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Showing posts from October, 2022

mc 44

मीरा चरित  भाग- 44 वहीं उनका सत्कार करके विदा कर देते हैं। सब कहते हैं कि इन बाबाओं ने ही मीरा जैसी सुन्दर, सुशील कन्या का सत्यानाश किया है।' 'म्हूँ आप रे पगाँ पडू भाई!'– मीरा रो पड़ी। 'भगवान् आपरो भलो करेला।'– आगे वह बोल नहीं पायी। 'आप पधारो जीजा! मैं लेकर आता हूँ, किन्तु किसी को ज्ञात न हो।कहते हैं कि विवाह के अवसर पर साधु-दर्शन अशुभ होता है।' आह, कैसा अज्ञान! सुख का मार्ग सुझानेवाले, हरि-नाम की अलख जगाने वाले अशुभ हैं और शुभ कौन हैं-ये विषयों की कीचड़ में मुख घुसाये रहने वाले?" 'जीजा! मैंने सुना है कि आप जीमण नहीं आरोगतीं, वस्त्राभूषण धारण नहीं करतीं। ऐसे में अगर मैं साधु बाबा को ले आऊँ और आप गाने-रोने लग गई तो सबके सब मुझ पर बरस पड़ेंगे।' 'नहीं भाई! अभी जाकर मैं वस्त्राभूषण पहन लेती हूँ। गिरधरलाल का प्रसाद रखा है। संत को जीमा कर मैं भी खा लूँगी और आप जो कहें, मैं करने को तैयार हूँ।'  'और कुछ नहीं जीजा ! विवाह के सारे टोटके सहज कर लीजियेगा। कोई हठ न करियेगा, अन्यथा आप जानती हैं कि विवाह न होनेपर सिसौदियों की तलवारें म्यान से बाहर

mc 43

मीरा चरित  भाग- 43 आँहों भरी आँसुओं की कराह..... विवाह की तैयारी में मीरा को पीठी (हल्दी) चढ़ी। उसके साथ ही दासियाँ गिरधरलाल को भी पीठी करने और गीत गाने लगीं। मेड़ते में हर्ष, उत्साह समाता ही न था। मीरा तो जैसी थी, वैसी ही रही। किसी भी टोटके-टमने, नेग-चोग में उसे श्यामकुँज से खींचकर लाना पड़ता था। जो करा लो, सो कर देती । न कराओ तो गिरधरलाल के बागे, मुकुट, आभूषण सवाँरती, श्यामकुंज में अपने नित्य के कार्यक्रम में लगी रहती। खाना पीना, पहनना उसे कुछ भी न सुहाता। श्यामकुँज अथवा अपने कक्ष का द्वार बंद करके वह पड़ी-पड़ी रोती रहती। उसके विरह के पद जो भी सुनता, रोये बिना न रहता, किन्तु सुनने को, देखने को समय ही किसके पास है? मेड़ता के भाग जगे हैं कि हिन्दुआ सूरज का युवराज इस द्वार पर तोरण वन्दन करने आयेगा। उसके स्वागत में सब बावले हुए जा रहे हैं, कौन देखे-सुने कि मीरा क्या कह रही है- तुम सुणो दयाल म्हॉरी अरजी।  भव सागर में बही जात हूँ काढ़ो तो थाँरी मरजी।  या संसार सगो नहीं कोई साँचा सगा रघुबर जी। मात-पिता अर कुटुम कबीलो सब मतलब के गरजी।   मीरा की प्रभु अरजी सुण लो, चरण लगावो थाँरी मरजी। वह अपन

mc 42

मीरा चरित  भाग- 42 एक ने अपनी बारी आते ही कहा—'मारो मत अन्नदाता! मैंने कूकड़ो बोलताँ (मुर्गा बोलते) पेलाँ ही इण झरोखा शू एक जणा बस्तर थाम नीचे उतरतो देख्यो। वो कढ़ाव रे भड़े जाय अठी-उठी देखतो जावे अर दोई-दोई हाथा शू खावा लागो। म्हँने तो धूजणी छूटगी, ज्यूँ आँख्या मींच लीधी, पाछो चढ़तो देख्यो जद साँस वापरी।'  'कौनसे झरोखे से उतरा वह?’ 'वह झरोखा, अन्नदाता!'- उसने हाथ के संकेत से बताया।  'झूठ तो नहीं बोल रहा? बात झूठ निकली तो खाल खींचकर भूस भरवा दूँगा।' सरदार ने पता लगाया तो मालूम हुआ कि इस महल में तो जवाँईसा और बाईसा पौढ़े थे रात को। अब कौन किसको कुछ कहे? किसके धड़ पर दो सिर हैं कि खास जवाईसा के लिये ऐसी बात मुख से निकाले? पर बात छिपी नहीं, सरकती हुई गणेश ड्योढ़ी में पहुँची और वहाँ से राजमाता के कानों में पड़ी। क्रोध से उनका गौर मुख आरक्त हो उठा। उन्होंने श्रीजी को संदेश भेजा।  महाराणा ने पधारकर अभिवादन किया-'अन्नदाता! हुकम बखशावें।' 'अपनी बहिन के लिये तुम्हें मेड़ते के अतिरिक्त कहीं राजपूत का बेटा नजर नहीं आया? मेरी पितृहीन पुत्री को तुमने घोड़े की

mc 41

मीरा चरित  भाग- 41 सेवकों को पलक झपकाने का भी अवकाश न हो, ऐसे अपने-अपने मुरतबके अनुसार सावधान कार्यरत दिखायी देते हैं। अटाले (रसोई) से ऊपर महल तक थोड़ी थोड़ी दूर खड़ी पंक्तिबद्ध दासियाँ विविध भोजन सामग्रियाँ इस हाथसे उस हाथ पहुँचा रही हैं। दौड़-भागकी हड़बड़ में कोई सेवक अथवा दासी इन खड़ी हुई दासियों से टकरा जाती तो कभी कोई रसमयी सामग्री छलककर दोनों के वस्त्र सिक्त कर देती। देखनेवाले हँसते और टकराने वाले या तो एक दूसरे को उलहने भरी दृष्टि से देखकर अपने-अपने काम में लग जाते अथवा खड़ी हुई दासी आनेवाले पर बरस पड़ती– 'परो बल रे, हाँप खादा। आँख्याँ फूटगी कई? म्हाँरा गाभा बिगाड़या, अणी सियाला री रातमें साँपडनो पड़ेला। आंधी-बबूल्या री नाई दौड़तो फरे (अरे साँप खाय तुझे। आँखें फूट गयीं? दिखता नहीं तुझे? मेरे वस्त्र बिगाड़े, इस शीत भरी रातमें नहाना पड़ेगा, आँधी-वर्तुलकी भाँति दौड़ता है मरा) ।'  ऊपर महल में गद्दी पर मसनद के सहारे बाईसा-जवाँईसा बिराजे, सामने चाँदी का बाजोठ (चौकी) और उस पर सोने का बड़ा थाल, जिसमें विविध भोजन सामग्री परोसी हुई, दोनों जीम रहे हैं। साली-सलहजें पहेलियाँ पूछ रही

mc 40

मीरा चरित  भाग-40 म्हारो सगपण तो सूँ साँवरिया जग सूँ नहीं विचारी। मीरा कहे गोपिन को व्हालो म्हाँ सूँ भयो ब्रह्मचारी।  चरण शरण है दासी थॉरी पलक न कीजे न्यारी। मीरा धीरे-धीरे भाव जगत्‌ में खो गयी। वह सिर पर छोटी कलशी लिये यमुना जल लेकर लौट रही है। उसके तृषित नेत्र इधर-उधर निहारकर अपना धन खोज रहे हैं। निराशा-आशा उसके पद उठने नहीं देती। निराशा कहती है कि अब नहीं आयेंगे वे। चल, घर चली चल और आशा कहती है कि यहीं कहीं होंगे, अभी आ जायेंगे। नयन-मन ठंडे कर ले, घर जाने पर संध्या से पूर्व दर्शन-लाभ की आशा नहीं। इसी ऊहापोह में दो पद शीघ्र और चार पद धीमे चलती जा रही थी कि किसी ने उसके सिर से कलशी उठा ली। उसने अचकचाकर ऊपर देखा, कदम्ब पर एक हाथ से डाल पकड़े और एक हाथ में कलशी लटकाये मनमोहन बैठे हँस रहे हैं। हीरक दंत प्रवाल अधरों की आभा पा तनिक रक्ताभ हो उठे हैं और अधरों पर दंत-पंक्ति की उज्ज्वलता झलक रही है। नेत्रों में अचगरी जैसे मूर्त हो गयी। लाज के मारे उसकी दृष्टि ठहरती नहीं। लज्जा नीचे और प्रेम-उत्सुकता ऊपर देखने को विवश कर रही है। कलशी से ढले पानी से वस्त्र और सर्वांग आर्द्र हैं। 'कलशी दे दो

mc 39

मीरा चरित  भाग- 39 मीरा की 'दिखरावनी..... मेड़ता से गये पुरोहितजी के साथ चित्तौड़ के राजपुरोहित और उनकी पत्नी मीरा को देखने के लिये आये। राजमहल में उनका आतिथ्य सत्कार हो रहा है। चारों ओर एक चैतन्यता, सजगता दृष्टिगोचर हो रही है। मीरा को जैसे वह सब दिखकर भी दिखायी नहीं दे रहा है। उसे न कोई रुचि है और न आकर्षण। दूसरे दिन प्रातः झालीजी वस्त्राभूषण लेकर एक दासी के साथ मीरा के पास आई। मीरा गा रही थी- पिया मोहि आरत तेरी हो।  आरत तेरे नाम की मोहिं साँझ सबेरी हो। या तन को दिवला करूँ मनसा की बाती हो।  तेल जलाऊँ प्रेम को बालूँ दिन राती हो। पटियाँ पाइँ गुरु ज्ञानकी बुद्धि माँग सवारूँ हो।  पिया तेरे कारणे धन जोबन गालूँ हो। सेजाँ नाना रंगरा फूल बिछाया हो।  रैण गयी तारा गिणत प्रभु अजहूँ न आया हो। आया सावण भादवा वर्षा ऋतु छायी हो।  स्याम पधाऱया मैं सूती सैन जगायी हो। तुम हो पूरे साँइयाँ पूरो सुख दीजे हो। मीरा ब्याकुल बिरहिणी अपणी कर लीजे हो। माँको प्रणामकर वह उनके समीप ही बैठ गयी। "भूषण-वस्त्र पहन ले बेटी ! चित्तौड़ से पुरोहिताणीजी तुझे देखने आयी हैं। वे अभी कुछ समय पश्चात् यहाँ आ जायेंगी। बड

mc 38

मीरा चरित  भाग- 38 ‘रावले छोटे भाई रतनसिंहजी की पुत्री के सम्बन्ध का प्रस्ताव लेकर वे श्रीजी के सम्मुख उपस्थित होंगे। सुना यह भी है कि बाईसा सुन्दर, गुणवती, कवि और भक्त हैं। किसी योगी से उन्होंने योग और संगीत की शिक्षा भी पायी है। स्वभाव तो ऐसा है, मानो गंगा का नीर हो।'– पूरणमल ने प्रसन्न स्वरमें कहा।  "तुझे कैसे ज्ञात हुई इतनी सारी बातें?'- पूरणमल की बातें भोजराज के हृदय की प्यासी धरती पर प्रथम मेघ-सी बरसीं, जिसकी एक-एक बूंद आतुरतापूर्वक उन्होंने सोख ली।  ‘कुछ तो सरदारों की बातों से ज्ञात हुई, कुछ मैंने स्वयं ही इधर-उधर सेवकों-बालकों से जानकारी ली।' 'क्या आवश्यकता आ पड़ी थी तुझे?'– भोजराज ने देह के कंप से लड़ते हुए पूछा।  'सरकार ! वे कल हमारी स्वामिनी होंगी। बालकों को, सेवकों को उत्सुकता रहती ही है। यदि यह सब सच है और मेवाड़ को ऐसी महारानी मिल जाय तो सोने को सुगन्ध प्राप्त हो और भाग्य खुल जाये हमारा।' 'तुझे कुछ बोलनेकी अकल भी है? क्या कह गया तू? पता नहीं, किसको महारानी बनाने के सपने देख रहा है। दाजीराज (पिताजी) को पूछा भी है? वे इस आयु में विवाह कर

mc 37

मीरा चरित  भाग- 37 भोजराज की अंतर्वेदना और अंतर्द्वंद्व .... डेरे पर आकर वे कटे वृक्ष की भाँति पलंग पर जा गिरे। पर वहाँ भी चैन न मिला, लगा पलंग पर अंगारे बिछे हों। वे धरती पर जा पड़े। कमर में बँधी कटार चुभी। खींचकर दूर फेंकने लगे कि कुछ सोचकर ठहर गये-उठ बैठे। कटार को म्यान से निकाला, एक बार अँगूठा फेरकर धार देखी और दाहिना हाथ ऊपर उठाकर उसे छाती पर तान लिया... । एक क्षण.... जैसे बिजली चमकी हो, अंतर में मीरा आ खड़ी हुई। उदास मुख,कमल-पत्र पर ठहरे ओस-कण से आँसू गालों पर चमक रहे हैं। जलहीन मत्स्या-सी आकुल-व्याकुल दृष्टि मानो कह रही हो–‘मेरा क्या होगा?' उन्होंने तड़पकर कटार फेंक दी। मरते पशु-सा धीमा आर्तनाद उनके गले से निकला और वे पुनः भूमि पर लोटने लगे। मेदपाट का स्वामी, हिन्दुआ सूर्य का ज्येष्ठ कुमार और लाखों वीरों का अग्रणी, जिसका नाम सुनकर ही दुष्टों के प्राण सूख जाते हैं और दीन-दुःखी श्रद्धा से जय-जय कर उठते हैं। रनिवास में प्रवेश करते ही दासियाँ राई-नौन उतारने लगती हैं और दुलार करती माताओं की आँखों में सौ-सौ सपने तैर उठते हैं। जिसे देखकर एकलिंगनाथ के दीवान की छाती गौरव से फूलकर दुग

mc 36

मीरा चरित  भाग- 36 ऐसी आशीष अब कभी मत दीजियेगा। आपके इस छोटे से भाई में इतना बड़ा आशीर्वाद झेलने का बल नहीं है।' कभी पूछती—'क्या सीख रहे हैं आजकल आप?' कभी योद्धा वेष में देखकर प्रसन्न हो उठती-'हूँ, बलिहारी म्हाँरा वीर थाँरा ई रूप माथे। उरा पधारो आपके काली टीकी लगा दूँ (मैं आपके इस रूप पर बलिहारी, मेरे भाई ! इधर पधारो आपको काला डिठौना लगा दूँ)।' सदा हँसकर सामने आने वाली उसकी यह निर्मल हृदया बहिन आज यों मुख देकर रो पड़ी तो जयमल तड़प उठा-'एक बार, एक बार अपने इस छाती में छोटे भाई को हुकम देकर तो देखिये जीजा! मैं आपको यों रोते नहीं देख सकता।' 'भाई! आप मुझे बचा लीजिये, मुझे बचा लीजिये !'- मीरा भरे गले से हिल्कियों के मध्य कहने लगी- 'सभी लोग मुझे मेवाड़ के महाराज कुँवर से ब्याहने को उतावले हो रहे हैं। स्त्री के तो एक ही पति होता है भाई! अब गिरधर गोपाल को छोड़ ये मुझे दूसरे को सौंपना चाहते हैं। इस पाप से आप मुझे बचा लीजिये। भगवान् आपका भला करेगा। आपकी गिनती तो अभी से वीरों में होने लगी है। तलवार के घाट उतार मुझे आत्महत्या के पाप से भी बचाओ....! मुझसे यह

mc 35

मीरा चरित  भाग- 35 उसने रैदासजी का इकतारा उठाया और गाने लगी- म्हारे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई।  जाके सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई। नयनों की सीपों से मानो मोती झर रहे हों। वह अग-जग से बेखबर अपने प्राणाधार को मनाने लगी- म्हारी सुध लीजो दीनानाथ।  जल डूबत गजराज उबार्यो, जलमें पकड्यो हाथ।  जिन प्रह्लाद पिता दुख दीनो नरसिंघ भया यदुनाथ॥  नरसी मेहता रे मायरे सगामें राखी बात।  मीरा के प्रभु गिरधर नागर भव में पकड़ो हाथ। राजकुँवर भोजराज की भीष्म प्रतिज्ञा.... भोजराज पहली बार भुवा गिरजाजी की ससुराल आये थे। भुवा के दुलार की सीमा न रही। एक तो हिन्दुआ सूर्य के पाटवी कुँवर, दूसरे भुवा के लाड़ले भतीजे और तीसरे मेड़ते के भावी जमाई होने के कारण इस महँगे दुर्लभ पाहुने की घड़ी घड़ी महँगी हो रही थी। पल-पल में लोग उनका मुख देखते रहते और मुख से कुछ निकलते ही उनके हुकम और इच्छा पूरी करने के लिये एक की ठौड़ दस दौड़ पड़ते। उनकी सुख-सुविधा में लोग स्वयं बिछे जा रहे हों कि क्या न कर दें इनकी प्रसन्नता के लिये। जयमल और भोजराज की सहज ही मैत्री हो गयी। दोनों ही इधर-उधर घूमते-घामते फुलवारी में आ निकले। सुन्दर श्यामकुँज

mc 34

मीरा चरित  भाग- 34 रनिवास में कानाफूसी..... राज्याभिषेक के समय वीरमदेवजी की आयु अड़तीस वर्ष थी। संवत् १५५३ में राणा रायमल की पुत्री और साँगाजी की बहिन गिरजाजी से जो सम्बन्ध हुआ, इससे इन दोनों राज्यों में घनिष्ट मित्रता हो गयी। दूदाजी के देहान्त के बाद मीरा बहुत गम्भीर हो गयी। उसके सबसे बड़े सहायक और अवलम्ब दूदाजी के न रहने से उसे अकेलापन खलने लगा। यह तो प्रभु की कृपा और दूदाजी की भक्ति का प्रताप था कि पुष्कर आने वाले संत मेड़ता आकर दर्शन देते। इस प्रकार मीरा को अनायास सत्संग प्राप्त होता। धीरे-धीरे रनिवास में इसका भी विरोध होने लगा—'लड़की बड़ी हो गयी है, अत: इस प्रकार देर तक साधुओं के बीच में बैठे रहना और भजन गाना अच्छा नहीं है।’ ‘सभी साधु तो अच्छे नहीं होते।' 'पहले की बात और थी। तब अन्नदाता हुकम साथ रहते थे और मीरा भी छोटी ही थी। अब वह चौदह वर्ष की सयानी हो गयी है। विवाह हो जाता तो एकाध वर्ष के भीतर माँ बन जाती।' 'आखिर कब तक कुँवारी रखेंगे इसे? कल आसपास के लोग ताना मारेंगे कि “अरे अपने घर में देखो, घर में जवान बेटियाँ कुँवारी बैठी तुम्हें रो रही हैं। तब आँख खुलेगी

mc 33

मीरा चरित  भाग-33 दूदाजी लेट गये—'आपके रूपमें आज भगवान् पधारे हैं महाराज! यों तो सदा ही संतों को भगवत्स्वरूप समझकर जैसी बन पड़ी, सेवा की है, किन्तु आज महाप्रयाण के समय आपने पधारकर मेरा मरण भी सुधार दिया।' उनके बंद नेत्रों की कोरों से आँसू निकलकर सिरहाने को भिगोने लगे। 'ऐसी बात क्यों फरमाते हैं दाता हुकम!'- रायसल ने भरे गले से कहा। 'जो निश्चित है, उसकी ओर से आँख नहीं मूँदना बेटा! यदि प्राण रहें भी तो यह जर्जर देह इन्हें धारण करनेकी क्षमता कितने दिन जुटा पायेगी? फिर फूली हुई फुलवारी-सा यह मेरा परिवार, कर्तव्यपरायण पुत्र, अपने अलौकिक गुणों से भविष्य में सारे देश को आलोकित करनेवाली विदुषी और भक्तिपरायणा पौत्री मीरा तथा अभिमन्यु-सा होनहार वीर पौत्र जयमल-ऐसे भरे-पूरे परिवारको छोड़कर जाना मेरा परम सौभाग्य है पुत्र! मनको मलिन मत करो। चारभुजानाथकी छत्रछाया और अपना कर्तव्य, केवल यही स्मरण रखो।'  पुत्रके प्रति इतना कहकर उन्होंने पुकारा—'मीरा!' 'हुकम बाबोसा!' 'जाते समय भजन तो सुना दे बेटा!' 'जैसी आज्ञा बाबोसा!' उसने तानपूरा उठाया, उँगलियाँ फे

mc 32

मीरा चरित  भाग- 32 ‘हाँ, मीरा-जयमल मेरे पास आओ बेटा! मैं जयमल को योद्धा वेष में और मीरा को अपनी राजसी पोशाक में देखना चाहता हूँ।' उन्होंने दोनों बालकों के हाथ थामकर कहा। रायसल उठकर जयमल को योद्धा वेश में सजाने ले चले और मीरा ने भी रनिवास की ओर पद बढ़ाये। थोड़ी देर बाद ही दोनों भाई-बहिन सुसज्जित होकर लौट आये। बालक जयमल की देह पर वीर वेश खिल उठा। कमर में तलवार, पीठ पर ढाल और हाथ में भाला लिये हुए अपने होनहार पौत्र को देखकर वृद्ध दूदाजी की आँखें चमक उठीं। सर्वाभरणभूषिता मीरा की रूप छटा देखकर लगता था मानो लक्ष्मी ही अवतरित हो गयी हों। दूदाजी ने बैठने की इच्छा प्रकट की। पुत्रों ने पीठ की ओर मसनद की ओट लगाकर उन्हें बैठा दिया। कृष्ण-सुभद्रा जैसी भाई-बहिन की जोड़ी ने सम्मुख आकर उनके चरणों में मस्तक झुकाया। उन्होंने दोनों के सिर पर हाथ रखा। कुछ देर उनके मुख को देखते रहे, फिर आशीर्वाद देते हुए बोले- 'प्रभु कृपा से, तुम दोनों के शौर्य व भक्ति से मेड़तिया कुल का यश संसार में गाया जायगा! भारत की भक्तमाल में तुम दोनों उज्ज्वलमणि होकर चिरकाल तक प्रकाशित होते रहो! तुम दोनों का सुयश पढ़-सुन करक

mc 31

मीरा चरित  भाग- 31 मैं कैसे अब दूसरा पति वर लूँ? और कुछ न सही, शरणागत समझकर ही रक्षा करो.... रक्षा करो! अरे, ऐसा तो निर्बल-से-निर्बल राजपूत नहीं होने देता। यदि कोई सुन भी लेता है कि अमुक कुमारी ने उसे वरण किया है तो प्राणप्रण से वह उसे बचाने का, अपने यहाँ लाने का प्रयत्न करता है। तुम्हारी भी शक्ति तो अनन्त हैं, करुणावरुणालय हो, शरणागतवत्सल हो, पतितपावन हो, दीनबंधु हो, अनन्त-सौन्दर्य-पारावार हो, भक्त-भयहारी हो....! कहाँ तक गिनाऊँ..... इन्हीं बातों को सुन-सुनकर तो हृदय में आग लगी। श्यामसुन्दर ! मेरे प्राण ! तुम्हारी लगायी यह आग अब दावाग्नि बन गयी है। अब मेरे बसकी नहीं रही....। इतनी अनीति मत करो मोहन.... ! मत करो.... मत करो! मेरे तो तुम्हीं रक्षक हो, तुम्हीं सर्वस्व हो, अपनी रक्षा के लिये मैं किसे पुकारूँ? किसे पुकारूँ... ।' मीरा अचेत हो गयी। उस हँसी-खुशी, राग-रंग के बीच कोई न जान सका कि दुःख के अथाह सागर में डूबकर अपने कक्ष में मीरा अचेत पड़ी है। वीर शिरोमणि राव दूदाजी का महाप्रयाण..... राव दूदा जी अब अस्वस्थ रहने लगे थे। अपना अंत समय समीप जानकर ही सम्भवतः उनकी ममता मीरा पर अधिक बढ़

mc 30

मीरा चरित  30- ‘हाँ हजूर ।' दासी ने आकर बताया कि स्नानकी सामग्री प्रस्तुत है। 'मैं जाऊँ स्नान करने?'—उन्होंने अपनी दोनों बेटियों से पूछा।  'पधारो।'- कहकर दोनों ही हिंडोले से उतर पड़ीं। मीरा श्यामकुँजकी ओर तथा फूलाँ अपनी सखियोंके पास। रात ठाकुरजी को शयन कराकर मीरा उठ ही रही थी कि गिरजाजी की दासी चन्दन ने आकर धीरे से कहा- 'बड़ा बावजी हुकम आपने याद फरमावे (बड़े कुँवरसा आपको बुलवा रहे हैं) ।' 'क्यों? अभी?'–उसने चकित हो पूछा। दासी के साथ जाकर मीरा ने देखा कि चित्तौड़ी रानी का महल प्रकाश से नहा गया है। नीचे दमामणियाँ गा रही हैं। पूरा महल नीचे से ऊपर तक सुगन्ध से गमगमा रहा है। सभी महलों से न्यौछावरें और मनुहारें आ रही हैं, अतः सेवक दासियाँ इधर से उधर भागते-से चल रहे हैं। छोटे भाई तो स्वयं ही आ गये थे न्यौछावर करने। उसकी बड़ी माँ भी उस बहुमूल्य पोशाक में कितनी सुन्दर लग रही थी! वे घूँघट काढ़े वीरमदेवजी के पास ऊँची गद्दी पर विराजमान थीं। दोनों को देखकर लगता था अभी-अभी विवाह से लौट मौर-कंगन खोलकर बैठे हों। उसे आयी देख वीरमदेव जी ने पुकारा- 'मीरा! इधर मेरे

mc 29

मीरा चरित  भाग-29 मीरा ने एक बार और लौट जाना चाहा, किन्तु फूलाँ की जिद्द से विवश होकर वह साथ हो ली। यों तो मेड़ते के रनिवास में गिरजाजी, वीरमदेवजी की तीसरी पत्नी थीं, किन्तु पटरानी वही थीं। उनके ऐश्वर्यपूर्ण ठाट निराले ही थे। पीहर से आये लवाज में में पचासों दासियाँ और परम प्रतापी हिन्दुआ सूर्य की लाड़ली बहिन का वैभव और सम्मान यहाँ सबसे अधिक था। यहाँ तक कि दूदाजी और वीरमदेव भी उनका बहुत सम्मान करते थे।महलके मुख्य कक्ष में चाँदी से बने गंगा जमुनी काम के हिंगलाट (हिंडोला) पर वे सर्वाभरण भूषिता विराजमान रहतीं। उनकी दासियाँ भी सदा सजी-धजी नजर आतीं। उनकी रसोई से एक-एक थाल सदा सौतों और देवरानियोंके महलों में पहुँचता। दिन में एक बार वे अपनी बड़ी सौतों से अवश्य मिलतीं। वार-त्यौहार बड़ी सौतों के पाँव लगने जातीं, पर उस सारी विनम्रता, उदारता के बीच भी उनका ऐश्वर्य और दर्प सदा उपस्थित रहता। उनकी सरलता को ढोंग समझा जाता, उनकी ड्योढ़ीपर बैठे राणावत वीर अपनी मूँछें ऐंठते हुए वंश की गौरव-गाथा बखानते रहते। नित्य ही प्रात:-सायं दमामी ड्योढ़ीपर उपस्थित हो पितृ-वंशकी चार पीढ़ियोंके नाम लेते हुए विरद बखानते

mc 26

मीरा चरित  भाग- 26 ‘नहीं बेटा! पर वे मीरा के शिक्षा गुरु हैं, दीक्षा गुरु नहीं।'–दूदाजी ने उत्तर दिया। 'आप रुकिये न भाई!'- मीराने हँसकर कहा। 'मैं क्या झूठ कह रहा हूँ बाबोसा?' 'सुनो बेटी ! इस क्षेत्र में अधिकारी को वंचित नहीं रखा जाता। तृषित यदि सरोवर के समीप नहीं पहुँच पाता तो सरोवर ही प्यासे के समीप पहुँच जाता है। तुम अपने गिरधरसे प्रार्थना करो। वे उचित प्रबंध कर देंगे।' 'गुरु होना आवश्यक तो है ना बाबा?' 'आवश्यकता होनेपर अवश्य ही आवश्यक है। यों तो तुम्हारे गिरधर स्वयं जगद्गुरु हैं। गुरु शिक्षा ही तो देते हैं, शिक्षा जहाँ से भी मिले, ले लो।' 'मन्त्र?' उसके इस छोटे से प्रश्न पर दूदाजी हँस दिये—'भगवान का प्रत्येक नाम मंत्र है बेटी ! उनका नाम उनसे भी अधिक शक्तिशाली है, यही तो अबतक सुनते आये हैं।' 'वह कानों को ही प्रिय लगता है बाबोसा ! आँखें तो प्यासी ही रह जाती हैं।'- अनायास ही मीरा के मुखसे निकल पड़ा, पर बात का मर्म समझ में आते ही सकुचा करके उसने दूदाजीकी ओर पीठ फेर ली । 'उसमें इतनी शक्ति है बेटी कि आँखोंकी प्यास बुझ

mc 27

मीरा चरित  भाग- 27 अपनी दशा को छिपाने के प्रयत्न में उसने सखियों की ओर से पीठ फेरकर भीत पर दोनों हाथों और सिर को टेक दिया। रुदन को मौन रखने के प्रयत्न में देह रह-रह करके झटके खाने लगी। स्वामिनी की यह दशा देख दासियाँ कीर्तन करने लगीं। चम्पा और चमेली उसके दोनों ओर खड़ी हो गयीं कि कहीं अचेत होकर गिर न पड़ें। उसी समय गंगा ने आकर माता झालीजी के पधारने की सूचना दी। चम्पा ने मीरा के सिर पर साड़ी ओढ़ाते हुए कान के समीप मुख ले जाकर धीमे स्वरमें कहा- 'धैर्य धारण कीजिये, कुँवरानीसा पधार रही हैं।' कठिन प्रयत्न करके मीरा ने अपने को सँभाला और नीचे बैठकर तानपूरे पर उँगलियाँ फेरी- तो सों नेह लाग्यो रे प्यारा नागर नंद कुमार। मुरली थारी मन हरयो बिसरयो घर त्योहार। जब ते श्रवनन धुन परी, घर आँगण न सुहा। पारधि ज्यूँ चूके नहीं, बेध दई मृगी आय। पानी पीर न जानई, ज्यों मीन तड़फ मरि जा।  रसिक मधुप के मरम को, नहीं समुझत कमल सुभाय। दीपक को तो दया नहीं, उड़ि उड़ि मरत पतंग।  मीरा प्रभु गिरधर मिले, जूँ पाणी मिल गयो रंग। वीरकुँवरीजी ठाकुरजी को प्रणाम कर बैठ गयीं। मीरा ने भजन पूरा होने पर तानपूरा रखते समय माँ क

mc 28

मीरा चरित  भाग- 28 ‘बस, इतनी-सी बात? लो पधारो। मैं चलती हूँ भोजन करनेके लिये। आपके मुख से भोजन का नाम सुनते ही जोर की भूख लग आयी है।'-मीरा उठकर माँ के साथ चल पड़ी। 'अरी, तुम सब केवल इसके आगे-पीछे ही घूमती हो? इस भोली बेटी को संसार की ऊँच-नीच भी तो समझाया करो जरा।' -झालीजी ने दासियों की ओर देखकर कहा। 'अरे अन्नदाता! हमारी भला समझाने जैसी हैसियत कहाँ?' मिथुला ने कहा—'बाईसा हुकम ने तो सब शास्त्र पढ़े हैं। बड़े-बड़े विद्वान् भी बोल नही पाते इनके आगे।'  'ये शास्त्र ही तो आज बैरी हो गये।' उन्होंने निश्वास छोड़कर कहा और बेटी के साथ भोजनशाला की ओर मुड़ गयीं। वे मनमें सोच रही थीं- 'क्यों नहीं अन्नदाता ने इसे अन्य लड़कियों की भाँति सामान्य रहने दिया? इसकी विशिष्टता अब सबका सिरदर्द बन गयी है। इसके लिये अब जोगी राजकुँवर कहाँ से ढूंढे?' सायंकाल अकस्मात् विचरते हुए काशी के संत रैदासजी का मेड़ते में पधारना हुआ। दूदाजी बहुत प्रसन्न हुए। यद्यपि रैदास जाति के चमार थे, किन्तु संतों की, भक्तों की कोई जाति नहीं होती। वे तो प्रभु के निजजन-प्रियजन हैं बस। दूदाजी ने