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Showing posts from September, 2022

mc 14

मीरा चरित  भाग-14 यदि कुशल चाहते हो तो लौट जाओ चुपचाप और छः महीनेके बाद श्रीवर्धिनी बावड़ीसे मेरा दूसरा विग्रह मिलेगा। उसे मन्दिरमें स्थापित करो।' चकित हो सब बावड़ीकी ओर दौड़े और देखा कि सचमुच पानी लाललाल हो रहा है। भक्तराजसे क्षमा माँगकर सवार लौट गये। धीरे-धीरे वे बावलीमें उतरे और श्रीविग्रहको उठाकर हृदयसे लगा लिया। नेत्रोंकी वर्षासे उन्होंने अपने प्रियतमको स्नान करा दिया। हिचकी बँध गयी उनकी, वहीं सीढ़ीपर बैठ श्रीविग्रहको छातीसे लगा हाथ फेरते हुए गद्गद कंठसे कहने लगे- 'मारा धणी। मुज अधम माथे ऐटली बधी कृपा.... ऐटली बधी कृपा, मारी चोट तमे केम लीधी मारा वाला। तमे आ शूं किंधू....शूं किंधू।'  वे श्रीविग्रहके वक्षपर सिर टिका फूट-फूटकर रो पड़े। उन्हें तो ज्ञात ही न हुआ कि श्रीविग्रहका स्पर्श पाते ही उनकी पीड़ा-चोट सब कपूरकी भाँति उड़ गयी। डाकोरमें अपने घर लाकर बरामदेमें फूसके छप्परके नीचे लकड़ीकी चौकीपर प्रभुको पधरा दिया। आज वहाँ भव्य मन्दिर है। बादमें द्वारिकासे पुजारी आये, लोभमें आकर उन्होंने गृहस्थ भक्तराज से श्रीविग्रह के बराबर सोना माँगा। भक्तप्रवरने अपनी पत्नीकी सोनेकी नथ औ

mc 13

मीरा चरित  भाग- 13 अचानक हड़बड़ाकर वे जग गये और मन-ही-मन कहने लगे-'यह क्या स्वप्न देखा मैंने? क्या सचमुच ही प्रभु डाकोर पधारना चाहते हैं? अहा, ऐसा भाग्य कहाँ? स्वप्न तो स्वप्न ही होते हैं मेरे पागल मना! असम्भवकी आशा न जगा। निज मंदिर में जाकर प्रभुके श्रीविग्रहको हाथ लगायेगा तू? देख रहा है न इन पंडे-पुजारियोंको, तेरी हड्डियोंकी खैर नहीं रहेगी। सो तो सब ठीक है, पर वह मोहिनी मूरत? अहा, उसका लोभ कैसे छोड़ दूँ? मुखसे झरती हुई अमृतवाणी, कानोंमें अभी भी वह स्वर धीमा नहीं पड़ा है। सबसे बढ़कर वह... वह मुसकान । हे भगवान्! मैं क्या करूँ? कहाँ जाऊँ? लगता है जैसे मन मिश्रीकी डली-सा घुल गया इस मुस्कानमें । और..... और.... वह नजर, क्या वह कहनेमें आ सकती है? वे कोमल पलकें, वह आमकी फाँक-सी बड़ी-बड़ी आँखें, वे काली भँवर-सी पुतलियाँ। आह! कैसे-कैसे वह दृष्टि कलेजेमें उतरकर आरी-सी चलाती है कि न कराहते बनता है न मुस्कुराते प्राणोंका चैन छीन लेनेवाली यह मीठी पीड़ा..!! अपने विचारोंमें लीन उन्हें ज्ञात ही न हुआ कि तीन प्रहर रात कब बीत गयी है और रात्रिके चतुर्थ प्रहरकी ठण्डी हवाके प्रभावसे कीर्तनियाँ लोग आड़े-

मीरा चरित 12

मीरा चरित भाग- 12 चार सेवक और कुछ सैनिक चारों ओर गये हैं।'–नायकने हाथ जोड़े हुए कहा। राजपुरोहितजी और दो उमरावोंके साथ दूदाजी सीधे सरिता तटकी ओर चले।  ‘जी चाहता है पुरोहितजी यहीं एक पर्णकुटी बना लूँ और भजन करूँ।' दूदाजीने कहा। चौंककर पुरोहितजी बोले- 'जी महाराज!' 'क्या सोच रहे थे महाराज?'–दूदाजी हँस पड़े। 'बाईसा ऐसे कहाँ पधार गयीं? और....।' 'और क्या महाराज?'–दूदाजीने पूछा। 'कुछ नहीं महाराज! ऐसे सुंदर स्थलपर किसी संतके दर्शन हो जाते तो समय और यात्रा सफल हो जाती।' सरिता तटसे कुछ ही दूर रहे होंगे कि साथके एक व्यक्तिने कहा 'बाईसा वे रहीं।' सभीने चौंककर उस ओर देखा कि एक शिलापर बैठी हुई मीरा एकाग्रतासे जल-प्रवाह देख रही हैं। उसीके साथ उन्होंने यह भी देखा कि न जाने किधर से आकर एक काले भुजंगने मीराके पीछेकी ओरसे उठकर उसके सिरपर अपना फन फैला दिया है। ये सब हतप्रभ हो हठात् रुक गये। फिर सँभलकर दूदाजीने पद आगे बढ़ाये। मनमें कई आशंकाएँ लिये सब उनके साथ चल पड़े। सबकी दृष्टि मीरापर थी। उन्होंने देखा कि उसने ( मीरा ने ) सिर उठाकर नदीके उस पार देखा

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मीरा चरित भाग- 10 ‘अब मैं जाऊँ कुँवरसा? गिरधर गोपाल अकेले हैं..??" 'जाओ बेटी! तुम्हारी माँ तुम्हें पहुँचा आयँगी।'  'नहीं कुँवरसा! मैं चली जाऊँगी। डर-वर नहीं लगता मुझे। भाबू! आप यहीं बिराजें।'  पिताकी गोदसे उतरकर मीराने माता-पिताको पुनः प्रणाम किया और देहरी लाँघकर बाहर निकल गयी। माता-पिता दोनों ही वात्सल्य विगलित दृष्टिसे अपनी इस असामान्य कन्याको जाते हुए देखते रहे।  'मोह-माया तो जैसे इसे छू भी नहीं गयी।' वीरकुँवरीजीने कहा 'बच्चों को माँ से कितना मोह होता है?" 'कोयलेकी खानमें जब हीरा निपजता है तो वह खान भी इसी तरह बिसूरती है। वह क्या तुम्हारा सम्मान नहीं करती?'  'माँ का हृदय सम्मान का भूखा नहीं होता। उसे बालक का स्नेह चाहिये। पास बैठी हो, तब भी लगता है बहुत दूर है।'  'क्या कहा तुमने? अभी कितने मीठे स्वरसे बोली कि भाबू, आप यहीं बिराजें।' "इससे अधिक अच्छा लगता मुझे, यदि वह कहती कि भाबू, मुझे गोदमें उठाकर वापस छोड़ पधारो, मुझे डर लगता है अथवा वह यह कहती कि भाबू, मैं भी आपके पास ही सो जाऊँ? मुझसे अधिक तो उसे अपने ठाकुरजीकी च

मीरा चरित 9

मीरा चरित  भाग-9 ‘वाह, तुमने तो चारणोंके समान प्रसन्न कर दिया मुझे। सच, जिस समय कड़खों और रणभेरीकी आवाजें कानोंमें पड़ती हैं। कवचकी कड़ियाँ खड़खड़ा उठती हैं, भुजाओंमें फड़कन होने लगती है, शरीरके रोमोंके साथ मूँछें भी खड़ी हो फरफराने लगती हैं, हृदयका उत्साह छाती फाड़कर बाहर निकलनेको आतुर हो उठता है। ऐसे में हाथ में असली सार (लोहा) की साँग हो और गान्धारी घोड़ेकी लगाम हो तो राजपूतके लिये धरती ओछी पड़ जाती है।' 'मैंने तो जो देखा-सुना, वही अर्ज किया है। कोई अतिशयोक्ति तो नहीं की। आजतक तो यही देखा-जाना है कि अपनी स्त्री, कर्तव्य-पालन और शरणागत के लिये राजपूत सारी दुनियाँको आग लगा सकता है।' 'तब तुम्हीं कहो, ऐसा करना क्या अनुचित है?'– रतनसिंहने मुस्कराकर पूछा। 'नहीं, नाहरों (शेरों) के लिये यही उचित है, किंतु आज लगता है कि नाहरकी बेटीको बकरी या गाय बननेकी शिक्षा दी जा रही है। शेरनीके गर्भसे ही शेर जन्म लेते हैं; गाय, बकरियोंके गर्भसे नहीं।'  ‘यह क्यों भूलती हो झालीजी कि शेर और बकरी जन्मजात होते हैं। विपरीत शिक्षा तभीतक काम करती है, जबतक समय नहीं आता। अन्याय देखकर क्ष

मीरा चरित 11

मीरा चरित  भाग- 11 ‘ठहरिये दादोसा! लगे हाथ एक वरदान चारभुजानाथसे और माँग लूँ। ऐसे पावन पर्व जीवनमें बार-बार नहीं आते।'- पिताके वक्षसे अलग होते ही रतनसिंहने कहा।  दोनों भाई हाथ पकड़े प्रसन्न मनसे चारभुजानाथके दर्शन करने चले। मंदिरमें प्रभुके सामने दोनों भाइयोंने घुटने टेके और माथेसे शिरोभूषण सहित साफे उतारकर उनके सम्मुख रखे, हाथ जोड़कर गद्गद कंठसे रतनसिंह बोले- 'म्हाँरा धणी ! जमारामें कदी अतरो लोभ मती दीजो के दादोसाने, अणी व्हाली जलम भौमने, अर थने-थने म्हाँरा व्हाला प्राण, थने छोड़ ने कठै दूजे जा बसूँ। म्होटा भाई मालीक अर म्हूँ चाकर हूँ या बात कदी मन सूँ कदै न निकले। अणी जलम भौमकाको रिण ओछो करतां रणमें दोई-दोई हाथाँ सूँ साँग बावतो, लोही री होली रमतो, रण नृत्य करतो ही देही छोडूं। यो.... यो.... ही म्हाँरो मनोरथ पूरो कर म्हाँरा नाथ! यो ही वरदान दे म्हाँरा तिरलोकी नाथ !' (मेरे स्वामी! जीवनमें इतना लोभ कभी मत देना कि बड़े भाई, इस प्यारी जन्मभूमि और मेरे प्यारे! मेरे प्राण! तुम्हें छोड़कर कहीं और जा बसूँ। बड़े भाई स्वामी हैं और मैं उनका सेवक हूँ, यह बात कभी मनसे न निकले। इस जन्मभू

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मीरा चरित भाग-7 ठाकुरजीको ही बाहर ले जाकर दिखा देती न? सारे रनिवासमें दौड़म-दौड़ मच गयी।' ‘बीनणी! काला री गत कालो इ जाणे। यों भी बूढ़े और बच्चे मित्र होते हैं, फिर दोनों ही भगत हों तो कहना ही क्या? तुम्हीं कहो, मीराको छोड़कर और किसीकी हिम्मत है अन्नदाता हुकमके सामने ऐसी बेतुकी बात करने की? औरोंको छोड़ो, उनके बेटे ही नहीं बोल पाते अपनी बात। किसी औरसे वे कहलवाते हैं। केवल यही ऐसी लाड़ल पूत है, जिसकी हर बात उन्हें मान्य है।' दूदाजीने भगवान को प्रणाम किया और बोले- 'बेटा ठाकुरजीको लकड़ीके बाजोठ पर क्यों? आज ही मैं चाँदीका सिंहासन मँगवा दूँगा।' 'हाँ, बाबोसा ! मखमलके गादी-मोड़े, रेशमकी दोवड़, किमखाबके बागे, पौढ़नेके लिये चन्दनका हिंडोला, पलंग, पूजाके लिये चाँदीके बर्तन और भोगके लिये सोनेके बर्तन भी मँगवा दीजियेगा।' 'अवश्य बेटा! अवश्य, आज साँझ तक सब वस्तुएँ आ जायेंगी।'  'अरे, सबसे आवश्यक बात तो मैं भूल ही गयी। इनका नाम क्या है बाबोसा?" 'इनके नामका और गुणोंका कोई पार नहीं है बेटा ! तेरे ठाकुरजी हैं सो मीराके ठाकुरजी और क्या?" 'नहीं, नहीं, ऐस

मीरा चरित 8

मीरा चरित भाग- 8 यदि वे मुझे जलती हुई अग्निमें कूद पड़नेको कहें तो क्या मैं यह आगा-पीछा सोचूँगा कि मेरे पीछे मेरी पत्नी और पुत्रीका क्या होगा? नहीं, यह असम्भव है। मेरे लिये तो मेरे पीछे दाता हुकम हैं, यह आश्वासन ही बहुत है और मैं इसीके सहारे आगमें कूद जाऊँगा। पूरा परिवार उन्हींके लिये और उन्हींकी सुख-सुविधा और प्रसन्नताके लिये है। हमारे चारभुजानाथ तो दाता हुकम ही हैं। तुम मनसे सारी दुविधाएँ निकाल दो।'- रतनसिंहजीने पत्नी के आँसू पोंछ उसे पलंग पर बिठाते हुए कहा- 'तुम यह क्यों नहीं देखती कि दाता हुकम भले उसकी शिक्षाके हजार प्रबन्ध करें, यदि मीराकी रुचि न होती तो क्या वह कुछ सीखती? स्थिति यह है कि उसकी प्रगतिसे उसके गुरु बहुत संतुष्ट हैं। वह क्यों नहीं अन्य बच्चोंके साथ खेलती? क्यों नहीं दूसरी लड़कियोंकी भाँति स्त्रियोंके झुंडमें बैठकर उनकी शृंगारिक बातें सुनती? क्यों वह अपने रहन सहनकी ओरसे उदासीन है? इसीलिये कि वह उन सबसे भिन्न है। दाता हुकम नासमझ नहीं हैं कि उसकी शिक्षाका ऐसा उल्टा प्रबन्ध करें। बड़े दादोसा (बड़े भाई) और बिचले दादोसाकी बेटियाँ नहीं हैं क्या? उन्हें तो दाता हुकम न

मीरा चरित 6

मीरा चरित  भाग -6 वहाँ जाकर झरोखेमें लकड़ीकी चौकी सीधी करके और उस पर अपनी नयी ओढ़नी बिछा करके ठाकुरजी को विराजमान कर दिया। थोड़ी दूर बैठकर वह उन्हें निहारने लगी। रह-रह करके आँखोंसे आँसू निकल पड़ते। आजकी इस उपलब्धिके सम्मुख मीराके लिये सारा जगत् तुच्छ हो गया। जो अब तक अपने थे, वे सब सामान्य या पराये हो गये और आज आया हुआ यह नन्हा-सा मुस्कुराता पाहुना ऐसा अपना हुआ, जैसा अबतक कोई न था। सारी हँसी-खुशी, खेल-तमाशे, नाच-गाना, पहनना ओढ़ना सब कुछ इसपर न्यौछावर हो गया। हृदयमें जैसे हर्षकी सीर खुल गयी और उत्साह जैसे उफना पड़ रहा था—"क्या करूँ इसके लिये, जिससे यह प्रसन्न हो, इसे सुख मिले।" "अहा, कैसे देख रहा है मेरी ओर? अरे भूल हुई; तुम भगवान् हो, तू, तू कर गयी मैं। अहा कितने अच्छे हैं आप, कितनी कृपा की कि उन संतके पाससे मेरे पास चले आये। मुझे तो कुछ आता ही नहीं; कुछ भूल हो जाय तो रूठना नहीं हो। बता देना कि ऐसा नहीं, वैसा। फिर भूल नहीं होगी, कभी न होगी। उन महात्माकी याद तो नहीं आ रही? आती तो होगी ही। न जाने कबसे उनके साथ रह रहे थे। वे तो तुम्हें मुझे देते हुए रो ही पड़े थे। मैं तुम्ह

मीरा चरित 5

मीरा चरित  भाग -5 कृष्णभक्त संत द्वारा प्रदत्त ठाकुर जी ... एक बार ऐसे ही मीरा राज महल में ठहरे एक संत के समीप प्रातः काल जा पहुंची। वे उस समय अपने ठाकुर जी की पूजा कर रहे थे। मीरा उन्हें प्रणाम करके कुछ दूर बैठकर देखने लगी। महात्मा जी ने पूजा करके भोग लगाया और मीरा को प्रसाद देते हुए पूछा "क्या नाम है बेटी?"  "मेरा नाम मीरा है बावजी! आप यह सब क्या कर रहे थे?" "मैं पूजा कर रहा था ठाकुर जी की।"  "यही ठाकुर जी हैं हमारे? मंदिर में तो बहुत बड़े हैं ठाकुर जी। यह छोटे ठाकुर जी कौन से हैं?"  मीरा ने कहा  "मैं श्री कृष्ण की पूजा करता हूँ। यह मूर्ति भगवान श्री कृष्ण का प्रतीक है। प्रतीक तो छोटा बड़ा कैसा भी बनाया जा सकता है बेटी।" "क्या यही भगवान है महाराज अथवा यह भगवान नहीं है, मैं समझी नहीं?" ‘बेटी भगवान तो सर्वत्र है। वह इस मूर्ति में भी है। जो सर्वत्र है उसका अपनी रूचि के अनुसार कैसा भी प्रतीक बनाकर श्रद्धा अर्पित की जा सकती है। जो सर्वत्र है महाराज, उसकी पूजा भी तो सब कहीं की जा सकती है। केवल किसी प्रतीक विशेष में ही पूजा का आग्र

मीरा चरित 4

मीरा चरित  भाग -4 कठिनाई उस समय हुई जब बड़ी बहन गुलाब कुँवर बाईसा ने कहा- "मुंह खोलो भाई, बेटी के बाप बने हो। चलो मुहँ मीठा करो।"  लज्जा के मारे रतन सिंह का सिर झुक गया। वह बहिन की अवज्ञा करके न वहाँ से जा सकते थे और न ही मुँह खोल कर उनके हाथ की मिठाई खाते बनता था।  "ऐ भाई मेरी ओर देखो तो"  बहन ने कहा "मेरी भतीजी इतनी सुंदर है कि क्या बताऊं? ऐसे देखती है सब की ओर जैसे बड़ी उम्र के समझदार लोग देखते हैं एक और बात बताऊँ, यह बात अभी हम सब ने रनिवास के बाहर नहीं निकलने दी है। कन्या के जन्म के समय अपने आप काँसे का थाल बज उठा। है न आश्चर्य की बात? अब तुम मुँह खोलो। व्यर्थ नखरे ना करो।" "जीजा (बड़ी बहन का संबोधन) लाइए, आपके पधारने की बधाई में मुझे किसी ने मुँह मीठा नहीं कराया। अब आप ही बख्श दीजिए।"  उन्होंने चतुराई से बात बदल कर हाथ फैला दिया- "किंतु जीजा पहला हक मेरा है। आज्ञा हो तो मैं पहल करूं?"  उन्होंने बहिन के हाथ में थामी तस्तरी से मिठाई उठाकर उनके मुख में देकर पुनः अपनी हथेली फैला दी। "ऊँ, हूँ, ऐसे नहीं छूट पाओगे। मुँह खोलो।"

मीरा चरित 3

मीरा चरित  भाग -3 राव जयमल की तीन रानियां थीं। इनमें से दो राजकुमारी और सोलह राजकुमार हुए। पांचवे पुत्र मुकंद दास उनके उत्तराधिकारी हुए। ये खंडेला के निर्वाण राजा केशव दास के दोहित्र थे। इनका विवाह चित्तौड़ के महाराणा और मीराबाई के देवर रतन सिंह की पुत्री श्यामकुँवरी बाईसा से हुआ। इनकी चार रानियां थी। ये ही मेड़तिया राठौड़ की जयमलोत शाखा के पाटवी हुए। मुकुंद दास के पुत्र माधोमनदास उनके पुत्र सांवलदास और सांवलदास के पांचवे पुत्र अमर सिंह को मोड़का निंबाहेड़ा की जागीर मिली।  राजघरानों के रिवाज के अनुसार मीराबाई को अपने ससुर महाराणा साँगा से प्रथम प्रणाम के उपलक्ष में पुर और मांडल परगने की भूमि हाथ खर्च के लिए मिली थी। इनमें से 2000 बीघा सिंचित भूमि उन्होंने अपने मायके से साथ आये श्री गजाधर जोशी को निर्वाह के लिए प्रदान की थी। राजपूत परिवारों में बहू का नाम लेने की प्रथा नहीं थी। उसके मायके की शाखा से उसे संबोधित किया जाता था जैसे मेड़तणी जी, राणावत जी, पुंवार जी, शक्तावत जी, चुंडावत जी, भटियाणी जी आदि।  मीराबाई को भी मेड़तणी जी ही कहा जाता था। उनके भजनों में उनके नाम की छाप लगने के कारण

मीरा चरित 2

मीरा चरित  भाग -2 राव दूदा की संतति....... राव दूदा के पांच पुत्र हुए- वीरमदेव, रायमल, रायसल, रतनसिंह और पंचायण। (१) राव वीरमदेव:- राव दूदा की मृत्यु के पश्चात राव वीरमदेव मेड़ता की गद्दी पर आसीन हुए। इनका विवाह महाराणा सांगा की बहिन और महाराणा रायमल की पुत्री गिरिजा के साथ हुआ था। यह इनका तीसरा विवाह था। पहला विवाह निबरवाड़ा के चालुक्य वंशीय राणा केशवदास की पुत्री राजकुमारी कल्याण कुँवरी के साथ हुआ था। दूसरा विवाह बीसलपुर के राव फतहसिंह चालुक्य की पुत्री गंगकुँवरी से हुआ था। चौथा विवाह कालवाड़ के महाराज कछवाहा किशनदास की पुत्री मान कुँवरी से हुआ। इनके तीन राजकुमारी और तेरह राजकुमार हुए।  पुत्री:- श्याम कुमारी, इनका विवाह मदारिया के रावत सांगा के साथ हुआ फूल कुँवरी:-  इनका विवाह आमेट के सुविख्यात वीर फत्ता जी के साथ हुआ। अभय कुँवरी:-  इनका विवाह गंगरार के राव राय देव चौहान के साथ हुआ।  पुत्र:-  जयमल, ईश्वरदास, जगमाल, चांदा, करण, अचल, बीका, पृथ्वीराज, सारंगदेव, प्रताप सिंह, मांडण, सेरवा और खेमकरण। इनमें मांडण, सेरवा, करण, अचल, बीका इनके विषय में इतिहास चुप है। संभवतः इनमें किसी की मृत्यु ब

मीरा चरित 1

इस जीवन चरित में तथ्यों का वर्णन ऐसे है जो अन्तर को भाव विभोर बना देते हैं।हृदयस्पर्शी वर्णन की सरसता को देखकर सहज अनुमान होता है कि इस वर्णन के पीछे मीराबाई के अनन्याराध्य श्री गिरधर गोपाल की कोई विशिष्ट योजना है।वर्णन की उत्कृष्टता ही एक सुगुप्त संकेत देती है कि मीराबाई के जीवन चरित की इस कृति में तथ्यों का जो वर्णन प्रतुत हुआ है वह सर्वाराध्य श्रीगिरधर गोपाल के द्वारा ही है।अपनी परमप्रेमास्पदा मीराबाई के महान जीवनोतसर्ग की रसमय गरिमा को उजागर करने के लिए उन सर्व प्रेरक गिरधर गोपाल ने माध्यम बनाया परम श्रद्धामयी सौभाग्य कुँवरी राणावत को। मीरा चरित भाग- 1 मेड़ता का राठौड़ राजवंश...... भारत का एक प्रांत है राजस्थान। इसी राजस्थान का एक क्षेत्र है मारवाड़ जो प्रसिद्ध है अपने वासियों की शुरता, उदारता, सरलता और भक्ति के लिए। राठौड़ राजपूतों का शासन रहा है इस भूभाग पर। मारवाड़ के राठौड़ों के मूल पुरुष राम "सिंहा" बड़े प्रतापी हुए। उन्होंने पाली में रहकर उपद्रवी "मेर" लोगों से ब्राह्मणों की रक्षा का भार अपने ऊपर ले लिया था। दूर-दूर तक उनकी प्रसिद्धि फैली और अंत में पाली के