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Showing posts from June, 2020

8 रथ यात्रा

*रथ यात्रा लीला 8*     जैसे कल हम सबने सुना बड़ा सुख पा रहे है महाप्रभु क्युंकि जगन्नाथ जी गुण्डिचा मन्दिर में  ही विराजमान है।आप हम सब ने ये भी सुना कैसे लक्ष्मी जी की डोली गुण्डिचा मन्दिर आती है और जगन्नाथ जी को मन्दिर वापिस चलने  का आग्रह करती हैं ,फिर जगन्नाथ जी से  नाराज हो कर माँ लक्ष्मी जी वापिस चली जाती है।     अब हर रोज भोग आरती ,हर उत्सव उन  दिनों मे मनाये जाते हैं,हर रोज श्री मन महाप्रभु जगन्नाथ जी का अवलोकन करते और प्रफुल्लित होते हैं,अब वो घड़ी आ गई जिस घड़ी से भक्त जन डरते थे कि महाप्रभु को कैसे सम्भाला  जायेगा ? कैसे उनके चित्त को शान्त किया जायेगा, क्युंकि अब जगन्नाथ  जी  का रथ गुण्डिचा मन्दिर से प्रस्थान कर जगन्नाथ मन्दिर जाने वाला है ।अब उल्टे रथ की तैयारी होगी , अब मन्दिर के बाहर रथ आ खड़ा हो जाता है। महाप्रभु जी के कान में आवाज़ आ जाती है ,रथ आ गया है गुण्डिचा के दरवाज़े पर जगन्नाथ जी को लेने।     रथ में  विराजमान हो गये भगवान श्री जगन्नाथ जी, ज्यों ही महाप्रभु जी ने देखा  तो भागे रथ की ओर।अब  फिर राधा भाव में आविष्ट हो गए और रूदन करते भागे ,अरे रुको ,नही जाने दूंगी, नही

भक्त दर्जी

*"भक्त दर्जी और सुदामा माली"*🙏🏻🌹          मथुरा में एक भगवद्भक्त दर्जी रहता था। कपड़े सीकर अपना तथा अपने परिवार का पालन करता एवं यथासंभव दान करता था। भगवान का स्मरण, पूजन, ध्यान ही उसे सबसे प्रिय था। इसी प्रकार सुदामा नामक एक माली भी मथुरा में था। भगवान की पूजा के लिये सुन्दर-से-सुन्दर मालाएं, फूलों के गुच्छे वह बनाया करता था। दर्जी और माली दोनों ही अपना-अपना काम करते हुए बराबर भगवान के नाम जप करते रहते थे और उन श्यामसुन्दर के स्वरूप का ही चिन्तन करते थे।          भगवान न तो घर छोड़कर वन में जाने से प्रसन्न होते हैं और न तपस्या, उपवास या और किसी प्रकार शरीर को कष्ट देने से। उन सर्वेश्वर को न तो कोई अपनी बुद्धि से संतुष्ट कर सकता है और न विद्या से। बहुत-से ग्रंथों को पढ़ लेना या अद्भुत तर्क कर लेना, काव्य तथा अन्य कलाओं की शक्ति अथवा बहुत-सा धन परमात्मा को प्रसन्न करने में समर्थ नहीं है। दर्जी और माली दोनों में से कोई ऊंची जाति का नहीं था। किसी ने वेद-शास्त्र नहीं पढ़े थे, कोई उनमें तर्क करने में चतुर नहीं था और न ही उन लोगों ने कोई बड़ी तपस्या या अनुष्ठान ही किया था। दोनों

भक्तमाली

*"भक्तमाली और लड्डू गोपाल जी"* 🙏🏻🌹          पण्ड़ित श्री जगन्नाथ प्रसाद जी 'भक्तमाली' के भक्तिभाव के कारण वृंदावन के सभी संत उनसे बहुत प्रभावित थे और उनके ऊपर कृपा रखते थे। सन्तों की कौन कहे स्वयं 'श्रीकृष्ण' उनसे आकृष्ट होकर जब तब किसी न किसी छल से उनके ऊपर कृपा कर जाया करते थे।         एक बार श्री जगन्नाथ प्रसाद जी 'भक्तमाली' अपने घर में बैठे हारमोनियम पर भजन गा रहे थे। उसी समय एक बहुत ही सुन्दर बालक आकर उनके सामने बैठ गया, और तन्मय होकर भजन सुनने लगा। 'भक्तमाली' जी ने बालक का श्रृंगार देखकर समझा कि वह किसी रासमण्डली का बालक है जो उनके भजन से आकृष्ट होकर चला आया है। भक्तमाली जी ने भजन समाप्त करने के बाद बालक से पूछा -"बेटा तुम कहाँ रहते हो ?" बालक ने कहा - "अक्रूर घाट पर भतरोड़ मन्दिर में रहता हूँ।" भक्तमाली जी - "तुम्हारा नाम क्या है ?" बालक - "लड्डू गोपाल।" 'भक्तमाली' जी - "तो तुम लड्डू खाओगे या पेड़ा खाओगे ?" उस समय 'भक्तमाली' जी के पास लड्डू नहीं पेड़े ही थे इसलिए उन्हों

भक्त नीलम्बरदास

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*रथ यात्रा 6*     जैसे कल हम सब ने सुना भक्त उद्यान में महाप्रभु जी को  ले जाते हैं।कैसे राजा प्रताप रुद्र पर कृपा होती है,अब फिर से रथ चलता है महाप्रभु बहुत आनंदित हो रथ खींचते है ,बहुत विभोर हो रहे हैं क्युंकि वो जानते है आज श्री जगन्नाथ जी वृन्दावन आ रहे हैं। यानी गुण्डिचा मन्दिर,,वो भी 100 साल बाद ।     आज तो महाप्रभु जी की खुशी का कोई ठिकाना नही रहा क्युंकि आज रथ गुण्डिचा मन्दिर आ गया यानी मेरे प्रभु आज वृन्दावन आ गये हैं,तो आज मन्दिर के बाहर रथ खड़ा हो गया,जगन्नाथ जी के श्री विग्रह रथ से नीचे ले कर आ रहे हैं,ज्यों  ही जगन्नाथ जी का विग्रह नीचे उतरे त्यों ही महाप्रभु ने जगन्नाथ जी को आलिंगन कर लिया ।       आज भी रथ जब गुण्डिचा मन्दिर आता है  तो भक्त जन की भीड़ कम हो जाती ही ,  भक्त जब दर्शन कर वापिस चले जाते हैं,तो जगन्नाथ जी अकेले ही होते हैं। तब तो इतनी छुट है की जगन्नाथ जी को तो कोई भी  भक्त गले तक लगा लेते है । महाप्रभु जी ने भी जगन्नाथ जी को गले लगा लिया ,और उन्मत नृत्य करते हैं। अपने भक्त जनों के साथ,इस समय भाव क्या है ,भाव ये है की ये सब गोपियां हैं ,तो गोपियों के साथ नृत्य क

सन्त कृष्ण दास जी

*"सन्त कृष्णदासजी"*               यह बात संसार में प्रसिद्ध है कि कृष्णदासजी ने लोगों को प्रेमरस अनुभूति कराई और ठाकुर श्रीनाथ जी ने आपको सच्चा भक्त कहके अपनाया। "आपने 'प्रेमतत्व निरुपण' नामक ग्रन्थ लिखा जिसे श्रीनाथ जी ने स्वयं मान्यता प्रदान की।" उस समय लाड़ले श्रीनाथजी ब्रज में ही गिरिराज शिखर पर विराज रहे थे, वहीं उनकी अष्टायाम सेवा होती थी।              एक बार कृष्णदास जी किसी कार्य से दिल्ली बाजार में गए वहाँ आपने गर्मा-गर्म जलेबियाँ बिकती देखीं, मन में इच्छा हुई कि इन स्वादिष्ट जलेबियों को अपने श्रीनाथजी को पवाने लिए ले जायें, किन्तु वहाँ दिल्ली से गोवर्धन (ब्रज) तक जलेबी ले जाते-जाते इतना अधिक समय हो जाता की वो जलेबियाँ भोग लगाने लायक न रहतीं, और फिर श्रीनाथ जी की सेवा में बाहर की किसी भी वस्तु का भोग निषेध था। कृष्णदास जी को बड़ा क्षोभ हुआ, वहीं उन जलेबियों को देखते हुए नेत्र सजल हो गए, आपने वहीं उन जलेबियों का मानसी भोग ठाकुर जी को लगा दिया। जब श्रीनाथ जी के मंदिर में जब भोग उसारा गया तो अन्य सामग्रियों के साथ जलेबियों का थाल भी पुजारियों ने देखा, सभ

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२ परम पूज्य भक्तमाली मणिराम माली जी चरित्र भाग -2 मणिराम माली पता नहीं कि कहाँ कौन बैठा है या क्‍या हो रहा है। वह तो उन्‍मत्त होकर नाम-ध्‍वनि करते  हुए नाचने लगे । कथा वाचक जी को उसका यह ढंग बहुत बुरा लगा। उन्‍होंने डाँटकर उसे हट जाने के लिये कहा, परंतु मणिदास तो अपनी धुन में था। उसके कान कुछ नहीं सुन रहे थे। कथा वाचक जी को क्रोध आ गया।  कथा में विघ्‍न पड़ने से श्रोता भी उत्तेजित हो गये। मणिदास पर गालियों के साथ-साथ थप्‍पड़ पड़ने लगे। जब मणिदास को बाह्यज्ञान हुआ, तब वह भौंचक्‍का रह गया। सब बातें समझ में आने पर उसके मन में प्रणय कोप जागा। उसने सोचा- जब प्रभु के सामने ही उनकी कथा कहने तथा सुनने वाले मुझे मारते हैं, तब मैं वहाँ क्‍यों जाऊँ ? जो प्रेम करता है, उसी को रूठने का भी अधिकार है। मणिदास आज श्री जगन्नाथ जी से रूठकर भूखा-प्‍यासा पास ही के एक मठ में दिनभर पड़ा रहा ।  मंदिर में संध्या-आरती हुई, पट बंद हो गये, पर मणिदास आया नहीं। रात्रि को द्वार बंद हो गये। राजा को स्‍वप्‍न में  पुरी-नरेश ने उसी रात्रि में स्‍वप्‍न में श्री जगन्‍नाथ जी के दर्शन किये। प्रभु कह रहे थे- तू कैसा राजा है !

भक्तमाली 1

१ परम पूज्य भक्तमाली श्री मणिराम माली जी श्री जगन्नाथ पुरी धाम में मणिदास नाम के माली रहते थे। इनकी जन्म तिथि का ठीक ठीक पता नहीं है परंतु संत बताते है की मणिदास जी का जन्म संवत् १६०० के लगभग जगन्नाथ पुरी में हुआ था । फूल-माला बेचकर जो कुछ मिलता था, उसमें से साधु-ब्राह्मणों की वे सेवा भी करते थे, दीन-दु:खियों को, भूखों को भी दान करते थे और अपने कुटुम्‍ब का काम भी चलाते थे । अक्षर-ज्ञान मणिदास ने नहीं पाया था। पर यह सच्‍ची शिक्षा उन्‍होंने ग्रहण कर ली थी कि दीन-दु:खी प्राणियों पर दया करनी चाहिये और दुष्‍कर्मो का त्‍याग करके भगवान का भजन करना चाहिये । संतो में इनका बहुत भाव था और नित्य मणिराम जी सत्संग में जाया करते थे । मणिराम का एक छोटा से खेत था जहांपर यह सुंदर फूल उगाता । मणिराम माली प्रेम से फूलों की माला बनाकर जगन्नाथजी के मंदिर के सामने ले जाकर बेचनेे के लिए रखता । एक माला सबसे पहले भगवान को समर्पित करता और शेष मालाएं भगवान के दर्शनों के लिए आने वाले भक्तों को बेच देता। फूल मालाएं बेचकर जो कुछ धन आता उसमे साधू संत गौ सेवा करता और बचे हुए धन से अपने परिवार का पालन पोषण करता था । कु

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*रथ यात्रा लीला 6*     जैसे कल हम सबने सुना मुस्लिम भक्त सालवेग के लिये रथ रुक जाता है,और कैसे सालवेग रथ पर ही अपने प्राण त्याग देता है ,आज भी सालबेग की समाधि पर रथ रुकता है ,अब मोटे मोटे रस्से फिर भक्त जन खींचते हुये हरि बोल करते आगे बढ़ते है।अब जगन्नाथ जी को भोग लगना है, अब रथ दो घन्टे रुकेगा, भक्त जन वहीं सडक पर रस्से को सिर के नीचे रख कर लेट जाते हैं।अब तो रथ चलने को अभी काफी  समय है ,भक्त जनों से महाप्रभु की दशा देखी नही जा रही ,तो भक्त जन महाप्रभु जी को एक बगीचे में ले आते हैं। यहां भी महाप्रभु बेसुध हो एक पेड के नीचे राधा भाव में पड़े है ।      राजा प्रताप रुद्र यही मौके के इन्तज़ार में था।जैसे भक्तों ने बता रखा था वैसा ही किया,भक्त जन भी आगे,पीछे हो गए ,अब राजा प्रताप रुद्र दबे पावँ दीन हीन ,फटे पुराने कपड़े पहन कर  आता है , क्युंकि वो जानता है महाप्रभु राजा से नही मिले सकते  । जहाँ महाप्रभु जी अचेत पड़े हैं ,और उन के श्री अंग की सेवा करने लगता है उनके श्री चरण कमल दबाता है,और जैसे भक्तों ने कहा था की गोपी गीत याद कर लेना और महाप्रभु को सुना देना ,अब साथ साथ श्री अंग सेवा करता और सा

5 रथ यात्रा

*रथ यात्रा लीला 5*     कल जैसे हम सबने सुना रथ चलता चलता रुक गया ,जगन्नाथ जी ने पण्डेय पुजारी को बोला,"जब तक मेरा भक्त साल्वेग मुझ को  फूल चन्दन,तुलसी ना चढा लेगा,  रथ हिलने वाला नही" ,तो नाम पुकारा गया तो साल्वेग बोला," मै हूं सालवेग ",तो उस को  स्नान करवाया गया ,शुद्ध किया गया ,फिर रथ पर चढ़ाया गया ,बहुत आनंदित हो गया  साल्वेग ,रोम रोम  गदगद हो गया ,प्रफुल्लित हो गया ,लेकिन ये है कौन साल्वेग ?     कटक का एक मुस्लिम  सूबेदार हुया ,  जिस का नाम लालबेग था ,बहुत ही निर्दयी था लाल बेग ।एक बार कहीं से निकल रहा था तो रास्ते मे एक ब्राह्मण कन्या  पर नज़र गई ,तो गलत भाव मन में आ गया,वो कन्या ब्रह्मणी थी ,छोटी आयु में ही सुहाग हीन हो चुकी थी।लालबेग जबरन उस जो उठा कर ले गया और उस से शादी कर ली और उस का नाम रख दिया फातिमा बेगम ।अब इस के यहां 5 संतान का जन्म हुआ लेकिन 4 संतान का शरीर शान्त हो गया ।एक एक बेटा बचा जिस का नाम रखा साल्बेग।     बड़ा होने पर साल्बेग को सेना में भर्ती कर लिया लालबेग ने,यद्ध में बहुत निपुण ,लेकिन एक लडाई पर सिर पर चोट आ गाई ,कही से वो घाव ठीक ना हुया तो

जगन्नाथ जी की बीमारी

*"क्यों बीमार पड़ते हैं श्री जगन्नाथ भगवान् ?"*🙏🏻🌹 *(भक्त माधव दास जी)*           उड़ीसा प्रान्त में जगन्नाथ पूरी में एक भक्त रहते थे, श्री माधव दास जी  अकेले रहते थे, कोई संसार से इनका लेना देना नही। अकेले बैठे बैठे भजन किया करते थे, नित्य प्रति श्री जगन्नाथ प्रभु का दर्शन करते थे, और उन्हीं को अपना सखा मानते थे, प्रभु के साथ खेलते थे। प्रभु इनके साथ अनेक लीलाएँ किया करते थे। प्रभु इनको चोरी करना भी सिखाते थे भक्त माधव दास जी अपनी मस्ती में मग्न रहते थे।          एक बार माधव दास जी को अतिसार (उलटी-दस्त) का रोग हो गया। वह इतने दुर्बल हो गए कि उठ-बैठ नहीं सकते थे, पर जब तक इनसे बना ये अपना कार्य स्वयं करते थे और सेवा किसी से लेते भी नही थे। कोई कहे महाराजजी हम कर दें आपकी सेवा तो कहते नही मेरे तो एक जगन्नाथ ही हैं वही मेरी रक्षा करेंगे। ऐसी दशा में जब उनका रोग बढ़ गया वो उठने-बैठने में भी असमर्थ हो गये, तब श्री जगन्नाथजी स्वयं सेवक बनकर इनके घर पहुँचे और माधवदासजी को कहा की हम आपकी सेवा कर दें।          क्योंकि उनका इतना रोग बढ़ गया था कि उन्हें पता भी नही चलता था, कब वे मल मूत

कर्मा बाई

सुदूर उड़ीसा के जगन्नाथपुरी धाम में आज भी ठाकुर जी को सर्वप्रथम मारवाड़ की करमा बाई का भोग लगता है :-  मारवाड़ प्रांत का एक जिला है नागौर। नागौर जिले में एक छोटा सा शहर है ..... मकराणा  यूएन ने मकराणा के मार्बल को विश्व की ऐतिहासिक धरोहर घोषित किया हुआ है .... ये क्वालिटी है यहां के मार्बल की .... लेकिन क्या मकराणा की पहचान सिर्फ वहां का मार्बल है ?? .... जी नहीं .... मारवाड़ का एक सुप्रसिद्ध भजन है .... थाळी भरकर ल्याई रै खीचड़ो ऊपर घी री बाटकी .... जिमों म्हारा श्याम धणी जिमावै करमा बेटी जाट की .... माता-पिता म्हारा तीर्थ गया नै जाणै कद बै आवैला .... जिमों म्हारा श्याम धणी थानै जिमावै करमा बेटी जाट की .... मकराणा तहसील में एक गांव है कालवा .... कालूराम जी डूडी (जाट) के नाम पे इस गांव का नामकरण हुआ है कालवा .... कालवा में एक जीवणराम जी डूडी (जाट) हुए थे भगवान कृष्ण के भक्त .... जीवणराम जी की काफी मन्नतों के बाद भगवान के आशीर्वाद से उनकी पत्नी रत्नी देवी की कोख से वर्ष 1615 AD में एक पुत्री का जन्म हुआ नाम रखा .... करमा .... करमा का लालन-पालन बाल्यकाल से ही धार्मिक परिवेश में हुआ .... माता

बांसुरी की धुन

*"बाँसुरी की धुन"*🙏🏻🌹           हरीराम बनारस में गुलाब की पत्तियों को पीसकर गुलकन्द बनाने का काम करता था। बनारस में उसकी गुलकन्द  दूर-दूर तक मशहूर थी। उसके एक बेटा और एक बेटी थी। बेटी का नाम सुकन्या था बेटी गुलकन्द बनाने में अपने पिता का पूरा साथ देती थी और इस काम में अपने पिता की तरह माहिर थी। सुकन्या की स्कूल में पढ़ाई के साथ-साथ नृत्य कला गायन कला और वाद्य कला का अभ्यास कराया जाता था। सुकन्या ने वाद्य कला में बाँसुरी का चुनाव किया और उसमें वह पूरी तरह निपुण हो गई थी, स्कूल में जब भी कोई धार्मिक समारोह होता तो सुकन्या बाँसुरी बजा कर सबका मन मोह लेती थी। हरीराम बनारस में तो गुलकन्द का व्यापार करता ही था। वह हर शहर में जाकर गुलकन्द बेचा करता था। इस काम में उसकी बेटी उसके साथ जाती थी। क्योंकि उसका बेटा अभी छोटा था और उसका ज्यादा रुझान पढ़ाई की तरफ था।           सुकन्या को अपने पिता का साथ देना बहुत अच्छा लगता था। ऐसे ही बाप बेटी हर शहर में जाकर गुलकन्द बेचकर अच्छी कमाई कर लेते थे। एक बार वृन्दावन में गुलकन्द बेचने का उनको सौभाग्य प्राप्त हुआ। दोनों बाप -बेटी वृन्दावन में एक

बरज के भक्त ईश्वरदास बाबा जी

*"व्रज के भक्त-66"*🙏🏻🌹 *श्रीईश्वरदास बाबाजी*      *(वृन्दावन)*           दिल्ली के श्रीईश्वरदयाल माथूर बी. ए. पास करने के बाद वृन्दावन की साधु माँ के शिष्य पं० मंगलसेन के सम्पर्क में आये। २५ वर्ष की अवस्था में उनसे दीक्षा ले वृन्दावन चले गये। दो-तीन वर्ष प्रेम महाविद्यालय में अध्यापन कार्य किया। इस बीच उनका मन भजन में इतना रम गया कि अध्यापन करना सम्भव न रहा। नौकरी से इस्तीफा दे उन्होंने किसी से वेश ले लिया। नाम हुआ ईश्वरदास।           अब उनका अधिकांश समय श्रीगौरांगमहाप्रभु की लीला से सम्बन्धित पदों की रचना करने में जाता। वे पद-रचना करते और श्रीओमप्रकाशजी कीर्तनियाँ नृत्य-कीर्तन सहित उनका अभिनय करते। अपनी रचनाओं का इस प्रकार कीर्तन और अभिनय के माध्यम से मूर्तरूप में आस्वादन कर वे आत्म-विभोर हो जाते। श्री ओमप्रकाशजी ने गौर-लीला-कीर्तन में निष्णात हो जो भक्त-समाज की सेवा की वह अपूर्व है। पर कम ही लोग जानते हैं कि उसके पीछे श्रीईश्वरदास बाबा का कितना हाथ था।           ईश्वरदास बाबा को ही आचार्य श्रीकिशोरीरमणजी की भागवत-कथा निष्णात करने का श्रेय है। १७ वर्ष की अल्पावस्था में ही

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*रथ यात्रा लीला 4*    कल हम सब ने सुना कैसे महाप्रभु जी अपने शीश से रथ को धक्का देते हैंऔर रथ चल पडता है ।चारो और हरि बोल की गूंज हो जाती है ।      अब उन्मत नृत्य कीर्तन चल रहा है ,रथ को चलता देख , जगन्नाथ जी को रथ मे बैठे देख महाप्रभु फिर राधा भाव में आविष्ट हो जाते हैं ,अब महाप्रभु जी कितना कितना ऊँचा उछल उछल नृत्य कर रहे हैं ,सब भक्त जन महाप्रभु जी का दर्शन कर रहे हैं ।जिस भक्त पर महाप्रभु जी का आंसू गिर जाता उस में भी ऊर्जा का संचार हो जाता,वो भी पागलों की भान्ति नाचने लग जाता । महाप्रभु जी के परिकर सब उन के दर्शन का आनन्द ले रहे हैं,क्युंकि वो जानते है ,जगन्नाथ जी और महाप्रभु में कोई भेद नही है।क्युंकि महाप्रभु जी को सचल जगन्नाथ  कहा जाता है और जगन्नाथ जी अचल जगन्नाथ कहा जाता है ,अब राधा भाव में आविष्ट हो कर रस्सा पकड लिया और रथ खींच रहे हैं और इस समय भाव क्या है  ।भाव यह है कि  रस्सा खींच कर जगन्नाथ जी को वृन्दावन ले जाना है ,राधा  भाव में महाप्रभु जी, बोल रहे हैं,"हे नंदनंदन  !हे श्याम सुन्दर ! 100 साल बीत गये  ,आप तो 2 दिन की कह कर गये थे ,क्या अपराध बना हम से ,क्या आप सब

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*रथ यात्रा लीला 3*    आज बहुत उन्मत हो नृत्य कर रहे हैं श्री मन महाप्रभु जी ।रथ के आगे ,हज़ारो भक्त जन रस्सा खींच रहे है ,लेकिन रथ नही चल रहा , लेकिन महाप्रभु जी तो राधा भाव मे आविष्ट हो भाव विभोर हो रहे हैं। ये सब देख राजा प्रताप रुद्र ने 10,000 हाथी बुलवा लिये ,हाथियों से रथ की  रस्सी बाँध दी ,लेकिन ये क्या रथ तो हिला भी नही ? लेकिन एक भक्त ने आ कर राजा से कहा ,"राजा जी ,जब तक श्री महाप्रभु रथ के आगे नृत्य कर रहे हैं, रथ नही चल सकता,महाप्रभु के नृत्य लीला को देख जगन्नाथ जी नही चलने वाले ।महाप्रभु जी को देख रहे हैं राजा प्रताप रुद्र जी ,और सोच रहे हैं कैसा प्रेम है इनका जो इतना रूदन कर रहे है ,और महाप्रभु जी इतना रूदन करते हैं की उनके आँसुओ से ज़मीन पर  कीचड़ हो जाता है।       हम कल्युगी जीव इस बात को नही मान सकते कि कितने आंसू होंगे की कीचड़ हो गया होगा ? लेकिन ये तो वही जान सकता है जिस ने देखा होगा ,ये सब उस समय के भक्तों ने अपनी आंखो से देखा है,भक्तों द्वारा लिखे ग्रंथ हैं।एक मात्र श्री मन महाप्रभु जी ही हैं जिनके बारे में उन्ही के काल मे लिखा गया, यानी उन की प्रगट लीला मे ही भक्त

रथ यात्रा 2

*रथ यात्रा लीला 2*     श्री मनमहाप्रभु जी भगवान जगन्नाथ जी के दर्शन कर रहे हैं,राय रामानंद जी बोले महाप्रभु जी आप ने सुबह का कुछ खाया भी नहीं है और रात भी हो गई है ,और कल रथ यात्रा भी है चलो ना महाप्रभु जी ।महाप्रभु बोले कुछ देर और मुझे अपने प्राण नाथ को देखने दो ना , आज तो महाप्रभु जी बहुत भोर में  उठ गये ,नरेंदर सरोवर स्नान कर सब भक्तों के साथ मन्दिर चले हैं,अब तो जगन्नाथ जी को लाने की तैयारी चल रही है ,लेकिन जगन्नाथ जी आज भी अपनी मर्ज़ी से चलते हैं ,आज भी रथ यात्रा मे किसी पण्डेय पुजारी से पूछौ की रथ कब चलेगा,क्या समय है रथ चलने का ,तो पुजारी यही बोलते हैं ,"कालिया जाने" ।मन्दिर से ले कर रथ तक गद्दे बिछाये जाते है ,और बाहर तीन रथ आ कर खडे हो जाते हैं ,जो कुछ महीने पहले ही बनने शुरु हो जाते हैं,इतने बड़े बड़े रथ आप हम सब ने दर्शन किया होगा ,बहुत आश्चर्य की बात है इन  रथों को बनाने में एक भी कील का प्रयोग नही किया जाता, अब तीनों रथ तैयार मन्दिर के बाहर खडे हो गये।    एक रथ जगन्नाथ जी का है ,जिस रथ का नाम  *नंदी  घोष*  है ,एक रथ सुभद्रा जी  का है ,जिस रथ का नाम *दरप दलन* है ,एक

नव कलेवर लीला 1

*नव कलेवर लीला 1*  नव कलेवर  लीला यानी भगवान जगन्नाथ जी के  विग्रह को पुरी धाम में बदला जाता है ,नया विग्रह बनाया जाता है ,इस सब की जो प्रक्रिया है इस को नव कलेवर लीला कहा जाता है ,लगभाग18 से 19 साल बाद नव कलेवर लीला होती है , नई लकडी(दारु)  ला कर भगवान जगन्नाथ जी का विग्रह तैयार किया जाता है ,वहाँ के पुजारी जनों को आज भी  स्वपन आता है ,स्वपन में बताया जाता है,वो पेड जिस की लकडी से विग्रह बनेगा,वो कहाँ पर चारो पेड मिलेगें ,जिस वृक्ष से  जगन्नाथ जी का विग्रह बनेगा उसके लक्षण बताये जाते है स्वपन में,फिर सब जंगलो में जाते हैं,जिस पेड से जगन्नाथ जी का विग्रह बनेगा उस के चिन्ह क्या हैं,वो साँवले रंग का पेड होगा ,उस के पास शिव मन्दिर होगा,उस पेड के रक्षा के  लिये नाग बेठे होगें,साथ श्मशान होगा,उस पेड पर कभी कोई पक्षी नही बैठा होगा,उस पेड पर शंख,गदा,चक्र के  चिन्ह बने होंगे ,इस पेड की चार शाखा  होंगी,     जिस पेड से   *बलराम*   जी का विग्रह बनेगा ,उस पेड के चिन्ह, गदा,हल का चिन्ह बना होगा ,इस की तीन शाखा होंगी ,जिस पेड की लकडी से    *सुभद्रा जी* जी का विग्रह बनेगा ,उस पेड पर पांच पंखुडी वाला