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Showing posts from July, 2021

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।।श्रीहरिः।। सखाओं का कन्हैया (ठाकुर श्रीसुदर्शनसिंहजी 'चक्र') ----------------------------------------                 7. गायक          श्याम गा रहा है–अस्फुट स्वर में कुछ गा रहा है। गुनगुना रहा है, कहना चाहिये।          वृन्दावनका संघन भाग–अधिकांश वृक्ष फल-भार से झुके हैं और उन पर हरित पुष्पगुच्छों से लदी लताएँ चढ़ी लहरा रही हैं। भूमि कोमल तृणों से मृदुल, हरी हो रही है।          वृक्षों पर कपि हैं और अनेक प्रकार के पक्षी हैं। पूरे वन के कपि और पक्षी मानो यहीं एकत्र हो गये हैं; किन्तु इस समय न कपि कूदते- उछलते हैं, न पक्षी बोलते हैं। सब शान्त-निस्तब्ध बैठे हैं। एक भ्रमर तक तो गुनगुनाता नहीं; क्योंकि श्याम गा रहा है।          गायें-सहस्रों गायें, अनेक रंगों की गायें हैं, जो प्रायः छोटी हथिनियों जैसी बड़ी हैं, स्वस्थ हैं, मोटी हैं, भारी अयान हैं उनके और सचल पर्वत जैसे वृषभ हैं, छोटे-बड़े बछड़े-बछड़ियाँ हैं। सबके सींग सजे हैं। सबके गले में अनेक रंगों की मणियों की मालाएँ हैं। सब दूर तक फैले चरने में लगे हैं। केवल कुछ बछड़े और बछड़ियाँ कभी-कभी कूदती-फुदकती हैं और बालकों के पास आकर

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।।श्रीहरिः।।  सखाओं का कन्हैया (ठाकुर श्रीसुदर्शनसिंहजी 'चक्र') ----------------------------------------            (6). न्यायशास्त्री           'अरे, तूने फिर ये कपि एकत्र कर लिये ?' माँ रोहिणी जानती हैं कि इस नीलमणि के संकेत करते ही कपि ऊपर से प्रांगण में उतर आते हैं। उन्हें डर लगता है, कपि चपल होते हैं और यह कृष्णचन्द्र बहुत सुकुमार है। यह भी कम चपल नहीं है। चाहे जब कपियों के बच्चों को उठाने लगता है। उस दिन मोटे भारी कपि के कन्धे पर ही चढ़ने लगा था। कपि चाहे जितना इसे मानें, अन्तः पशु ही हैं। वे इसे गिरा दे सकते हैं।           माता बार-बार मना करती हैं कि–'कपियों को प्रांगण में मत बुलाया कर ! मैं इनके लिए भवन के ऊपर रोटी फेंक दिया करूँगी।' लेकिन श्याम मानता नहीं है। माता और मैया यशोदा के तनिक हटते ही हाथ हिलाकर कपियों को बुला लेता है।           ये कपि भी तो कहीं जाते नहीं हैं। पता नहीं कब की कन्हाई से इनकी मित्रता है। रात्रि में भी नन्द भवन के ऊपर अथवा आसपास ही रहेंगे। प्रात:काल होते ही उछल-कूद करने लगते हैं। श्याम के साथ लगे फिरते हैं। यह कही जाय तो सब इसके

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।।श्रीहरिः।। सखाओं का कन्हैया (ठाकुर श्रीसुदर्शनसिंहजी 'चक्र') ----------------------------------------              (5). भोला           'कनूँ ! खूब मधुर, बहुत स्वादिष्ट पायस है।' भद्र अपने सम्मुख केशर पड़ा सुरभित पायस से परिपूर्ण पात्र लिये बैठा है। 'तू खायेगा ?'           'खाऊँगा !' कोई स्नेह से बुलावे तो ब्रजराजकुमार भोग लगाने न आ बैठे ऐसा नहीं हो सकता। अब श्यामसुन्दर भद्र के समीप आकर बैठ गया है।           श्याम और भद्र दोनों बालक हैं। दोनों लगभग समान वय के हैं। इन्दीवर सुन्दर कन्हाई और गोधूम गौर भद्रसेन। दोनों की कटि में पीली कछनी है; किन्तु कृष्ण के कन्धे पर पीताम्बर पटुका है, भद्र का पटुका नीला है। दोनों के पैरों में नूपुर हैं, कटि में स्वर्ण मेखला है, करों में कंकण, भुजाओं में अंगद हैं। कौस्तुभ तो केबल कृष्णचन्द्र का कण्ठाभरण है, जैसे श्रीवत्स इसी के वक्ष का चिन्ह है; किन्तु मुक्तामाल, गुञ्जामाल दोनों ने पहन रखी हैं। दोनों के बड़े-बड़े नेत्र अञ्जन-रञ्जित हैं। दोनों के भाल पर गोरोचन-तिलक है। दोनों की अलकें तैल-सिक्त हैं और यदि श्याम की अलकों में मै

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।।श्रीहरिः।।  सखाओं का कन्हैया (ठाकुर श्रीसुदर्शनसिंहजी 'चक्र') ----------------------------------------                                               ३-सचिन्त           भद्र ! बाबा, भद्र कहाँ है ?' ऐसा तो कभी नही हुआ कि श्याम गोदोहन करने गोष्ठ में आ जाय और भद्र उसे दोहिनी लिये न मिले। आज भद्र कहाँ गया ? कन्हाई ने भद्र को इधर उधर देखा, पुकारा और फिर अपने दाहिने हाथ की दोहनी बांयें हाथ में लेते हुए बाबा के समीप दौड़ गया।           राम-श्याम दोनों भाई प्रातःकाल उठते ही मुख धोकर पहिले गो-दोहन करने गोष्ठ में आते हैं। प्रातःकृत्य गोदोहन के पश्चात् होता हैं। बाबा के साथ ही भद्र सोता है। उनके साथ ही दोहनी लिये सबेरे दोनों भाइयों को गोष्ठ में मिलता है। लेकिन आज वह दीखता नहीं है।           'तुम आ गये ?' बाबा ने भुजाएँ बढ़ाकर श्याम को अंक में लेना चाहा। उन्हें प्रतीक्षा करनी पड़ती है इन बालकों के आने की। ये दोनों न आवें तो गायें हुंकार करती रहेंगी और दूध दुहने नहीं देंगी। दोनों के गोष्ठ में आते ही सब बैठी गायें, वृषभ, बछड़े खड़े हो गये हैं। गायें हुंकार करने लगी हैं और थोड़ी

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।।श्रीहरिः।। सखाओं का कन्हैया ( ठाकुर श्रीसुदर्शनसिंहजी 'चक्र') ----------------------------------------          (4) अपनों का ही             'सुना कि कोई बहुत बड़ा मल्ल आने वाला है।' गोपियों को गोपों को, सबको ही कोई बात, कोई बहाना चाहिये जिससे नन्दनन्दन उनके समीप दो क्षण अधिक ठहरे। यह चपल कहीं टिकता नहीं, इसलिए इस गोपी ने कोई बात निकाली है।           'मल्ल ? मल्ल तो अपना विशाल दादा है।' कन्हाई को ऐसी कोई विशेषता नहीं ज्ञात जो उसके सखाओं में उसे न दीखे। संसार में कहीं और कुछ भी विशिष्ट गुण-कर्म किसी में सम्भव है, यह बात यह सोचना ही नहीं चाहता।           'एक बड़े भारी तपस्वी भी आज महर्षि शाण्डिल्य के आश्रम में आने वाले हैं। श्यामसुन्दर की रुचि मल्ल में नहीं है तो गोपी को कोई और समाचार सोचना ही चाहिये।           'तू जाकर मैया को बतला दे!' नन्दनन्दन स्वयं क्या करे तपस्वी का। मैया बाबा को कह देगी। बाबा जाकर उनका सत्कार कर आवेगे अथवा मैया उन्हें भवन में बुलाबेगी तो वह भी प्रणाम कर लेगा।           'तू कहाँ जा रहा है ?' गोपी ने पूछा।           वरूथप

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।।श्रीहरिः।। सखाओं का कन्हैया (ठाकुर श्रीसुदर्शनसिंहजी 'चक्र') ----------------------------------------        (2)-उलझन में           राम श्याम दोनों आकर द्वार के बाहर खड़े ही हुए थे कि एक तितली कहीं से उड़ती आयी और दाऊ की अलकों पर बैठ गयी। कन्हाई यह कैसे सहन कर लें कि यह क्षुद्र प्राणी उसके अग्रज के सिर पर ही बैठे; किन्तु तितली को हटाने के लिए हाथ बढ़ाया तो वह अलकों से उड़कर इसके दाहिने हाथ की नन्हीं मध्यमा अँगुली पर ही आ बैठी। इतनी सुकुमार, इतनी अरुण अँगुली– तितली को बैठने के लिए इससे अधिक मृदुल, सुन्दर सुरभित कुसुम भला कहाँ मिलने वाला है।           अब श्याम उलझन में पड़ गया है। वह अपनी अँगुली पर बैठी इस छोटी पीली तितली का क्या करे ? बड़े भाई की ओर हाथ बढ़ाकर दिखलाता है कि दादा इसे भगा दे यहाँ से।           दाऊ का काम–इनका स्वभाव तो श्याम के समीप से प्राणियों को भगाना नहीं है। ये तो अपने छोटे भाई तक प्राणियों को पहुँचाने वाले हैं। तितली को भगाना तो दूर रहा, अनुज की अँगुली पर बैठा यह नन्हा प्राणी उन्हें बहुत प्रिय लगा है। ये तो ताली बजाकर सिर हिलाकर हँसने लगे हैं।           कन

सखाओं के कन्हैया 1

।।श्रीहरिः।। सखाओं का कन्हैया (ठाकुर श्रीसुदर्शनसिंहजी 'चक्र') ----------------------------------------    (1)-तन्मय           यह कन्हाई अद्भुत है, जहाँ लगेगा, जिससे लगेगा, उसी में तन्मय हो जायगा और उसे अपने में तन्मय कर लेगा।           श्रुति कहती है-                         'रूपं-रूपं प्रतिरूपो बभूव।'           वह परमात्मा ही जड़-चेतन, पानी-पत्थर, पेड़-पौधे, अग्नि-वायु-आकाश पशु-पक्षी, कीड़े-पतंगे, सूर्य, चन्द्र-तारे सब बन गया है, किन्तु मैं उस किसी अलक्ष्य, अगोचर, अचिन्त्य परमात्मा की बात नहीं करता हूँ। मैं करता हूँ इस अपने नटखट नन्हें नन्द-नन्दन की बात। यह केवल स्वयं तन्मय नहीं हो जाता, दूसरे को भी अपनेमें तन्मय कर लेता है|           ऐसा नहीं है कि यह केवल श्रीकीर्तिकुमारी या दाऊ दादा में तन्मय-एकरूप हो जाता हो। यह क्या अपनी वंशी अधरों पर रखता है तो स्वर से कम एकाकार होता है ? अथवा किसी गाय, बछड़े-बछड़ी को दुलराने-पुचकारने लगता है तो इसे अपनी कोई सुध-बुध रहती है। यह सखाओं से ही नहीं, मयूर-मेढ़क-कपि शशक से भी खेल में लगता हो तो तन्मय। गाने में, नाचने में, कूदने में ही

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🌹💙 *सखियों के श्याम* 💙🌹 🌹 *कलधौत के धाम बनाय घने महाराजन के महाराज भये* 🌹  *(27)*  'देवी सूर्यनंदिनी! इतनी उतावली होकर कहाँ जा रही हो?🌹 क्या कहा, मथुरा ? ☺️ अहा, सौभाग्यशालिनी हो श्रीयमुने! क्या श्यामसुन्दरसे मिलने जा रही हो ?☺️  क्या कहा ! इसी कार्यसे जा रही हो?🌹  अच्छा देवी! तुम्हारे चरणों में एक छोटी-सी प्रार्थना है, स्वीकार करोगी? अपने श्यामसुन्दर से मिलो, तो कृपा कर हमारा संदेश उन तक पहुँचा देना।'💙 क्या कहती हो—'मैं अपनी बात कहूँगी कि तुम्हारा संदेश दूँगी ?  वे राजराजेश्वर हैं। उनके पास इतना समय कहाँ कि मेरे पास बैठकर तुम सबका दुःख-सुख सुने। मैं ही कहाँ अधिक समय कहीं रुक पाती हूँ।🌹 चलते-चलते ही जो कुछ कहना है, कह देना होगा।'🌹 'आह! क्या सुन रही हूँ कि श्यामसुन्दरके पास हमारी बात सुननेका समय नहीं! ठीक है, भाग्य ही पलट गया तो उन्हें अथवा तुम्हें दोष दूँ। अभागा मन भी यह सब भाग्य-विधान समझ पाता, तो दुःख ही काहे का था। यह जो नहीं मानता; कहना ही पड़ेगा।' 'श्री यमुने! तुम्हारी ही बात सत्य लगती है। तुम तो उनके दर्शनके लिये नित्य ही मथुरा जाती हो। यदि

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🌹💙 *सखियों के श्याम* 💙🌹 🌹 *कलि में मीरा नाम धरायो* 🌹  *(26)*  अब यह कौन पड़ी है यहाँ! मैं तो स्वयं अपना ताप ठंडा करने आयी थी। सुना है सखियों से कि यहीं गिरिराज जू की पूजा हुई थी और यह निकुञ्ज ! यहीं सखियों ने सखाओं ने मिलकर श्यामसुन्दर और किशोरी जू का विवाह रचाया था। 🌹लीला स्थलियोंके दर्शनकर इस रजसे स्नानकर स्वयंको कृतार्थ कर लूँ। यहाँ वासका सौभाग्य भी मिला तो कब-जब मनमीत चले गये छोड़ कर रे मन; अपना क्या है! जिन्होंने पाकर खोया है वे धनी हैं, किंतु तू ! तूने खोया क्या और पाया क्या? नहीं मैंने तो पाया ही पाया है मैं इस व्रजकी नहीं; अतः उनके दर्शनका धन भी अयाचित ही पा गयी—पा उनकी असीम-अमित महिमाका ज्ञान। उसी भाँति भिक्षुककी झोलीमें अकस्मात ही आ गिरी किसी स्वर्णमुद्राकी भाँति ! पा गयी उनके पावन चरणोंका नेह। सब कुछ उनकी कृपा ही कृपा है।🌹 मैयाने बहुत बार हठ किया, ऊँच-नीच समझाया। यहीं इसी व्रजमें विवाह कर देने की बात भी कही; किंतु मेरी 'न' के आगे हार गयी। मैया स्वर्ग सिधारी तो भैया-भाभीसे आज्ञा ले जीजीके पास आ गयी। आकर जो कुछ देखा, सब कुछ जैसे उजड़ गया है। फिर भी यह वृंदावन ह

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🌹💙 *सखियों के श्याम* 💙🌹 🌹 *कहा कहूँ कुछ कहत न आवे* 🌹  *( 33 )*  *(अंतिम भाग)*  'उधो जू! तुम चाहे कुछ कहो, तुम्हारे ये उपदेश हमारी समझ से परे हैं।' ललिता जू ने कहा- 'जो उनके मुख नहीं होता तो वे हमारे घर का माखन बरबस चुरा चुराकर कैसे खाते ? पाँव नहीं है तो गायों के संग कौन वन वन भागा फिरता था ? आँखें नहीं तो जिन आँखों में काजल आँजा करती थी मैया, वे क्या थी? बिना हाथ गोबर्धन उठाया वह हाथ किसके थे ? बिना मुख के कैसे बाँसुरी बजायी ? आह, सामने बीता है और तुम उस झुठलाना चाहते हो ? उनकी लीलायें, उनका स्वर, उनका रूप सब कुछ हमारे रोम-रोम में बस गया है; वह सब झूठ था ? हमारा भ्रम था ? नहीं उधोजू! वह नंद यशोदा के पुत्र और हमारे व्रज के नाथ हैं। तुम कैसे भी बनाकर कहो यह बात कभी हमारे गले नहीं उतरेगी। "अरी सखी! यामें ऊधो जू कहा करें बिचारे, इन्हें तो उन चतुर सिरोमणि ने सिखाकर भेजा है। ये तो शुक की भाँति सीखा हुआ ही बोल रहे हैं।'—एक सखी ने कहा। 'तुम कहते हो 'गुण-ही-गुण में बरतते हैं, वे गुण रहित है।' श्रुति बोली- ' तो कहो श्याम सखा ! गुण आये ही कहाँ से ? भला

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🌹💙 *सखियों के श्याम* 💙🌹 🌹 *सो सुख नहीं जात कह्यो* 🌹  *(32)*  'यह देखो यह नहीं महाभाग्यवान यमुना पुलिन है, जहाँ शत सहस गोपकुमारिकाओं के साथ श्यामसुन्दर ने 'महाराम' किया था। वह सब अकथनीय है उद्धव गगन में विमानों की भीड़ लग गयी थी उनमें विराजित देववृंदों द्वारा बरसाये गये पुष्पों के पराग से हमारे चरण रंजित सुरभित हो उठे थे हमारे सौभाग्य की वह पराकाष्ठा, हमारे सुललित गान से धरा और नभ गूँज उठे थे। देववृंद हमारे कंठों का साथ दे रहे थे श्यामसुंदर कभी वंशीनाद से हमारा साथ देते और कभी उच्च स्वर से आलाप भरते उनका वह नृत्य हममें से कोई भी ऐसी नहीं थी, जिसे वे अपने समीप न जान पड़े हो।' 'यहाँ, इसी स्थलपर नृत्य करते करते थककर मैंने अपने कंधेपर रखी उनकी भुजापर श्रमजलसे भीगा कपोल रख दिया था और उन्होंने दूसरा हाथ बढ़ा उसे पोंछकर अपनी अञ्जली में मेरा मुख भर लिया था।' 'उद्धव जिन्हें तुम परात्पर कहते हो; वे हमारे लिये इस व्रजके लिये तनिक भी 'पर' नहीं थे। वे सबके अपने और सम्पूर्ण ब्रज उनका हमारे लिये वे छोटे से छोटा काम करने में भी नहीं सकुचाते और हम उनसे कैसा भी का

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🌹💙 सखियों के श्याम 💙🌹 🌹  *ऐसी फाँस गड़ी हिय माँहि, ना निकसे ना चैन पड़े*  🌹  *( 31 )*   'री पद्मा, कछु सुनी तैने ! चम्पा आयी है। वसुधा ने कहा 'सच: कब आयी! तूने देखा?' पद्मा ने उत्सुकता से कहा; फिर उसाँस भरकर बोली- 'अब क्या देखने को आयी अभागी.... चल मैं भी मिल लूँ उससे ।' पाटला के घर पहुँच एक दूसरे को देखते ही दोनों लिपट गयी; मुख से वाणी नहीं फूटी, कंठ रुद्ध और आँखें छलछला उठी। 'भाभी! मैं लिवा ले जाऊँ चम्पा को ?'– पद्मा ने पूछा 'वह तो आयी ही तेरे लिये है। किंतु बलि जाऊँ, तनिक दोनों बैठकर मुख जुठार लो।'– पाटला ने मनुहार की । 'अच्छा भाभी ला दे! जो कुछ हो सो खाय लें।' खा पीकर दोनों सखियाँ यमुना तट पर जा बैठीं। 'अब कैसे आयी चम्पा! व्रज में अब बचा ही क्या है देखने को ?' पद्मा ने पूंछा। 'जीजी! सब सुन लिया है, किंतु मेरे लिये तो यह व्रजरज ही निधि है ! आप सबके और लीला स्थलियों के दर्शन कुछ कम है ?" 'किंतु व्रज का महोत्सव - नित्य महोत्सवमय ब्रज दावानल दग्ध विपिन हो गया है बहिन!' – पद्मा रोती हुई चम्पा की गोदमें गिर पड़ी। &#

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🌹💙 *सखियों के श्याम* 💙🌹 🌹 *को आराधे ईस* 🌹  *(30)*  'क्या?" 'क्या कहते हो उद्धव! यह संदेश श्यामसुंदर ने हमारे लिये भेजा है?' 'सखी! सम्भवतः ये कहीं अन्य स्थान पर जाते-जाते इधर व्रज में पथ भूलकर आ गये लगते हैं। अन्यथा यहाँ कौन योग-वोग की बात जानता समझता है भला?' – इन्दुलेखा जीजी ने कहा । 'अरी बहिन! न हो कि पहले बहुत से साधु-बाबा जमना किनारे आ आकर बसते थे न ! उन्हींके लिये यह संदेश होगा। उद्धव बेचारे बौराय गये, शीघ्रता में संदेश ले दौड़ पड़े। किसको क्या कहना, यह न समझ पाये!' 'किन्तु अब इस संदेशका क्या होगा बहिन! बाबा लोग तो अब टिकते नहीं; आते तो हैं, पर कोई एकाध दिन में ही मथुरा की ओर मुँह उठाये चल पड़ते हैं। यह संदेश किसे जाकर सुनायें उद्धव ?' चित्रा की बात सुन रमा बोली-'सम्भव हो कि महर्षि शाण्डिल्य के आश्रम में इधर कोई योगी आये हों! हमारे श्याम जू तो सभी विद्याओं में पारंगत है; जब उद्धव व्रज जा ही रहे हैं, तो उन योगीराज के लिये भी कोई संदेश पठाय दिया। ए प्रिया! इन्हें तनिक महर्षि के आश्रम का पथ दिखा दे, जाकर कह आयें।' 'किन्तु सखी

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🌹💙 *सखियों के श्यामा* 💙🌹 🌹 *वे दिन अब दुःख देत* 🌹  *(29)*  'तुम्हीं धीरज त्याग दोगे तो कैसे चलेगा भैया ! सुना है कि तुम स्वेच्छा से बालक-रूप बने रहते हो, अथाह ज्ञानी हो। तुम धैर्य धारण करो और इन सबको सम्हालो ।'-  कदम्ब तले आँसू ढरकाते तड़फड़ा रहे मधुमंगल का सिर गोद में लेकर केशों को सहलाते हुए मैंने कहा । आयी थी अपनी पीर भुलाने; किंतु यहाँ सबको अर्धमृत पड़े देख, पीड़ा का सागर ही मानो हृदय में उमड़ आया।  'रूपा ! बहिन, मैं क्या करूँ, कहाँ जाऊँ ?  आह, श्यामसुन्द रने यह क्या  किया।'– मधुमंगल ने सिर धुनते हुए कहा ।  सुनकर हृदय में एक हूक उठी- 'आह, सब कुछ बदल गया है। सखा भी मुझे रूप से रूपा कहने लगे हैं।' महा प्रयत्न से तनिक हँसकर कहा- 'रूप नहीं कहेगा अब !' 'एक दिन तूने पूछा था न, कि रूपा से रूप कैसे हो गयी? उस दिन तो मैंने हँसकर तुझे अँगूठा बता दिया था। ले आज बताती हूँ, किन्तु मैं बलिहारी जाऊँ! तनिक जल पी ले मेरे वीर ।' 'नहीं बहिन! अब तो श्यामसुन्दर पिलायेगा तभी पीऊँगा। आह, कन्हैया भैया ! ' 'भैया.....!' – कहकर मैंने उसका सिर धीरे