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Showing posts from July, 2017

गोपी प्रेम

गोपी-प्रेम का वैशिष्ट्य                    ( ब्रह्मलीन श्रद्धेय स्वामी श्रीशरणानन्दजी महाराज )      एक भाई गोपी-प्रेम की बात पूछ रहा था । इसलिये कहना है कि जबतक प्राणी का शरीर और संसार से सम्बन्ध नहीं छूटता, जबतक वह शरीर को मैं और संसार को अपना मानता है, तबतक गोपी-प्रेम की बात समझ में नहीं आती । प्रेमी में चाह नहीं रहती इसलिये प्रेमी अपने लिये कुछ नहीं करता, जो कुछ करता है वह अपने प्रियतम को रस देने के लिये ही करता है । यहाँ तर्कशील मनुष्य यह प्रश्न कर सकता है कि भगवान् तो सब प्रकार से पूर्ण और रसमय आनन्दस्वरूप हैं । उनमें किसी प्रकार का अभाव ही नहीं है । उनको रस देने की बात कैसी ? उसको समझना चाहिये कि यही तो प्रेम की महिमा है, जो आप्तकाम में भी कामना उत्पन्न कर देता है, सर्वथा पूर्ण में भी अभाव का अनुभव करा देता है । प्रेमियों का भगवान् सर्वथा निर्विशेष नहीं होता । उनका भगवान् तो अनन्त दिव्य गुणों से सम्पन्न होता है और उनका अपना प्रियतम होता है । उनकी दृष्टि में भगवान् के ऐश्वर्य का भी महत्त्व नहीं है । उनका भगवान् तो एकमात्र प्रेममय और प्रेम का ग्राहक है ।      प्रेमी भगवान् को रस

विरह सुख

विरह-सुख * * * श्रीश्रीगौरांगदेव ने कहा था-         युगायितं निमेषेण चक्षुषा प्रावृषायितम् ।         शून्यायितं जगत्सर्वं गोविन्दविरहेण मे ।।      'गोविन्द के विरह में मेरा एक निमेष भी युगों के समान लम्बा हो रहा है । ये दोनों आँखें सावन की जलधारा के समान सर्वदा बरस रही हैं और सारा जगत् मेरे लिये सूना हो रहा है ।'      इस दुःखपूर्ण विरह में कितना असीम सुख है, इस बात का प्रेमशून्य हृदय से कैसे अनुमान लगाया जाय ? विरही है, पर इस जलन में ही महान् शान्ति का अनुभव करता है । वह कभी इस जलन को मिटाना नहीं चाहता । वह मिलन में उतना सुख नहीं मानता जितना विरह की अग्नि में जलते रहने में मानता है । 'हा प्राणनाथ ! हा प्रियतम ! हा श्रीकृष्ण ! इस तरह रोते-कराहते जन्म-जन्मान्तर बीत जायँ । मैं मिलना नहीं चाहता, चाहता हूँ तुम्हारे विरह में जी भरकर रोना और तुम्हारे वियोग की आग में जलते रहना । मुझे इसमें क्या सुख है इसको मैं ही जानता हूँ ।'         बना रहे हमेशा यह विरह-दुख दिवाना,         मैं जानता हूँ इसमें कितना मजा मुझे है ।         *               *               *              

परमात्मा का चिंतन

*||🤖👏" सत्संग चिंतन”👏🤖||* ************************************ जब हम शांति से बैठकर कुछ सोचते है। वहीं चितंन है, जो हमारे अंदर चल रहा है। वास्तव में चितंन तो वहीं सही है। जो हमें भगवान के पास ले जाए, क्योकि जब मन भगवान का चितंन करेगा, तो सही मायनों में वहीं सही काम है और बाकि ये जो चितंन हैं । सब व्यर्थ है, ऐसा चितंन जो सही अर्थो में है, ऐसा चितंन उद्धव जी ने गोपियों में देखा था, जब वे उनसे मिले भगवान का संदेश लेकर वृदांवन गए तो यमुना तट पर गोपियों को देखा उनका चितंन इतना गहरा था कि उन्हें न तो खाने की सुध, न नहाने-धोने की सुध, कब सुबह हो गई, कब शाम हो गई, उन्हें पता ही नहीं..!! ऐसा कृष्ण का चितंन तो जब ऐसा चितंन होता है, भगवान का तो वो भक्त के पीछे-पीछे चलते है। उन्हें बुलाना नहीं पडता, वो भक्तों के पीछे दौडते है और उनके चरणों की रज अपने मस्तक में लगा लेते है । भगवान कृष्ण ग्यारह वर्ष की उम्र में ही वृदांवन से मथुरा चले गए थे, पर एक पल के लिए भी गोपियों का चिंतन नहीं छुटा, गोपियों की याद में वो बसे रहे, ऐसा नहीं कि कृष्ण उन्हें भूल गए, वो भी उनका चिंतन करते रहे है, उनकी रा

वेणु गीत

भगवान श्रीकृष्ण का वंशी-निनाद माधुर्य का सिन्धु है.... इस वेणुनाद से पृथ्वी के जलचर और स्थलचर सभी जीव मोहित हो गए। श्रीकृष्ण की वंशी-ध्वनि जिसके कान में प्रविष्ट हो गयी, वह श्रीकृष्ण के प्रेम को प्राप्त करने के लिए व्याकुल न हो उठे, ऐसा कोई है ही नहीं। वृन्दावन के वनों में रहने वाली भीलनियों के कानों में जब श्रीकृष्ण की वंशी-ध्वनि प्रविष्ट हुई तो वह श्रीकृष्ण के प्रेम को प्राप्त करने के लिए व्याकुल हो उठीं। वृन्दावन में विचरण करते समय श्रीकृष्ण के चरणों पर लगी हुई कुंकुम घास पर लग गई है। यह कुंकुम रसप्राप्त है, क्योंकि भगवान के चरणों से जिसका सम्बन्ध हो जाए, वह असाधारण चीज हो जाती है। वे भीलनियां उस कुंकुम लगे तृणों को अपने हृदय से लगाकर उस कुंकुम का सारे शरीर पर लेपन करने लगीं, तब उनकी वह श्रीकृष्ण-मिलन की पीड़ा शान्त हुई। भगवान श्रीकृष्ण अपने मुख से वेणु में जो फूंक देते हैं, उस समय उनके मुख से जो अमृत वेणुनाद के रूप में वंशी के छिद्रों से निकला, उस अमृत को गायें और गायों के दूध पी रहे बछड़े अपना मुंह ऊपर करके, दोनों कानों का ‘दोना’ (पानपात्र) बनाकर पी रहे हैं, ताकि वंशीनाद की