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Showing posts from March, 2018

गौरदास बाबा जी

व्रज के भक्त.... श्री गौरदास बाबा जी... नंदग्राम के पावन सरोवर के तीर पर श्री सनातन गोस्वामीपाद की भजन-कुटी में श्री गौरदास बाबा जी भजन करते थे। वे सिद्ध पुरुष थे। नित्य प्रेम सरोवर के निकट गाजीपुर से फूल चुन लाते, और माला पिरोकर श्रीलाल जी को धारण कराते। फूल-सेवा द्वारा ही उन्होंने श्री कृष्ण-कृपा लाभ की थी। कृपा-लाभ करने से चार-पांच वर्ष पूर्व ही से वे फूल-सेवा करते आ रहे थे। आज उन्हें अभिमान हो आया -' इतने दिनों से फूल-सेवा करता आ रहा हूँ, फिर भी लाल जी कृपा नही करते। उनका ह्रदय कठोर हैं किन्तु वृषभानु नन्दिनी के मन प्राण करुणा द्वारा ही गठित हैं। इतने दिन उनकी सेवा की होती, तो वे अवश्य ही कृपा करती। अब मैं यहाँ न रहूँगा...आज ही बरसाना जी चला जाऊँगा। संध्या के समय कथा आदि पीठ पर लाद कर चल पड़े, बरसाना जी की ओर। जब नंदगाँव से एक मील दूर एक मैदान से होकर चल रहे थे... बहुत से ग्वाल-बाल गोचरण करा गाँव को लौट रहे थे, एक साँवरे रंग के सुंदर बालक ने उनसे पूछा-'बाबा ! तू कहाँ जाय ? तब बाबा ने उत्तर दिया-' लाला ! हम बरसाने को जाय हैं, और बाबा के नैन डबडबा आये। बालक ने र

वैष्णव

-- वह होता है वैष्णव....-- वैष्णव यह नहीं समझता कि, "मुझे भगवान कृष्ण से मेरे पिता के लिए, मेरी माता के लिए प्रार्थना करनी है ।" नहीं । वैष्णव प्रार्थना करने के लिए तत्पर रहता है... "पर-दुख-दुखी" । वह पतित बद्ध जीवों को दुखी देखकर सदैव दुखी रहता है । अन्यथा वैष्णव को व्यक्तिगत रूप से कोई दुःख नहीं होता । नैवोद्विजे पर दुरत्यया-वैतारण्यास त्वद-वीर्य-गायन-महामृत-मग्न-चित्तः । शोचे ततो विमुख-चेतस इंद्रियार्थः- माया-सुखाय भरम उद्वहतो विमुढान ॥ (भा ७.९.४३) वैष्णव संसार के सभी धूर्तों के लिए दुखी होता है । अन्यथा उसके लिए दुःख का कोई कारण नहीं है ।वह कहीं भी बैठ सकता है; वह कहीं भी सो सकता है; वह कुछ भी खा सकता है; उसे किसी की सहायता की आवश्यकता नहीं होती । वह भगवान कृष्ण के जैसे, यथार्थतः नहीं, पर एक वैष्णव केवल भगवान कृष्ण पर निर्भर रहते हुए आत्म-निर्भर होता है । यह होता है वैष्णव । तो वह किसी भी चीज़ के लिए खेद या शोक व्यक्त नहीं करता । वह सर्वदा भगवान की सेवा में संतुष्ट रहता है, परन्तु अज्ञानता के कारण कष्ट पा रहे बद्ध जीवों के लिए सदा दुखी रहता है । - श्रील

राधा बाबा के संदेश

"पूज्य श्रीराधाबाबा के दिव्य संदेश" (दो ही उपाय हैं) सच बताऊँ, दो ही उपाय हैं। तीसरा हो, तो मुझे मालूम नहीं। 1. जिस प्रकार मशीन चलती है, उसी तरह यदि जीभ से जागने से लेकर सोने तक नाम का निरन्तर उच्चारण हो, तो इतनी शीघ्रता से भगवान् के अस्तित्व में विश्वास होगा कि स्वयं चकित रह जाइयेगा। मन लगे, तब तो और भी जल्दी होगा। नहीं लगने पर भी सब उपायों की अपेक्षा इससे अत्यन्त शीघ्र यह बात हो जाएगी। 2. कोई महापुरुष सच्चा संत हो और उससे ह्रदय से प्रार्थना की जाए अथवा भगवान् के सामने ह्रदय से रोवें-नाथ ! मेरे मन में आपके अस्तित्व पर अखण्ड-अटूट विश्वास हो जाए, तो सच मानिए, अभी एक क्षण में मन की वृत्ति ऐसी आस्तिक बन जाएगी कि आपके पास रहने वाले भी आस्तिक बनने लग जाएँगे।             बस, ये दो उपाय ही मैं जानता हूँ, और प्रार्थना की सुनवाई में तो देर भी हो, किन्तु यह प्रार्थना तो भगवान या संत अवश्य, अवश्य, अवश्य सुन लेंगे। अतएव, बस प्रार्थना करते चले जाइए। "परम पूज्य श्रीराधाबाबा"

बिहारिन देव जी

सन्त परिचय पोस्ट-1 "श्री बिहारिन देव जू" (कालावधि 1504-1602,)           स्वामी हरिदास जी महाराज की भजन रीति को पानी के द्वारा 'श्री बिहारिन देव जू' ने रसिकों के लिए प्रगट किया दिल्ली नगर के समीप इंद्रप्रस्थ के रहने वाले थे। पिता जी का नाम मित्रसेन था जो दीवान पद पर नियुक्त थे। माता जी का नाम गोदावरी देवी था। 33 वर्ष की अवस्था में गृह त्याग करके श्री धाम वृंदावन आगमन हुआ।  नित्य विहार की लीलाओं में ऐसे डूब जाते की दातुन करते-करते शाम हो जाती है लेकिन ब्रहादशा शून्य ही रहती।           बादशाह ने सभी अधिकारियों से कहा, कल सभी अपने मस्तक से तिलक उतार कर आएंगे।  सभी तिलक विहीन सभा में उपस्थित हुए। श्री बिहारिन देव जी तिलक को नाक तक उतारकर सभा में आए। बादशाह के पूछने पर आप ही ने कहा कि तिलक उतार कर आना। पहले मस्तक पर लगाते थे अब नीचे उतारकर नाक तक कर दिया। स्वामी जी के अनुयाई गुरुदेव नाम से पुकारते है। चरित्र            रसिक अनन्य नृपति श्री स्वामी हरिदास महाराज जी की परंपरा में अनन्य मुकुटमणि श्री स्वामी बिहारिन देव जी का नाम अग्रगण्य है।  यह श्री स्वामी विट्ठल विपुल

भक्त मनीदास जी

"सन्त परिचय" पोस्ट-10                           "भक्त मणिदास माली"           श्री जगन्नाथ पुरी धाम में मणिदास नाम के माली रहते थे। इनकी जन्म तिथि का ठीक-ठीक पता नहीं है परन्तु सन्त बताते हैं कि मणिदास जी का जन्म संवत् १६०० के लगभग जगन्नाथ पुरी में हुआ था। फूल-माला बेचकर जो कुछ मिलता था, उसमें से साधु-ब्राह्मणों की वे सेवा भी करते थे, दीन-दु:खियों को, भूखों को भी दान करते थे और अपने कुटुम्ब का काम भी चलाते थे। अक्षर-ज्ञान मणिदास ने नहीं पाया था; पर यह सच्ची शिक्षा उन्होंने ग्रहण कर ली थी, कि दीन-दु:खी प्राणियों पर दया करनी चाहिये और दुष्कर्मो का त्याग करके भगवान का भजन करना चाहिये। सन्तों में इनका बहुत भाव था और नित्य मणिराम जी सत्संग में जाया करते थे।            मणिराम का एक छोटा सा खेत था जहाँ पर यह सुन्दर फूल उगाता। मणिराम माली प्रेम से फूलों की माला बनाकर जगन्नाथ जी के मन्दिर के सामने ले जाकर बेचनेे के लिए रखता। एक माला सबसे पहले भगवान को समर्पित करता और शेष मालाएँ भगवान के दर्शनों के लिए आने वाले भक्तों को बेच देता। फूल मालाएँ बेचकर जो कुछ धन आता उसमे साधू-सन

जय निताई 9

🌸जय श्री राधे🌸     💐जय निताई 💐                         🌙   श्री निताई चाँद🌙 क्रम: 9⃣                    तीर्थ भ्रमण                🌿श्री निताई चांद स्वानुभावानन्द में निर्भय हो मस्त गति से उस सन्यासी के साथ वक्रेश्वर तीर्थ में पहुंचे। वक्रेश्वर तीर्थ वीरभूम जिला में ही है जो गुप्तकाशी नाम से विख्यात है। अष्टावक्र ऋषि ने यहां तपस्या की थी। मंदिर के प्रांगण में श्वेत गंगा बहती है। वहां अनेक पुष्करिणी विद्यमान है। यहां अष्टावक्र ऋषि तथा श्री वक्रनाथ महादेव विराजमान है। यहां समस्त दर्शनीय स्थानों के दर्शन कर श्री निताई चांद फिर अकेले ही तीर्थ भ्रमण में निकल पड़े। वह सन्यासी महोदय कहां गए, कहां न गए -इस बात का कुछ भी उल्लेख नहीं मिलता।               प्रथम चलिला प्रभु तीर्थ वक्रेश्वर।        तबे वैद्यनाथ -वन गेला एवेश्वर।। श्री वक्रेश्वर दर्शन के बाद श्री निताई चांद अकेले ही वैद्यनाथ वन में पहुंचे। वहां से गया, काशी, प्रयाग पहुंचे वहां माघ मास का नियम पूर्वक स्नान किया। इसके बाद वे अपने पूर्व जन्म स्थान मथुरा में आये। विश्राम घाट पर यमुना में केली कर अतीव हर्ष प्राप्त किया। श