  पाब राधाकृष्ण पा, घुचिबे मनेर घा , दूरे जाबे ए सब विकल । नरोत्तमदासे कय, एइ वांछा सिद्धि हय , देह प्राण सकल सफल ॥ ♻ शब्दकोष :- ------------- एइबार -इसी जन्म में उपेखिवा - उपेक्षा पामर -पतित पाब - चरण घुचिबे घा - घाव भर जायेगा  इस पद से पुनः नरोत्तम ठाकुर में दीनता का भाव प्रबल हो रहा है । वे सोच रहे है कि मैंने तो निकुञ्ज सेवा की याचना की है लेकिन मैं तो अतिशय पामर हूँ....... मुझमें कहाँ सेवा की पात्रता है .... पर श्री प्रियालाल जी के श्री चरणों की कृपा से सब सम्भव है । इसलिए वे चम्पक मञ्जरी के भाव में श्री राधाकृष्ण के चरण-आश्रय की प्रार्थना करते है ।  अनुवाद :- ------

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 25श्री नरोत्तम प्रार्थना - ( 25 )  प्रार्थना :- ----------- हरि हरि ! कबे हव वृन्दावनवासी।     निरखिब नयने युगल रूपराशि॥ त्यजिया शयन सुख विचित्र पालङ्क।      कबे ब्रजेर धूलाय धूसर हबे अंग ॥ षडरस भोजन दूरे परिहर ।      कबे ब्रजे मांगिया खाइब माधुकरी ॥ परिक्रमा करिया बेड़ाब बने बने ।     विश्राम करिब जाइ यमुना पुलिने ॥ ताप दूर करिब शीतल वंशीवटे ।     कबे कुञ्जे बैठव हाम वैष्णव निकटे ॥ नरोत्तमदास कहे करि परिहार ।     कबे वा एमन दशा हइबे आमार ॥ ♻ शब्दकोष :- -------------- पालङक - पलंग षडरस भोजन - छः प्रकार के रसों से युक्त भोजन परिहर - त्याग कर बेड़ाब - घूमना हाम -मैं करि परिहार - हाथ जोड़ कर  अनुवाद :- -------------  नरोत्तम ठाकुर अपने वृन्दावन वास के समय को स्मरण करते हुए ,वहाँ की लीला स्थलियों की स्मृति में भावुक होकर श्री राधाकृष्ण से एक बार फिर श्री वृन्दावन वास की याचना कर रहे है । ♻ हे हरि ! मैं कब वृन्दावन -वासी बन पाऊँगा ? और मेरे भाग्य में ऐसा शुभ दिन कब आयेगा ... जब मैं अपने नेत्रों से श्री युगल लाल की मधुर रूपराशि के दर्शन कर पाऊँगा ??

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 18 श्री नरोत्तम प्रार्थना - ( 18 )  प्रार्थना :- ----------- ठाकुर वैष्णव गण ! करि एई निवेदन , मो बड़ अधम दुराचार । दारुण संसार निधि, ताहे डुबाइल विधि , केशे धरि मोरे कर पार ॥ विधि बड़ बलवान , न शुने धरम ज्ञान , सदाई करम पाशे बाँधे । न देखि तारण लेश , जत देखि सब क्लेश , अनाथ कातरे तेञ कांदे ॥ काम क्रोध लोभ मोह मद अभिमान सह, आपन-आपन स्थाने टाने । आमार ऐछन मन , फिरे जेन अन्धजन , सुपथ-विषय नाहि जाने ॥ न लईनु सत मत , असते मंज़िल चित्त , तुया पाये ना करिनु आश । नरोत्तम दासे कय , देखि शुनि लागे भय, तराइया लह निज पाश ॥ ♻ शब्दकोष :- -------------- दारुण - कठिन विधि - प्रारब्ध कातर -व्याकुल हो�ना टाने - खींचना तुया - आपके पाये- चरणों पाश - पास  अनुवाद :- ------------- ♻ नरोत्तम वैष्णव जन के चरणों में अपनी प्रार्थना करते हुये कहते है ," हे ठाकुर वैष्णव गण ! मेरा निवेदन सुनिए , मैं अत्यन्त अधम दुराचारी हूँ....... इस दुखमय संसार सागर में मुझे विधाता ने डाल दिया है , पर आप मुझ पर कृपा कर मेरे सिर के केश पकड़ कर मुझे पार कीजिए ।" ♻ विधाता बड़ा