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Showing posts from 2022

mc 103

मीरा चरित  भाग-103 मीरा को मन ही मन बड़ी ग्लानि हो रही थी कि ऐसा निश्चय वे अब तक क्यों नहीं कर पाईं। कुछ सैनिकों और अपने दल बल सहित तीर्थ यात्रियों के साथ वह वृन्दावन की तरफ़ चल पड़ीं।उनके मुख से शब्द झरने लगे-            चाला वाही देस कहो तो कसूमल साड़ी रँगावाँ, कहो तो भगवा भेस॥ कहो तो मोतियन माँग पुरावाँ, कहो छिटकावा केस॥ मीरा के प्रभु गिरधर नागर, सुणज्यो  बिड़द  नरेस॥ अपने प्रियतम के देश,अपने देश पहुँचने की सोयी हुई लालसा मानों ह्रदय का बाँध तोड़कर गगन छूने लगी। ज्यों-ज्यों वृन्दावन निकट आता जाता था,मीरा के ह्रदय का आवेग अदम्य होता जाता।कठिन प्रयास से वे स्वयं को थामे रहतीं। उसके बड़े-बड़े नेत्रों की पुतलियाँ वन विजन में अपने प्राणाधार की खोज में विकल हो इधर-उधर नेत्र सीमा की मानों परिक्रमा सी करने लगतीं।मीरा बार-बार पालकी, रथ रूकवाकर बिना पदत्राण (खड़ाऊँ) पहने पैदल चलने लगतीं। बड़ी कठिनाई से चम्पा, चमेली केसर आदि उन्हें समझा कर मनुहार कर के यह भय दिखा पाती कि अभ्यास न होने से वह धीरे चल पातीं हैं और इसके फलस्वरूप सब धीरे चलने को बाध्य होतें हैं।मंजिल पर पहुँचने में विलम्ब होने से स

mc 102

मीरा चरित  भाग- 102 उन्होंने एक बार पुन: सबको हाथ जोड़े।अपने नन्हें देवर उदयसिंह को दुलार किया।मन्दिर से मिला कण मात्र प्रसाद अपने मुख में रख थोड़ा उदयसिंह के मुख में दिया। बाकी प्रसाद उसकी धाय पन्ना जो खींचीं राजपूत वधू थी, उसको देते हुये कहा- ‘अपने प्राणों को बंधक रख कर, बड़े से बड़ा मूल्य चुका कर भी इस वट बीज की रक्षा करना। कल यह विशाल घना वृक्ष बनकर मेवाड़ को छाया प्रदान करेगा।’ ब्राह्मणों को दान,सेवकों को पुरस्कार, गरीबों को अन्न वस्त्र दे मीरा पालकी में सवार हुईं।संवत १५९१ में चित्तौड़से अपने को उधेड़ कर वे चित्तौड़ छोड़ चलीं- मानों चित्तौड़ का जीवंत सौभाग्य विदा हो रहा हो।स्त्रियाँ विदाई के गीत गाती हुई कुछ दूर तक चलीं।मीरा ने पालकी रूकवाकर सबको लौटने के कहा।एक बार पुनः प्रणाम करके वे खड़ी हो गईं।दहेज में आये हुये जो लोग यहाँ रसे ने को बाध्य थे, उनकी पीड़ा का पार नहीं था।कलेजा मानों फटा पड़ता था।देह छोड़ प्रण मानों साथ जाने को व्याकुल थे।देह ही कहाँ पीछे रहना चाहती थी, किंतु आज्ञा की मर्यादा, सम्बंधों के नागपाश और दूर तक पहुँचाने जाने से अनिष्ट की आशंका ने पाँव बाँध दिये।महलों क

mc 101

मीरा चरित  भाग- 101 कुछ सेवक सेविकाएँ यहीं से उन्हें मिलीं थीं।उन सबका प्रबंध मीरा ने कर दिया था।यद्यपि अपने मुँह से किसी ने यह नहीं कहा था कि मेड़तणी जी सा अब चित्तौड़ से अंतिम विदा ले रहीं हैं, किंतु फिर भी भीतर बाहर अधिकाँश लोगों को यहलग रहा था कि अब इनकी सवारी चित्तौड़ की ओर मुख नहीं फेरेगी।पहले तो कभी भी इतना सामान नहीं गया था।पहले तो सेवकों की जीविका का प्रबंध करने की आवश्यकता नहीं जान पड़ी थी।यही सोच सोच करके प्रियजनों के प्राण व्याकुल थे।अपनी सभी सासों और गुरूजनों की चरणवन्दना की उन्होंने।धनाबाई जो महाराणा साँगा की रानी, जोधपुर के जोधाजी की पोती और महाराणा रतनसिंह जी की जननी थीं, वे धनाबाई मीरा को ह्रदय से लगा बिलख पड़ीं- ‘बेटा मुझ दुखियारी को तुम भी छोड़ चलीं।मेरा तो तुमसे पीहर ससुराल दोनों ओर से सम्बंध है।सास समझो या बुआ, इस पति पुत्र विहीना को भूल मत जाना।अब मैं किसके आसरे दिन काटूँगी।कभी घड़ी दो घड़ी बैठ कर तुम्हारा बात सुनती तो हृदय की जलन ठंडी होती थी।अब किसका मुँह देखकर जीऊँगी।कौन मुझ दु:खिनी को धीरज देगा।’ मीरा ने धनाबाई के आँसू पोंछकर पुन: पैरों में सिर रखा- ‘हम सबके स

mc 100

मीरा चरित  भाग- 100 सभी ब्राह्मण अभ्यागत जीम चुके? सभी महलों में थाल पहुँचाये? ड्योढ़ी पर सबको प्रसाद मिला?’- उन्होंने श्याम कुँवर से पूछा। ‘हाँ बड़ा हुकुम सब हो गया।अब आप आरोग लें तो अटाले में बैठे स्त्री पुरुष सब खायें।वह कुकुमड़ी बैठी है, उसे क्या आज्ञा है?’- कहकर श्याम कुँवर बाईसा ने उदयकुँवर बाईसा के चरणों में धोक दी- ‘आप कब पधारी भुवाजी सा?’ ‘जब मेरे यहाँ प्रसाद पहुँचा तो सोचा यहाँ बैठकर खाने में क्या मजा है।भाभी म्हाँरा के पास ही बैठ कर उनके हाथ से प्रसाद पाने में जो आनन्द है उसे क्यों छोड़ दूँ।’ ‘मैं तो भूल ही गई, ऐ केसर देख तो जोशीजी यहीं हैं कि पधार गये’- मीरा ने पूछा। ‘नहीं हुकुम वे दान की सामग्री समेटकर बाँधा बूँधी कर रहे हैं’- केसर ने अर्ज की। ‘श्याम कुँवर, तुम कुमकुम को लेकर आओ।मैं मंदिर जा रही हूँ।आप भी पधारो बाईसा’- मीरा ने कहा और उदयकुँवर बाईसा का हाथ थामकर चल पड़ी। ‘कौन कुमकुम भाभी म्हाँरा? क्या हुआ उसे?’- उदयकुँवर बाईसा ने चलते हुये पूछा। ‘अभी तक तो कुछ नहीं हुआ था, अब होगा।’- मंदिर में प्रवेश करते हुये मीरा ने कहा। तब तक कुमकुम को लेकर श्याम कुँवर बाईसा आ हईं।उसे जो

mc 99

मीरा चरित  भाग- 99 जब कुमकुम को चेत आया तो एक बार उसने भयपूर्ण दृष्टि से सबकी ओर देखा।सबकी नजरों से झरती हुई उपेक्षा को देखकर वह एकाएक मीरा के चरणों में सिर रखकर रो पड़ी- ‘मैं कुछ नहीं जानती अन्नदाता।मैं निर्दोष हूँ।मैं आपकी गाय हूँ, दया करावें।’ ‘तुझे यह छाब किसने दी और क्या कहा तुझे?’- श्याम कुँवर बाईसा ने तनिक कठोर स्वर में पूछा। ‘मैं उसे नहीं पहचानती बाईसा हुकुम’- कुमकुम रोते हुये बोली- ‘मुझे तो ड्योढ़ी पर एक आदमी ने यह छाब पकड़ाई और कहा कि श्री जी ने बड़ी कुँवराणीसा के यहाँ शालिग्राम जी और फूल भेजे हैं सो रख आ।मैं तो अपनी भाभी से मिलने गई थी।वह आदमी उसी को छाब दे रहा था।मैनें आगे बढ़ कर अपने दुर्भाग्य को न्यौता दिया।भाभी का पाँव भारी है।यह सोचकर मैनें कहा कि मुझे दे दो, मैं पहुँचा आऊँ।उस व्यक्ति ने मेरा नाम और स्थान पूछा और कहा कि मेड़तणी जी साको नजर करना।किसी और को मत दे देना।मैनें स्वीकृति दी और लेकर चल पड़ी।बहुत समय से मन में हुजूर के दर्शन की लालसा थी।तरह तरह के मंसूबे बाँधती आ रही थी’- कुमकुम का गला भर आया, वाणी अवरूद्ध हो गई।एक क्षण रूक कर वह भरे कंठ से कहने लगी-‘मैं क्या जा

mc 98

मीरा चरित भाग- 98 उन पर सिर रखने का प्रयत्न करते हुये आँसू से भीगी अटकती वाणी में बोले- ‘तुम धन्य हो, धन्य हो।मैं बड़ा पापी..... पामर....हूँ’ बुजीसा हुकुम पर जैसे गाज गिर पड़ी, उन्होंने तो अपने पैर छुड़ाते ही कक्ष में घुसकर द्वार बंद कर लिया। ‘अरे, बड़ा हुकुम, यह क्या हुआ आपको?’- मीरा की अद्भुत भावमयी स्थिति देख कर श्याम कुँवर बाईसा के मुख से निकला।उन्होंने देखा कि बड़ा हुकुम का सर्वांग काँप रहा है और साथ ही पसीने की धाराओं से वस्त्र भीग गये हैं।नेत्रों से गंगा जमुना बह रही है। साँप का पिटारा..... ‘श्रीजी ने आपके लिए शालिग्राम जी और फूलों की माला भिजवाई है हुकम’- तीसेक बरस की एक दासी ने आकर पूजा करती मीरा के सामने एक बड़ी सी बाँस की बनी हुई छाब रखी।यह छाब बाँस की बनी खड़े किनारे की थाली जैसी थी, जिसके ऊपर वैसा ही ढक्कन भी था। ‘शालिगराम कौन लाया? कोई पशुपतिनाथ या मुक्तिनाथ के दर्शन करके आया है क्या?’- मीरा ने अपने सदा के मीठे स्वर में पूछा।एक नजर से छाब को और उसे लाने वाली को देखकर मीरा पुन: अपने काम में लग गई। ‘मुझे नहीं मालूम अन्नदाता, मुझे जो हुकम हुआ, उसे पालन के लिए मैं हाजिर हुई ह

mc 97

मीरा चरित  भाग- 97 बहुत अनुरोध करने पर वे मेड़ता के राजमहल में पधारे और प्रार्थना स्वीकार कर हुकुम को दीक्षा देकर शिष्य स्वीकार किया। ‘सचमुच भाई ने दीक्षा ली?’- मीरा ने प्रसन्न होकर पूछा। ‘हाँ हुकुम, दीक्षा देकर उन्होंने कहा कि आज से तुम संतबंधु हुये।कभी किसी संत की हँसी और उपेक्षा मत करना।उस दिन से कुँवर सा हुकुम सचमुच के संतों के बंधु हो गये हैं।संतों का मान तो वहाँ पहले भी होता था, पर वह अन्नदाता हुकुम की इच्छा से होता था।कुँवर सा हुकुम को तो वीरों की बातें और वीरों का साथ सुहाता था।अब तो जैसे गंगा जमुना मिल गईं हों।’- कहकर श्याम कुँवर बाईसा ने अपनी बड़ी माँ की ओर देखा। पुत्री को अपनी ओर देखते पाकर उन्होंने हाथ जोड़कर नयन मूँद लिए।पलकों पर ठहरे आँसू ढलक कर गालों पर आ ठहरे।गदगद कंठ से वाणी फूटी- ‘मेरे प्रभु, बड़ी कृपा की मेरे स्वामी कि मेरे भाई को अपना लिया।उसे संत से मिलाया, संत कृपा सुलभ कराई उसे।बड़ी मेहरबानी बड़ी कृपा की प्रभु।’ ‘बहुत अच्छी खबर सुनाई बेटा, क्या दूँ इस बधाई में तुझे मैं?’- भीगी पलकों से और वात्सल्य भरी दृष्टि से श्याम कुँवर बाईसा की ओर देखते हुये मीरा ने कहा।उन्हो

mc96

मीरा चरित  भाग- 96 ‘मुझसे नहीं देखा जाता, नहीं देखा जाता..... नहीं.... देखा जाता....’- श्याम कुँवर के स्वर टूट गये। ‘मेरे साथ पधारो मालकिन।हम उन्हें सचेत करने का प्रयत्न करें’- चमेली उनका हाथ थामकर अपनी स्वामिनी के पास लाई और उनके पास बिठा दिया।श्याम कुँवर बाईसा आँसू भरी आँखों से देखा उनके म्होटा माँ के मुख पर अनिवर्चनीय आनन्द झर रहा है, उनकी देह पुलकित, नेत्र निर्झर और आनन्द की अधिकता से होठ खुल गये हैं।उनके बीच से उनकी सुघड़ स्वच्छ दंत पँक्ति झाँक रही थी।उनकी देह रह रह करके मानों शीताधिक्य से काँप उठती थी।उनकी मुखाकृति ऐसी हो गई थी कि पहचान पाना कठिन था।चमेली गोमती और गंगा को बुला लाई।उदयकुँवर बाईसा, श्याम कुँवर बाईसा अपनी दासियों सहित बैठ कर कीर्तन करने लगीं - ‘मोहन मुकुन्द मुरारे कृष्ण वासुदेव हरे’ दो घड़ी बाद मीरा के पलक-पटल धीरे-धीरे उघड़े किन्तु आनन्द के वेग से पलकें पुनः मुंद जातीं। कीर्तन के स्वर ऊँचे होते गये।उसके साथ ही उनके अंगों में क्रमशः चेतना आती गई।जैसे ही उनके नेत्रों में अपने लिए पहचान पाई श्यामकुँवर बाईसा ने अधीरतापूर्वक अपना मस्तक उनकी गोद में रख दिया। वे आँसू ढारत

mc 95

मीरा चरित  भाग- 95 ‘ए बँदरिया दूर हो’- उन्होंने चिल्लाकर कहा। ‘क्यों तुम्हारे बाप का राज है यहाँ?’- मैने कहा। ‘जरा इधर आ, फिर बताऊँ कि किसका राज है।’ ‘मैं उधर आऊँ, हिम्मत है तो तुम्हीं इधर आ जाओ न।मैं भी देखूँ, कितना दम है तुम में।’  ‘ठहर जा हो तू’- दोनों हाथ की मुट्ठियों में गुलाल भर कर श्याम सुंदर मेरी ओर झपटे, पीछे से सखा भी आये।  ‘अहा, हा बारी जाऊँ ऐसी हिम्मत पर’- मैनें ठहाकर हँसते हुये कहा - ‘सखाओं की फौज लेकर पधार रहें हैं महाराज, मुझसे निपटने ! अरे, तुमसे तो मैं ही अच्छी हूँ जो कि अकेली ललकार रही हूँ। आओ जरा देखें भला कौन जीते और कौन हारे?’ सखाओं को बरज करके वे अकेले ही दौड़े आये।मैं एक-दो पद पीछे हटा और जोश में आ तीव्र गति से दौडे़ते हुये श्याम जू मुझसे लिपट गये।एक हाथ सेमुझे दबाये दूसरे हाथसे गुलाल मेरे मुँह पर ऐसे मलने लगे मानों वह तेल हो, जिसे त्वचा के पार उतारना चाहते हों।मेरे हाथों उनकी पीठ की ओर हो गये उनमें थमी अबीर बिखर गई। अपना मुख बचाने के लिए मैंने उनके कंधे पर धर दिया। ‘ए, मेरा उत्तरीय कहाँ है?’- उन्होंने दूसरे हाथ की गुलाल मेरे गले पीठ पर मलते हुये धीरे से कहा। मुझ

mc 93

मीरा चरित  भाग- 93 ऐसी बात सोच कर आप तनिक भी दु:खी न हों।हमसभीएक ही प्रभु की संतान हैं और उन्हें हमारे भीतर बाहर का सबकुछ पता है।’ उसी दिनसे महाराणा मीरा के यहाँ कुछ न कुछ भेजने लगे।कभी ठाकुरजी के लिए मिठाई, कभी फूल, कभी गहने, कभी जरी के बागे, कभी सोने चाँदी के पूजापात्र।ऐसा लगता था मानों महाराणा अपनी पिछली भूलों का प्रायश्चित करने पर तुल गये हों।तीसरे चौथे दिन वे अभिवादन करने, ठाकुरजी का दर्शन करने आते और अपनी भूलों के लिए बारम्बार क्षमा माँगते। ‘भगवान ने लालजी सा को भले देरसे ही दी, पर सुमति दी, यही मेरे लिए बहुत बड़ी बात है’- मीरा कहती- ‘इसी प्रकार ये उमरावों और प्रजा को प्रसन्न रखें।बस ध्यानपूर्वक राजकाज चलायें और क्या चाहिए?’ सरल हृदय मीरा के विचार भले ऐसे हों किन्तु उनकी दासियों को तनिक भी विश्वास नहीं था।जैसेही महाराणा के सेवक कोई वस्तु लेकर आते, उनका कलेजा भय से दहल जाता।मीरा की बात सुनकर गोमती बोली- ‘भले व्यक्ति को सब भले ही नजर आते हैं हुकुम।पण काँदा ने बारा(प्याज को बारह) बरस घी के गागर में रखें और फिर निकाल कर सूँघें तो उसमें से काँदे की ही दुर्गंध आयेगी।टाट्या री टाट परी ज

mc92

मीरा चरित  भाग- 92 आगे आगे मुकुंद दास जी और प्रताप सिंह जी ने, राजसी वस्त्रों से सजे, कमरबंद में दो दो तलवारें कटारें बाधें, बड़ी बड़ी आँखों में लाल डोरे सजे हुए, मत्त गजराज की सी चाल, केशरी सी शान से मुस्कराते हुये निशंक भाव से राजसभा में प्रवेश किया।ऐसा लगता था मानों वीरता निर्भयता विनम्रता प्रेम औरबल ने मिलकर काका भतीजे का रूप धारण किया हो।चार प्रथम श्रेणी के उमराव, जो अगवानी के लिए गये थे, उनके आस पास चल रहे थे।सिहाँसन के सम्मुख पहुँच कर भँवर मुकुंद दास थोड़ा झुके और हाथ जोड़कर बोले- ‘खम्माधणी’ उनके साथ ही प्रतापसिंह झुके और बोले- ‘अन्नदाता’- जैसे बारी बारी से दो शेर हल्के गरजे हों।महाराणा विक्रमादित्य दोनों से मिले।दोनों ओर से नजर न्यौछावर हुईं।मेड़ता से आई भेंट नजर गुजारी।जरी का सरोपाव, जड़ाऊ तलवार और पाँच घोड़े।राणाजी ने हाथ छू कर सम्मान बक्शा।प्रताप सिंह अपने स्थान उमरावों की प्रथम पंक्ति में पाँचवे स्थान पर संकेत पाकर बैठ गये।मुकुंद दासजी को अलग आसन मिला। ‘पधारो जवाँई सा, बहुत दिनों पश्चात याद आई ससुराल।’ ‘हुजूर कभी स्मरण ही नहीं करते।जब गुरूजन स्मरण नहीं करते तब बालकों को ही

mc 91

मीरा चरित  भाग- 91 यह थोड़ी सी दक्षिणा है। इसे स्वीकार करने की कृपा करें।’- मीरा ने उन्हें भोजन कराकर तथा दक्षिणा देकर विदा किया। पीहर पधारने का उपक्रम...... ‘मीरा का पत्र आया है आज’- वीरमदेव जी ने कुँवर जयमलजी से कहा। ‘क्या हुआ? दीवानजी ने फिर कोई अनीति की क्या? यदि आज्ञा हो तो जीजा हुकुम को सदा के लिए यहाँले आयें।अब वहाँ है कौन, जिसके पीछे दु:ख उठायें वो?’ ‘अनीति के अतिरिक्त दीवानजी को और  आता ही क्या है? साँगा के बेटे ऐसे मतिहीन? अमृबेलपर विष फललगे।भुगतेगें, अपना या कोई भी क्या करेगा? खाँदयो खाँद देवे, लारे तो नी बलै।कहीं युद्ध हो और निमंत्रण भेजें तो जाकर माथों की होड़ लगा दें, किंतु मूरखता की क्या औखद करें।मीरा री भक्ति नी सुहावै तो अठै ले आवैं, पण उमरावों सरदारों का नित उठ अपमान करते हैं, उसका क्या हो? भविष्य की कल्पना करके कलेजा काँप उठता है,पर कोई उपाय नहीं सूझता।इन हिन्दूपति के देश में आन फिरती है और वे अमल(अफीम) भाँग के नशे में मग्न हैं।तुम मीरा को लिवा लाने का प्रबंध करो।बिचले भँवर (मुकुंद दास) और उनकी बीनणी की भी विदाई की तैयारी करो।उनके साथ प्रताप सिंह को सेना लेकर भेजो।इस

mc 90

मीरा चरित  भाग- 90 गंगा दौड़कर कलम कागज ले आई। ‘अभी की अभी’- मीरा ने हँसकर कहा। ‘हाँ हुकुम, शुभ काम में देरी क्यों?’ ‘ला दे, पागल है तू तो।काम कोई अच्छे बुरे थोड़े ही होते हैं।करने वाले के भाव उसे अच्छा बुरा बना देते हैं।’ विक्रमादित्य का मानसिक अनुताप.... ‘नाहर ने मेड़तणी जी सा का स्पर्श भी नहीं किया।वहाँ तो नृसिंह भगवान के पधारने का उत्सव मनाया जा रहा है सरकार।मेड़तणी जी सा ने तो उसकी पूजा की, भोग लगाया और आरती करके प्रणाम भी किया।वह तो पाले कुत्ते की भाँति खड़ा खड़ा पूँछ हिलाता रहा।वापस लौटकर उसने पिंजरा लेजाने वाले को मार डाला।’- यह सुनकर राणाजी को अपने कानों पर विश्वास नहीं आया।कुछ समय के लिए बुद्धि ने काम करना छोड़ दिया।बोला ही नहीं गया उनसे।फिर धीमे स्वर में स्वगत ही बोले- ‘वह तो पाला हुआ नहीं था। वह तो नरभक्षी था।चार दिन पूर्व ही पकड़ा गया था, वह भी डर गया इस वशीकरण से? पशुओं पर भी इसका मंत्र चल गया।अब क्या होगा इस कुल का, इस राज्य का? यहसबका भक्षण कर जायेगी। जिस दिन से यह यहाँ आई है, सुख शांति विदा हो गई है।दाजीराज को न जाने क्या कुमति उपजी जो इस डाकिनी को यहाँ लाये।यह सबको खा

mc 88

मीरा चरित  भाग- 88 ‘चल ! कहाँ चलना है?’ कहते हुये मेरा हाथ पकड़ कर वे चल पड़े।सखी वहाँ कदम्ब की डाली पर बँधे हुये झूले पर श्री राधागोविन्द विराजित हुये। हम सब गाती हुयी उन्हें झुलाने लगीं। अरी सखी झूलते हुये भी वे बीच बीच में मेरी ओर देख लेते थे।अपना आरक्त मुख मैं कहाँ जाकर छिपाऊँ, इसी लज्जा भरी ऊहापोह में मैं गाना भी भूल जाती। थोड़ी देर बाद श्यामसुन्दर झूले से उतर पड़े और किशोरीजू को झूलाने लगे। एक प्रहर तक झूलने झलाने के बाद सखियों के साथ किशोरी जी चली गईं।श्यामसुन्दर भी गायों की ओर चले गये।  तब मैं झुरमुट से निकलकर और झूले पर बैठकर धीरे-धीरे झूलने लगी। नयन और मन झूलन लीला की पुनरावृति करने में लगे थे। कितना समय बीता, मुझे ध्यान न रहा, पर किसी ने मेरी आँखें मूँद ली। मैंने सोचा कि कोई सखी होगी।अच्छा तो न लगा उस समय किसी का आना, पर जब कोई आ ही गयी हो तो क्या हो? मैंने कहा, ‘आ सखी ! तू भी बैठ जा ! हम दोनों साथ-साथ झूलेंगी।’ वह भी सचमुच मेरी आँखें छोड़कर आ बैठी मेरे पास में। झूले का वेग थोड़ा बढ़ा। अपने विचारों में मग्न थी।थोड़ी देर बाद ध्यान आया कि यह सखी बोलती क्यों नहीं? ‘क्या बात है

mc 89

मीरा चरित  भाग- 89 उमड़ घुमड़ कर कारी बदरियाँ, बरस  रही चहुँ ओर। अमुवाँ की डारी बोले कोयलिया, करे  पपीहरा शोर॥ चम्पा जूही बेला चमेली, गमक रही चहुँ ओर। निर्मल नीर बहत यमुना को, शीतल पवन झकोर॥ वृंदावन में खेल करत हैं,राधे नंद किशोर। मीरा कहे प्रभु गिरधर नागर,गोपियन को चितचोर॥ चार-चार, छ:-छ: दिन तक मीरा का आवेश नहीं उतरता। दासियों के सतत् प्रयत्न से ही थोड़ा पेय अथवा नाम-मात्र का भोजन प्रसाद उनके गले उतर पाता। मानधनी राजपूतों की अप्रसन्नता..... इन्हीं दिनों समाचार मिला कि बहादुर शाह गुजराती चित्तौड़ पर चढ़ाई करने के लिए चला आ रहा है।जिन पहलवानों पर महाराणा विक्रमादित्य को नाज था, वे भयभीत होकर इधर उधर छिपने लगे।गुजराती फौज ने चित्तौड़ गढ़ को घेरकर भैरवपोल पर 1586 वि.स. की माघ पूर्णिमा के दिन अपना क़ब्ज़ा कर लिया।आश्चर्य यही है कि ये किले के ऊपर नहीं पहुँचे।ऊपर सेना तो थी नहीं, केवल पहलवान और सेवक थे।वे अपने प्रणों के भय से बंदूकें चला रहे थे।कहते हैं टूटी कमान दोनों ओर डराती है।राजमाता हाड़ीजी ने हुमायूँ से सहायता के लिए राखी भेजी।हुमायूँ सहायता के लिए सेना लेकर चला भी, किंतु ग्वालियर तक

mc87

मीरा चरित  भाग-87 ‘दीवानजी तुमसे इतने रूष्ट क्यों हैं बीनणी?  नित्य प्रति तुम्हें मारने के लिए कोईन कोई प्रयास करते ही रहते हैं। किसी दिन सचमुच ही कर गुजरेंगे। सुन-सुन करके जी जलता है, पर क्या करूँ? रानी हाँडी जी के अतिरिक्त तो यहाँ हमारी किसी की चलती नहीं। न हो, तुम पीहर चली जाओ’- राजमाता ने कहा। ‘हम कहीं जायें, कुछ भी करें, अपना प्रारब्ध तो भोगना ही पड़ेगा हुकम, दु:ख देनेवाले को ही पहले दुख सताता है, क्रोध करने वाले को ही पहले क्रोध जलाता है, क्योंकि वह जो कुछ दूसरे को देना चाहता है, उसके अपने भीतर मन अथवा हृदय में पहले आता है।जितनी पीड़ा वह दूसरे को देना चाहता है, उतनी वही पीड़ा पहले उसे स्वयं को भोगनी पड़ती है।उस व्यक्ति ने जिसे वह दे रहा है, उसने यदि वह पीड़ा या क्रोध स्वीकार नहीं किया तो?’- मीरा हँस पड़ी - ‘मुझे दीवानजी पर तनिक भी रोष नहीं है। आप चिंता न करें। प्रभु की इच्छा के बिना कोई भी कुछ नहीं कर सकता और प्रभु की प्रसन्नता में मैं प्रसन्न हूँ।’ ‘इतना विश्वास, इतना धैर्य तुममें कहाँ से आया बीनणी?’ ‘इसमें मेरा कुछ भी नहीं है हुकम ! यह तो संतों की कृपा है। सत्संग ने ही मुझे सिख

mc 86

मीरा चरित  भाग- 86 इस घर की बाईसा हुकुम उस घर की बहू हैं।उन्होंने यह बात श्री जी से अर्ज कर दी थी।जान समझकर ही श्री जी ने यह सम्बन्ध स्वीकार किया।अब भक्ति छुड़ाने के लिए इतने अत्याचार क्यों? क्षमा करें हुजूर, छोटे मुँह बड़ी बात अर्ज कर रही हूँ, किंतु इसमें तनिक भी झूठ नहीं है कि चित्तौड़ के भाग्य से ऐसा संयोग बना था कि एक साथ सबका उद्धार हो जाता, पर ऐसा दुर्भाग्य जागा कि कहा नहीं जाता।दूर दूर से लोगसुनकर दौड़ेआते हैं  और यहाँ आँखों देखी का भी इन्हें विश्वास नहीं आता।आप किसी प्रकार बाईसा हुकुम को छुड़वा दीजिए।हम मेड़ते चले जायेगें।’ ‘क्यों? मेड़ते क्यों? यहीं रहो सिसोदिये यहाँ लाये हैं जीवन भर के लिए, आधी आयु के लिए नहीं।ये बात बाद में करेगें।मैं जाकर खोज करूँगा।सफल होता हूँ या नहीं, यह भगवान एकलिंग के हाथ में है।अपनी ओर से प्राणों के मूल्य पर भी मेड़तणी जी सा को यहाँ पधरा सका तो स्वयं को धन्य मानूँगा।वे जिस अवस्था में भी होगीं यहाँ इसमहल में पहुँचा दूँगा।’ ‘भूत महल की चाबियाँ बख्शे सरकार’- सलुम्बर बाबाजी ने महाराणा विक्रमादित्य से निवेदन किया। ‘क्यों? किसलिये?’ ‘कुँवराणी मेड़तणी जी सा

mc 84

मीरा चरित  भाग- 84 दिन ढलने पर मैं स्वयं ही उपस्थित हो जाऊँगी।तुम जाकर निवेदन कर देना कि मुझे भी बुजीसा हुकुम के दर्शन किए बहुत समय हो गया।आज कृपा करके उन्होंने याद फरमाया है तो दर्शनों के लिए हाजिर हो जाऊँगी’- मीरा ने कहा। ‘दाता हुकुम ने फरमाया है कि ठाकुरजी की आरती भोग आदि सब करके पधारें, अन्यथा सरकार वहाँ विराज नहीं सकेगीं ‘- दासी ने निवेदन किया। मीरा ने हँस कर सिर हिला दिया।रात को जब मीरा सासजी के महल में पधारीं तो वहाँ सभी राजपरिवार की स्त्रियाँ उपस्थित थीं।उनकी दासियाँ और पासवानों(उपपत्नियाँ) को मिलाकर सौ डेढ़ सौ स्त्रियों का जमघट देख कर मीरा को कुछ आश्चर्य हुआ।उन्होंने अपनी सासों के चरणों में सिर झुकाया और देवरानियों को आशिर्वाद दिया।दासियों के अभिवादन स्वीकार करते हुए किसी के हाथ जोड़, किसी को सिर हिला, किसी को दृष्टि द्वारा और हँसकर एकाध बात करके सम्मान दिया।सबके यथास्थान बैठ जाने पर राजमाता जोधा जीजी(धनाबाई) ने फरमाया- ‘और सभी तो कहीं न कहीं इकट्ठे होते रहते हैं और मिलते ही हैं किंतु बानणी तुमसे मिलना सहज नहीं हो पाता, इसी कारण सोचा कि दो घड़ी बैठकर बात ही करेगें।’ ‘बड़ी कृपा

mc85

मीरा चरित  भाग- 85 हाड़ीजी और उनके साथ पचास साठ स्त्रियाँ मीरा को लेकर भूत महल की ओर चलीं। मीरा की दासियों ने सारी रात आँखों को राह में गढ़ाए गढ़ाए ही काट दी।ड्योढ़ी के द्वार खुले ही रहे।ब्रह्ममुहुर्त लगते ही चम्पा और चमेली जोधीजी के पास दौड़ी दौड़ी गयीं- ‘बुजीसा हुकुम, मेरी बाईसा हुकुम कहाँ हैं? वे रात महलों में नहीं पधारीं।’ ‘हैं क्या? महलों में नहीं पधारीं तो कहाँ गईं?’- उन्होंने चौंककर पूछा। उन्होंने दासी भेजकर हाड़ीजी के महल में पुछवाया।वहाँ से उत्तर आया कि भूत महल से लौटते हुये द्वार तक हमारे साथ ही थीं, फिर अचानक लोप हो गईं।हमने सोचा भक्त हैं इनकी माया कौन जान सकता है। यहसुनकर दोनों दासियाँ रो पड़ीं।उनकी आँखों से चौधारा फूट गई।हिल्कियाँ लेते हुये वे बोलीं- ‘बुजीसा हुकुम मुझे भूत महल में जाने की आज्ञा दीजिये।अवश्य ही बाईसा को उसमें बंद कर दिया गया है।’ ‘तू कहाँ जायेगी और कैसे जायेगी? उसकी चाबियाँ तो श्री जी के पास हैं।वे भी रात को भूत महल में पधारे थे, ऐसा सुना है।’ यह सुनकर वे और जोर जोर से रोने लगीं।रोते हुये जहर देने और तलवार से मारने की सारी बात कह सुनाई- ‘हमारी बाईसा तो भोली