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द्विदल सिद्धान्त भाग 6 द्विदल-सिद्धान्‍त इन दोनों की प्रीति को अपने लता-गुल्‍म में प्रतिबिबित करने का वृन्‍दावन का स्‍वभाव है। रसिक संतों ने वर्णन किया है। कि वृन्‍दावन में कहीं तो मर्कत-मणि[1] के तमालों से कंचन को कोमल बेलि लिपटी हुई है और कहीं कंचन के तमालों से मर्कत-मणि की बेलि उलझ रही है। कहीं गौर श्‍याम के आश्रित हैं और कहीं श्‍याम गौर के। विलक्षणता यह है कि दोनों स्‍थानों में सौन्‍दर्य की अभिव्‍यक्ति समान है। भोक्‍ता और भोग्‍य में समान रस-स्थिति का यह सिद्धान्‍त भार की रस-परिपाटी के अनुकूल एवं गौड़ीय भक्ति-रस-सिद्धान्‍त के प्रतिकूल है। गौड़ीय-सिद्धान्‍त में राधा-माधव की पारस्‍परिक प्रीति में तारतम्‍य स्‍वीकार किया गया है। श्री राधा का प्रेम श्री कृष्‍ण के प्रेम की अपेक्षा कहीं अधिक गुरु एवं गंभीर तथा उससे विलक्षण बतलाया गया है। मादन महाभाव का प्रकाश केवल श्री राधा में होता है, श्री कृष्‍ण मैं नहीं। प्रेमाधिक्‍य के कारण ही श्रीराधा वृन्‍दावनेश्‍वरी हैं एवं श्रीकृष्‍ण सब प्रकार पूर्ण एवं स्‍वतन्‍त्र होते हुए भी उनके सर्वथा अधीन हैं। राधावल्‍लभ भीय सिद्धान्‍त में श्री राधा-कृष्‍ण

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द्विदल सिद्धान्त भाग 5 समान आश्रयों को पाकर ही प्रीति का पूर्ण रूप प्रकाशित होता है। विषम-प्रेम को पर्ण प्रेम नहीं कहा जा सकता। हित भोरी ने अपने एक पद में प्रेम के प्रकाश की तीन भूमिकाओं का वर्णन करके इस तथ्‍य को स्‍पष्‍ट कर दिया है। वे कहते हैं -‘प्रीति की रीति का मैा किस प्रकार वर्णन करूँ ! मैं अपने मन में विचार करते-करते थक जाता हूँ, फिर भी मन इसमें प्रवेश नहीं पाता। संसार में चकोर की प्रीति धन्‍य मानी गई है। वह चन्‍द्र की ओर एक-टक देखता रहता है और अपने प्राण रहते उधर से दृष्टि नहीं हटाता; फिर भी चकोर की यह प्रीति अति अल्‍प है। प्रेम के प्रकाश की यह पहिली ही भूमिका है। जब चकोर का तन-मन चन्‍द्र बनकर चन्‍द्र की छवि का पान करने लगे और प्रतिक्षण उसकी रस-तृषा बढ़ती रहे, तब उसको विलक्षण ही आस्‍वाद आवे। यह दूसरी भूमिका है। किन्‍तु इसमें चकोर और चन्‍द्र के समान-प्रेमी ने होने के कारण प्रेम एकांगी रहता है, और यह भी अच्‍छा नहीं लगता कि चन्‍द्रमा चकोर के प्रेम-पाश में बँधकर एक टक उसकी ओर देखता रहे। इसमें प्रेम-पात्र की सहज सलज्‍ज प्रीति के अत्‍यन्‍त व्‍यक्‍त हो जाने से रस-हानि हो जायगी। प्रेम

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द्विदल सिद्धान्त भाग 4 अतिशय प्रीति हुती अन्‍तर-गति हित हरिवंश चली मुकलित मन। निविड़ निकुंज मिले रस सागर जीते सत रतिराज सुरत रन।। श्री हित प्रभु को निकट-मान अधिक रूचिकर और सेवक जी ने अपनी वाणी के अंतिम प्रकरण में उसी का व्‍याख्‍यान किया है। निकट-मान का बड़ा सरस वर्णन भी हितप्रभु ने अपने एक पद में किया है। उन्‍होंने बतलाया है-‘एक बार प्रेम-विहार करते हुए श्री श्‍यामसुन्‍दर अपनी प्रिया की अदभुत अंग-शोभा का दर्शन करके -विथकित वेपथगात’ हो गये। नागरी प्रिया ने अधर-रस-दान के द्वारा उनको सावधान किया, दूसरे क्षण में हो वे प्रेम की दूसरी प्रबल तरंग में पड़ गये। उनको ऐसा प्रतीत हुआ कि उन्‍होंने प्रिया के मुख में ‘रसाल विंबाधरों को प्रथम वार ही देखा है और वे अत्‍यन्‍त दीनतापूर्वक प्रिया से अधर-रस-दान की प्रार्थना करने लगे। उनके इस विभ्रम को देख कर प्रिया मानवती हो गई और उनके इस अप्रत्‍याशित मान को देख कर श्‍यामसुन्‍दर विरह-दुख से अत्‍यन्‍त कातर एवं अधीर बन गये। प्रिया ने सदय होकर उनको भुजाओं में भर लिया और दोंनों के प्रीति-पूर्वक मिलने से कुछ ऐसे सुख की निष्‍पत्ति हुई कि उस दिन की सन्‍ध्‍या एक

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द्विदल सिद्धान्त भाग 3 भजनदास जी बतलाते हैं- ‘तीव्र प्रेम का यह रूप है कि तन से तन, मन से मन, प्राण से प्राण एवं नेत्र से नेत्र मिले रहने पर भी चैन नहीं मिलता’। तन सौं तन मन सौं जु मन मिले प्राण अरू नैन। तीव्र प्रेम को रूप यह तऊ हिेये नहि‍ चैन।। साधारणतया विप्रलम्भ से संयोग की पुष्टि मानी जाती है। इस सम्‍बन्‍ध में यह कारिका प्रसिद्ध है:- न विप्रलंभेन सभोग: पुष्टिमश्‍नुते। कषायिते हि वस्‍त्रादौ भूयान् रागोहि वर्धते।। श्री रूप गोस्‍वामी ने ‘उज्‍ज्‍वल नीलमणि’ में इस कारिका को स्‍वीकृति-पूर्वक उद्धृत किया है एवं मधुर रस का पूर्ण परिपाक ‘समृद्धिमान संयोग’ में माना है। समृद्धिमान् संयोग का लक्षण यह किया है ‘पारतन्‍त्रय के कारण वियुक्‍त एवं एक-दूसरे को देखने में असमर्थ नायिका-नायक के उपभोग के आधिक्‍य को समृद्धिमान संयोग कहते हैं। दुर्लभालोकयो र्यूनो: पारतन्‍त्र्यद्वियुक्‍तयो:। उपभोगातिरेको य: कीर्त्‍यते स समृद्धिमान्।।[1] नित्‍य-विहार में श्री युगलकिशोर अत्‍यन्‍त समृद्ध संयोग का ही अनुभव करते हैं, किन्‍तु उसका नियोजक दुर्लभ-दर्शन एवं पारतन्‍त्र्य नहीं है। यहां प्रेम का स्‍वरूप ही ऐस

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द्विदल सिद्धान्त भाग 2 सुनियत यहां दूसर कोउ नाहीं। बिना एक चाह परिछाहीं।। चाहनि सों पूछी में बाता, प्रीतम कही कौंन रंग राता। तिनि मूसकाइ बात यह कही, नित्‍य-मिलन अनमिलनौं सही।[1] अन्‍यत्र वे कहते हैं, ‘प्रेम में जैसे प्रेमी और प्रेम-पात्र एक प्राण, दो देहवाले होते हैं, श्रृंगार-रस में वैसी ही स्‍थति संयोग और वियोग की है’। बात को स्‍पष्‍ट करने के लिये उन्‍होंने नायक को विरह-रूप और नायिका को संयोग-रूप बतलाया है। ‘श्‍याम विरह है और गोरी संयोगिन है। विचित्रता यह है कि श्‍याम और गौर-वियोग और संयोग-अदल-बदल होते रहते हैं। कभी संयोग विरह-जैसा प्रतीत होता है, और कभी विरह संयोग -जैसा प्रतीत होता है। दृष्टि न आने पर ‘श्‍याम’ कहलाते हैं और जब दृष्टि में आने लगते हैं तब ‘गोरी’ कहलाते हैं। गौर-श्‍याम इस प्रकार मिलकर रहते हैं कि न तो उनको संयुक्‍त कहा जा सकता है और न वियुक्‍त ही। श्री वृन्‍दावन श्रृंगार-रस है और गौर-श्‍याम संयोग-वियोग हैं। त्‍यौं सिंगार बिछुरन मिलन एक प्राण दो देह। विरह नाम नायक कौ धरयौ, नाम संयोग नायिका करयौ। स्‍याम विरह गोरी संजोगनि, अदल बदल तिहिं सकै न कोउ गानि।। डीठि न आव

द्विदल

द्विदल-सिद्धान्‍त काव्‍य शास्‍त्र में श्रृंगार-रस के दो भेद माने गये हैं-संभोग श्रृंगार, विप्रलाभ श्रृंगार। प्रेमोपासकों ने भी श्रृंगार-तरू को द्विदल माना है। उसका एक दल संयोग है और दूसरा वियोग। श्रृंगार रस के दो भेद, पक्ष किंवा दल सबको स्‍वीकार हैं किन्‍तु इन दोनों दलों के स्‍वरूप, प्रभाव एवं पारस्‍परिक-सम्‍बन्‍ध के विषय में पर्याप्‍त मतभेद हैं। कुछ लोग श्रृंगार रस की पुष्टि संयोग में मानते हैं और कुछ वियोग में। वे दोनों यह भूल जाते हैं कि संयोग और वियोग में कोई एक यदि अपने आप में पूर्ण होता तो श्रृंगार को द्विदल होने की आवश्‍यकता न थी; उसकी पूर्ण अभिव्‍यक्ति किसी एक के द्वारा हो जाती। श्रृगार ने दो पत्‍ते धारण किये हैं, इसका अर्थ ही यह है कि उसके पूर्ण स्‍वरूप की अभिव्‍यक्ति इन इोनों के द्वारा होती है, एक के द्वारा नहीं। यह दोनों मिल कर ही सम्‍पूर्ण प्रेम को प्रकाशित करते हैं। श्री हिताचार्य ने चकई और सारस के दृष्‍टान्‍त से संयोग और वियोग की अपूर्णता को प्रगट किया है। प्रकृति में सारस नित्‍य-संयोग का प्रतीक है और चकई वियोग का। सारस वियुक्‍त होने पर जीवित नहीं रहता है और चकई प्रति-रा