धैर्य और उत्साह
-- धैर्य और उत्साह – हमारी सफलता की कुंजी -- हमें धैर्य एवं उत्साहपूर्वक भक्ति करनी चाहिए । उत्साहात् निश्चयात् धैर्यात् तत्-तत् कर्म प्रवर्तनात् (श्री उपदेशामृत श्लोक -३) । हमें उत्साही होना चाहिए कि, “मुझे स्वयं को कृष्ण भावनामृत आंदोलन में में पूर्णतया रत करना है ।” उत्साह, यह प्रथम योग्यता है । सुस्ती आपकी कोई सहायता नहीं करेगी । आपको बहुत उत्साही होना होगा । मेरे गुरु महाराज कहा करते थे, “प्राण आछे यांर सेइ हेतु प्रचार ।” वह व्यक्ति प्रचार कर सकता है जिसमे प्राण हैं । एक मृत व्यक्ति ही प्रचारक नहीं बन सकता । आपको उत्साही होना चाहिए कि, “मुझे अपनी श्रेष्टतम सामर्थ्य से भगवान् कृष्ण की महिमाओं का प्रचार करना है ।” ऐसा नहीं है कि प्रचार करने के लिए किसी को बहुत विद्वान बनना होगा । केवल उत्साह की आवश्यकता है: मेरे भगवान इतने महान हैं, इतने दयालु, इतने सुन्दर, इतने अद्भुत हैं, इसलिए मुझे उनके विषय में कुछ बोलना चाहिए ।” यही योग्यता है, उत्साह । आप कृष्ण को पूर्ण रूप से नहीं जानते । कृष्ण को पूर्ण रूप से जानना संभव नहीं है । कृष्ण असीमित हैं । हम कृष्ण को शत-प्रतिशत नहीं नहीं जान सक