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Showing posts from April, 2019

गौर रस तरँग(यशु)

🌹 *गौर रस तरँग* 🌹 *गौर*, ये क्या एक शब्द हैं भला? नहीं नहीं.....मेरे लिए तो अनूप महासागर से भी गहरा, अनंत ब्रह्मांड से ऊंचा, या यूँ बोलूँ की इस दिव्य नाम की महिमा की उपमा देते न बनती। बन भी कैसे सकती? ये सिर्फ नाम नही कोटि-कोटि प्रेम सागर का निचोड़ है। कलियुग पावनावतार श्रीगौर हम जैसे अधमों को तारने हेतु प्रकट हुए। गौर नाम में इतनी मिठास हैं कि रसना और सारे स्वाद भूल जाएगी यदि एक बार रसना ने हरी गौर का नाम रस चख भर लिया।पीना तो बहुत दूर की बात यदि चख भर भी लिया तो अतृप्ति के सागर में गोते लगाने जैसा है। गौर एक दिव्य उन्माद हैं उनके प्रेम का सागर जिस हृदय में हिलोरे मारता वो हृदय अनन्त कोटि जीवों को अकेले ही तारने में सक्षम हो जाता है। श्रीगुरुगौरांगो जयते !!     

हा नित्यानन्द (यशु)

हा नित्यानंद, आमार कोरुणालय वरुणालय,, हा निताई चाँद परम दयाल ओगो कोरुना सिंधू, आमी पोतित मूढ़मोती ओगो दयाल।कृपा कोरे तोमार चरण तोले अमाके थाई दियो , आमार मोन मोन्दिर सदा ठाक तोमार एई दयाल रूप।।

गोपाल भट्ट

🍒🍒🍒🍒🍒🍒🍒🍒 *गोपाल भट्ट गोस्वामी काजीवन परिचय* *गोपाल भट्ट गोस्वामी का जन्म संवत् १५५३ विक्रमी में कावेरी नदी के तट पर श्रीरंग के पास बेलगुंडी ग्राम में हुआ था। सं. १५६८ में जब श्रीगौरांग दक्षिण यात्रा करते हुए श्रीरंग आए, वेंकट भट्ट के यहाँ चातुर्मास व्यतीत किया था। गोपाल भट्ट की सेवा से प्रसन्न हो इन्हें दीक्षा दी तथा जाते समय विवाह न करने पर अध्ययन एवं* *माता-पिता की सेवा करने का उपदेश दिया। माता पिता की मृत्यु पर सं. १५८८ में वृंदावन आए। श्रीगौरांग के अप्रकट होने पर वृद्ध गोस्वामियों के विशेष आग्रह पर यह आसन पर बैठे। उत्तरी तथा पश्चिमी भारत के बहुत से लोग इनके शिष्य हुए। इसके अनंतर यह यात्रा को निकले। देववन में गोपीनाथ को शिष्य बनाया तथा गंडकी नदी से एक शालिग्राम शिला ले आए, जिसकी निरंतर पूजा करते। सं. १५९९ में इनकी अभिलाषा के कारण शिला से राधारमण की मूर्ति का प्राकट्य हुआ। महारासस्थली का स्थान निश्चित कर कुटी बनाई और उसी में सेवा पूजा करने लगे। सं. १६४२ में भट्ट जी का तिरोधान हुआ। कृष्णतत्व तथा अवतारवाद पर कई स्फुट संदर्भ लिखकर जीव गोस्वामी  को सुशृंखलित करने को दिया और उन्

श्रीकृष्ण आभूषण

*श्रीकृष्ण के दिव्य आभूषण* 🎗 कृष्ण के ताबीज़ का नाम- *महारक्षक* जिसमे 9 मोतिया है जिसे *यशोदामैया* कृष्ण जी के बाजु पर बाधती है. 🌈🌈कृष्ण के बाजूबंद - *रंगदा (रंगने बाला)* दोन्हो हाथों के बाजू मे रत्न जड़ित 💍कृष्ण जी नामांकित अंगूठी- *रत्नमुखी* 💍💍💍💍💍💍 🔶कृष्ण जी के पीताम्बर का नाम - *निगम शोभना* श्रुतियों की शोभा बढ़ाने बाला 💫कृष्ण जी करधनी- *कला झंकारा* जिसकी खनक बहुत मधुर है 💫💫कृष्ण जी की पायल(नुपुर)- *हंस गंजना* जिसकी मधुर ध्वनी हंसो के मधुर गीत की तरह है जिनकी झंकार गोपियो के चित का हरण कर लेती है 🏵 कृष्ण जी के कंठीहार  -  *तारावली* सितारों का किनारा हो जैसे 🏅कृष्ण जी मणियो की माला - *तड़ित प्रभा* अर्थ --⚡बिजली की आभा 🎖 श्री कृष्ण जी के गले मे लॉकेट-  *ह्र्दयमोदन*            (ह्रदय का आनंद💖💖) जिसमे श्री राधारानी जी चित्र है 💧 कृष्ण जी की मणि - *कौस्तुभमणि*      सागर की मणि जो कालिया नाग की पत्नियो ने भेंट दी थी 🌙🌙कृष्ण जी के मकराकृत कुंडल - *रति रागाधिदैवता* (रसिक स्नेह के मूल विग्रह) 🌿कृष्ण जी मोर मुकुट -   *नवरत्न विडम्ब*  

गौरवल्लभा

गौर विरहिणी विष्णु प्रियाजी को कुछ तंद्रा आ रही है, इसी समय वो स्वप्न देखती हैं 'नीलाचल में उनके प्राण वल्लभ की गम्भीरा लीला का रंग जमा है।वे देखती हैं कि उनके प्राण वल्लभ गम्भीर अंधकार में नीलाचल में रास्ते रास्ते प्रेमोन्मत्त भाव से निःसंग होकर(अकेले) ग्रह ग्रसित के समान छट पटा रहे हैं।हा कृष्ण!हा करुणा सिंधु!कहकर अतिद्रुत वेगसे समुद्र की ओर भाग रहे हैं। विस्तीर्ण तरंगाकुल समुद्र तट पर इस घोर इस घोर अंधकार में वे एकाकी खड़े कृष्ण विरह व्यंजक न जाने क्या प्रलाप कर रहे हैं,वे मानो समुद्र में कूदने को उद्यत हैं' गौर वक्ष विलासिनी इस प्रकार स्वप्न देखकर स्थिर न रह सकी। उन्होंने भूमिशय्या त्यागकर तत्काल उठकर भजन मन्दिर(प्रियाजी का कक्ष ) का द्वार खोला। बिखरे केश हैं,पागलिनी के समान महाशंका और उद्वेग के साथ बाहर आकर देखा कि उनकी दोनों सखियाँ सोई हुईं हैं किसीको कुछ न कहकर वे अंधेरे में आंगन में झटपट उतरने लगी।उतरते समय ठोकर लग गई,किसी तरह खुदको संभालकर अंधकार में आंगन में बाहर का द्वार खोजने लगी तुलसी कानन के सम्मुख ऊंचे तुलसी मंच से उनका सर टकरा गया,भारी चोट लगीं,वो सिरपर ह

राधिकाष्टकम

*श्रीराधिकाष्टकम्* *दिशी दिशी रचयन्तीं संरन्नेत्रलक्ष्मी-*       *विलासित-खुरलीभि:खञ्जरीटस्य खेलाम्।* *ह्रदयमधुपमल्लीं बल्लवाधीशसूनो-*       *राखिल-गुण-गभीरां राधिकामर्चयामि*।। में उन श्रीमती राधिका जी की पूजा करता हूं कि, जो प्रत्येक दिशा में विचरण करने वाले अपने नेत्रों की शोभारूप विलासके अभ्यासों के द्वारा खञ्जनपक्षी के खेल की रचना करती हैं, अर्थात राधिका जिस दिशाकी ओर दृष्टि पात करती हैं, वह दिशा माने खञ्जनमाला से व्याप्त हो जाती है।तात्पर्य-जिनके दोनों नेत्र खञ्जन के समान हैं एवं जो नन्दनन्दन श्रीकृष्ण के हृदय रूप भ्रमर के लिए, मल्लिका के पुष्प के समान है। भ्रमर के लिए मल्लिका जिस प्रकार आनन्ददायिनी है, उसी प्रकार राधिका श्रीकृष्ण हृदय के लिए आनन्ददायिनी हैं तथा जो समस्त गुणों के कारण अतिशय गम्भीर हैं।। *पितुरिह वृषभानोरन्ववाय-प्रशास्तिं*          *जगति किल समस्ते सुष्ठु विस्तारयन्तीम्*। *व्रजनृपतिकूमारं खेलयन्तीं सखीभि:*           *सुलभिणि निजकुण्डे राधिकामर्चयामि*।। *शरदुपचित-राका-कौमुदीनाथ कीर्ति-*        *प्रकर-दमनदीक्षा-दक्षिण-स्मरेवक्त्राम्*। *नटदधभिदापाड्गोतानड़

महामन्त्र व्याख्या

(Copy paste) श्री प्राणेश्वर चलो महामंत्र की व्याख्या सुनते है मैं लिखता हूँ रसराजरसरानी के भाव में यह जो महामंत्र है हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे यह मंत्र याद रखना कोई " लोक साधारण कल्याण भाव से नहीं बोला गया जैसे और मंत्र यह मंत्र उस " भाव दशा को दर्शाता है प्रेम की सबसे उच्चतम अवस्था होती है यह महामंत्र " महाभाव प्रेम के अनिवर्चनीय रस। के अस्वादन भाव में बोला गया है देखिए हर इष्ट के मंत्र में " इष्ट का नाम से सम्बोधन होता है" और इष्ट को पता होता है के जीव उसका नाम ले रहा है परंतु इस महामंत्र के अति उच्चतम रस वैलक्षण ऐसा है के महारस के समुन्दर में महाभाव के प्रेम के आनंद से आंदोलित चित इष्ट को इस महाप्रेम रस धारा में " विस्मरण करा देता है के वो इष्ट है और उस महाभाव अति प्रेम में वो " अपने को कहीं प्रेम में खो कर इस भाव समुन्दर में यह महामंत्र का उच्चारण करता है हरे का अर्थ श्यामसुंदर उस महाभाव रस की समुन्दर में अपने को भूल राधारानी के अत्यंत चिंतन में स्वयं भूल कर कहते है क्या मैं कृष