गोपी प्रेम
गोपी-प्रेम का वैशिष्ट्य ( ब्रह्मलीन श्रद्धेय स्वामी श्रीशरणानन्दजी महाराज ) एक भाई गोपी-प्रेम की बात पूछ रहा था । इसलिये कहना है कि जबतक प्राणी का शरीर और संसार से सम्बन्ध नहीं छूटता, जबतक वह शरीर को मैं और संसार को अपना मानता है, तबतक गोपी-प्रेम की बात समझ में नहीं आती । प्रेमी में चाह नहीं रहती इसलिये प्रेमी अपने लिये कुछ नहीं करता, जो कुछ करता है वह अपने प्रियतम को रस देने के लिये ही करता है । यहाँ तर्कशील मनुष्य यह प्रश्न कर सकता है कि भगवान् तो सब प्रकार से पूर्ण और रसमय आनन्दस्वरूप हैं । उनमें किसी प्रकार का अभाव ही नहीं है । उनको रस देने की बात कैसी ? उसको समझना चाहिये कि यही तो प्रेम की महिमा है, जो आप्तकाम में भी कामना उत्पन्न कर देता है, सर्वथा पूर्ण में भी अभाव का अनुभव करा देता है । प्रेमियों का भगवान् सर्वथा निर्विशेष नहीं होता । उनका भगवान् तो अनन्त दिव्य गुणों से सम्पन्न होता है और उनका अपना प्रियतम होता है । उनकी दृष्टि में भगवान् के ऐश्वर्य का भी महत्त्व नहीं है । उनका भगवान् तो एकमात्र प्रेममय और प्रेम का ग्राहक है । प्रेमी भगवान् को रस