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Showing posts from January, 2019

सात ठाकुर

सात ठाकुर जो वृंदावन मे प्रकट हुए है 1. गोविंददेव जी , जयपुर कंहा से मिली :वृंदावन के गौमा टीला से यहा है स्थापित :जयपुर के राजकीय महल मे रूप गोस्वामी को श्री कृष्ण की यह मुर्ति वृंदावन के गौमा टीला नामक स्थान से वि.सं. 1535 मे मिली थी ।उन्होंने उसी स्थान पर छोटी सी कुटिया मे इस मूर्ति को स्थापित किया ।इसके बाद रघुनाथ भट्ट गोस्वामी ने गोविंददेव जी की सेवा पूजा संभाली उन्ही के समय मे आमेर नरेश मानसिंह ने गोविंददेव जी का भव्य मंदिर बनवाया इस मंदिर मे गोविंददेव जी 80 साल विराजे, औरंगजेब के शासन काल मे बृज पर हुए हमले के समय गोविंद जी को उनके भक्त जयपुर ले गए, तबसे गोविंदजी जयपुर के राजकीय महल मंदिर मे विराजमान है 2. मदन मोहन जी, करौली कहा से मिली :वृंदावन के कालीदह के पास द्वादशादित्य टीले से यहा है स्थापित : करौली (राजस्थान )मे यह मूर्ति अद्वैत प्रभु को वृंदावन के द्वादशादित्य टीले से प्राप्त हुई थी उन्होंने सेवा पूजा के लिए यह मूर्ति मथुरा के एक चतुर्वेदी परिवार को सौंप दी और चतुर्वेदी परिवार से मांग कर सनातन गोस्वामी ने वि.सं 1590 (सन् 1533)मे फिर से वृंदावन के उसी टीले पर स्था

प्याज लहसुन

प्याज लहसुन खाना शास्त्रोँ मेँ क्यों मना किया गया है विशेषकर नवरात्रि में ।। आईये जाने इस पोस्ट के द्वारा ।। -----------------–-------------------- प्याज और लहसुन ना खाए जाने के पीछे सबसे प्रसिद्ध पौराणिक कथा यह है कि समुद्रमंथन से निकले अमृत को, मोहिनी रूप धरे विष्णु भगवान जब देवताओं में बांट रहे थे; तभी एक राक्षस भी वहीं आकर बैठ गया। भगवान ने उसे भी देवता समझकर अमृत दे दिया। लेकिन तभी उन्हेँ सूर्य व चंद्रमा ने बताया कि ये राक्षस है। भगवान विष्णु ने तुरंत उसके सिर धड़ से अलग कर दिए। लेकिन राहू के मुख में अमृत पहुंच चुका था इसलिए उसका मुख अमर हो गया। पर भगवान विष्णु द्वारा राहू के सिर काटे जाने पर उनके कटे सिर से अमृत की कुछ बूंदे ज़मीन पर गिर गईं जिनसे प्याज और लहसुन उपजे।           चूंकि यह दोनों सब्ज़िया अमृत की बूंदों से उपजी हैं इसलिए यह रोगों और रोगाणुओं को नष्ट करने में अमृत समान होती हैं पर क्योंकि यह राक्षसों के मुख से होकर गिरी हैं इसलिए इनमें तेज़ गंध है और ये अपवित्र हैं जिन्हें कभी भी भगवान के भोग में इस्तमाल नहीं किया जाता। कहा जाता है कि जो भी प्याज औ

ब्याहुला

*श्री जी का बिहाऊला* श्री वृन्दावन धाम रसिक मन मोहई। दूलह दुलहिनि ब्याह सहज तहाँ सोहई।। नित्य सहाने पट अरु भूषन साजहीं। नित्य नवल सम वैस एक रस राजहीं।। सोभा कौ सिरमौर चन्द्रिका मोर की। बरनी न जाइ कछु छवि  नवल किशोर की।। सुभग माँग रँग रेख मनो अनुराग की। झलकत मौरी सीस सुरंग सुहाग की।। मणिनु खचित नव कुंज रही जगमग जहाँ। छवि को बन्यौ वितान सोई मंडप तहाँ।। बेदी सेज सुदेस रची अति बानि कै। भाँति-भाँति के फुल सुरंग बहु आनि कै।। गावत मौर मराल सुहाए गीत री। सहचरि भरी आनन्द करत रस रीत री।। अलबेले सुकुँवार फिरत तिहि ठांवरी। दृग अञ्चल परी ग्रन्थि लेत मन भाँवरी।। कँगना प्रेम अनूप कबहुँ नहिं छूटहि। पोयौ डोरी रूप सहज सो न टूटही।। रुचि रहे कोमल कर अरु चरण सुरँग री। सहज छबीले कुँवर निपुण सब अंग री।। नुपूर कंकण किंकिणी बाजे बाजहीं। निर्त्तत कोटि अनंग नारि सब लाजहीं।। बाढ्यौ है मन मोहिं अधिक आनन्द री। फुले फिरत किशोर वृन्दावन चंद री।। सखियन किये बहु चार अनेक विनोद री। दुधा भाती हेत बढ्यौ मन मोद री।। ललित लाल की बात जबहि सखियन कही। लाज सहित सुकुमारि ओट पट दै रही।। नमित ग्रीव छव

तुलसी शालिग्राम विवाह

तुलसी शालीग्राम विवाह तुलसी शालीग्राम संग ब्याह की शोभा वरनी न जाई ।। शालीग्राम दुल्हा बन गए,कर श्रृँगार द्वार पे आये बज रही शहनाई की शोभा वरनी न जाई ।। ब्रह्मा भी आये संग विष्णु भी आये वीणा बजाते नारद भी आये शंकर ने डमरू बजाई की शोभा वरनी न जाई ।। श्रीराम भी आये संग लक्ष्मण आये चरणों के सेवक हनुमंत भी आये संग में सीता माई की शोभा वरनी न जाई ।। श्रीराधा भी आई संग रूक्मण भी आई ललिता विशाखा संग गोपियाँ आई श्रीकृष्ण ने बंशी बजाई की शोभा वरनी न जाई ।। सखियाँ तुलसी जी को दियो है सजाई, लहंगा पहनाई चुनरी ओढा़ई तुलसी को बिन्दी लगाई चूड़ी पहनाई बाजुबन्द पहनाई कांकण डोरा दिया है पहनाई की शोभा वरनी न जाई ।। करि श्रृँगार सखी ले आई चन्दन चौकी बैठाई देव सुमन बरसाई की शोभा वरनी न जाई ।। तुलसी शालीग्राम की भंवरी परी है जोड़ो गांठ तब आन्नद भयो है सखियाँ म़ंगल गाई की शोभा वरनी न जाई ।। सब सखियन से मिलकर शालीग्राम की डोली में बैठी तुलसी मन हरषाई की शोभा वरनी न जाई । 🙌🏻 श्रीराधारमण लाल की जय हो 🙌🏻

श्रवण मंगलम

*भक्ति का पहला और सबसे महत्वपूर्ण अंग श्रवणम्🌷* *'श्रवणम्'* भक्ति का सबसे महत्वपूर्ण अंग है। यह भक्ति के मुख्य तीन अंगों में से एक है। श्रील् प्रभुपादजी भी अपने कई व्याख्यानों में कहते हैं -- *'भगवान् श्रीकृष्ण ने हमें यह कान दिए ही इसलिए हैं कि हम चौबीस घण्टे श्रवण कर सकें।'* यह "हरे कृष्ण" महामन्त्र इतना शक्तिशाली है कि इसका श्रवण चाहे सुप्त अवस्था में किया जाये या श्रवण करने वाले को कुछ भी समझ न आये या ध्यानपूर्वक श्रवण न भी किया जाये, तब भी यह अपना प्रभाव दिखाता है *(ध्यानपूर्वक जप न करना अपराध है लेकिन श्रवणम् में ऐसा नहीं है)*। श्रवण करने से "हरे कृष्ण" की दिव्य ध्वनि हृदय की गहराई तक जाती है और श्रवण करने वाले के हृदय को अनर्थों से मुक्त करती है। यह श्रवण तब और भी अधिक असर करता है जब यह श्रवण किसी शुद्ध और प्रामाणिक भक्त से किया जाये। भगवान् श्रीकृष्ण की कृपा से आधुनिक तकनिकी उन्नति के कारण आधुनिक भक्तों के लिए चौबीस घण्टे श्रवण की व्यवस्था करना बेहद आसान हो गया है, और तो और हमारे पास भगवान् श्रीकृष्ण के अतिप्रिय और शुद्ध प्रामाणिक वैष्णव

बिल्वमंगल

श्रीगोविन्द दामोदर स्तोत्र एवं भक्त बिल्वमंगल..... कल्पवृक्ष सम है सदा करुणामय हरिनाम। चाह किये देता मुकति, प्रेम किये व्रजधाम॥ भगवान का नाम कितना पावन है, उसमें कितनी शान्ति, कैसी शक्ति और कितनी कामप्रदता है, यह कोई नहीं बतला सकता। अथाह की थाह कौन ले सकता है, जिसके माहात्म्य का ज्ञान बुद्धि से परे है, उसका वाणी से वर्णन कैसे हो सकता है? एक साधु महाराज से किसी ने पूछा:- ’महाराज, नाम लेने से क्या होता है?’ साधु महाराज ने उत्तर दिया:- ’क्या होता है? नाम से क्या नहीं होता? जिस माया ने जगत् को मोहित कर रखा है, अज्ञानी बना रखा है, नाम के प्रभाव से वह माया भी मोहित हो जाती है, अपना प्रभाव खो देती है। चाहने से कहीं बहुत अधिक प्राप्त होता है, मनुष्य का चाहना-पाना दोनों मिट जाते हैं। श्रीगोविन्द दामोदर स्तोत्रम् की रचना श्रीबिल्वमंगल ठाकुर द्वारा की गयी है जिन्हें ‘श्रीलीलाशुक’ कहा जाता है। यह स्तोत्र ७१ श्लोकों का है किन्तु यहां इसके कुछ प्रचलित श्लोक ही हिन्दी अनुवाद सहित दिए जा रहे हैं। सदियों पहले बिल्वमंगल नामक ब्राह्मण के मन को चिन्तामणि वेश्यारूपी ठगिनी माया ने ऐसा आसक्त किया कि

निताई गुनमणि

निताई गुनमणि आमार निताई गुनमणि। आनिया प्रेमेर वन्या भासाल अवनी।। प्रेमवन्या लइया निताई आइला गौड़ देशे। डुबिल भक्तगण दीनहीन भासे।। दीनहीन पतित पामर नाहि बाछे। बह्मार दुर्लभ प्रेम सबकारे जाचे।। जे ना लय तारे बले दन्ते तृण धरि। आमारे किनिया लह भज गौरहरि।। एत बलि नित्यानन्द भूमे गड़ि जाय। सोनार पर्वत जेन धूलाते लौटाय।। निताई रंगिया मोर प्रेम कल्पतरु। कांगालेर ठाकुर निताई जगतेर गुरु ।।