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Showing posts from 2017

भगवतीय कृपा

जो भगवदीय होते है, केवल उनके कंठ मे ही अमृत होता है। जब वे भगवदीय भगवद् लीला का वर्णन करते है तब वह कथामृत उनके मुख से निकलता है। और जो इस कथामृत को आदर पूर्वक पान करते है केवल वे ही भगवान को प्राप्त करते है।" इस तरह श्री हरिरायजी आज्ञा करते है की भगवदीय वही है जो (१) श्री आचार्यजी के श्री चरणों का दृड़ आश्रय रखता हो, (२) श्री ठाकोरजी की सेवा द्वारा संतुष्ट रहता हो और अन्य किसी देव का भजन स्वप्न मे भी न जानता हो, (३) अन्य किसी की अपेक्षा न करता हो, (४) काम लोभ मोह मत्सर आदि से रहित हो और द्रव्य का भी लोभ न हो, (५) निरपेक्ष भाव से प्रभु के सेवा करता हो, (६) मन से विरकत रहे - वैराग्य पूर्वक रहे, (७) प्राणी मात्र पे दया भाव रखता हो, (८) किसी की इर्षा न करता हो, और (९) भगवद् कथा आदर पूर्वक श्रवण करता हो। जिसमे यह सारे गुण - यह नव प्रकार के लक्षण देखने मिले उनका संग करना, शुद्ध मन से सन्मान करना और उनके वचनो पर दृड़ विश्वास रखना। इस प्रकार श्री महाप्रभुजी प्रसन्न हो कर वैष्णवो को आनंद का दान करते है। **************************** श्री ठाकुरजी की अतिशय कृपा से हमें यह मनुष्य शरीर मिला

भक्त वत्सलता

*भक्त वत्सलता* . महाराष्ट्र में कृष्णा नदी के किनारे करहाड़ नामक एक स्थान है, वहाँ एक ब्राह्मण रहता था . उसके घर में चार प्राणी थे- ब्राह्मण, उसकी स्त्री, पुत्र और साध्वी पुत्रवधू। . ब्राह्मण की पुत्रवधू का नाम था ‘सखूबाई’। . सखूबाई जितनी अधिक भक्त, आज्ञा कारिणी, सुशील, नम्र और सरल हृदय थी उसकी सास उतनी ही अधिक दुष्टा, अभिमानी, कुटिला और कठोर हृदय थी। . पति व पुत्र भी उसी के स्वभाव का अनुसरण करते थे। . सखूबाई सुबह से लेकर रात तक बिना थके-हारे घर केे सारे काम करती थी। . शरीर की शक्ति से अधिक कार्य करने के कारण अस्वस्थ रहती, फिर भी वह आलस्य का अनुभव न करके इसे ही अपना कर्तव्य समझती। . *मन ही मन भगवान् के त्रिभुवन स्वरूप का अखण्ड ध्यान और केशव, विठ्ठल, कृष्ण गोविन्द नामों का स्मरण करती रहती।* . दिन भर काम करने के बाद भी उसे सास की गालियाँ और लात-घूंसे सहन करने पड़ते। . पति के सामने दो बूँद आँसू निकालकर हृदय को शीतल करना उसके नसीब में ही नहीं था। . कभी-कभी बिना कुसूर के मार गालियों की बौछार उसके हृदय में शूल की तरह चुभती थी . परन्तु अपने शील स्वभाव के कारण वह सब बात

बिल्व मंगल

ओ प्रियतम नेक मेरी ओर भी निहार ............ - मधुरतम ''श्रीकृष्णकर्णामृत'' के रचयिता श्रीलीलाशुक विल्वमंगलजी- वृन्दावन असाधारण जीवन चरित :- ...............इनका जन्म दक्षिण भारत में कृष्णबेना नदी के तटस्थित एक गाँव में कुलीन ब्राह्मण के घर हुआ. यह परम पण्डित, सदाचार परायण थे. लीलाधारी की लीला! एक दिन पिता के साथ नदी के पार एक ग्राम में गये. वहाँ एक सुंदरी वैश्या-चिन्तामणि को देखा. पूर्वजन्म की दुर्वासना के वशीभूत होकर वैश्या पर मुग्ध हो गये. घर आना-जाना, पतिव्रता अपनी ग्रहिणी से सम्बंध तोड़ दिया. अब उस वैश्या के ही घर पर रहते. पिता इनके शोक से मर गये. इनकी स्त्री एक दिन के लिये इन्हें माँग लायी पिता के श्राद्ध के लिये. ये घर आये, श्राद्ध किया, किन्तु कामातुर होकर अन्धेरी रात में घर से निकल पड़े. पत्नी इनकी खोज में निकली. न पाकर नदी में डूबकर प्राण त्याग दिये. श्रीविल्व उफनती नदी पर खड़े कोई नौका ढूँढ रहे थे. पत्नी के बहते मृतक शरीर को नौका समझ उस पर चढ़ गये. नदी के पार चिन्तामणि के घर पहुँचे. सब किवाड़ बन्द थे. एक बहुत बड़ा सर्प लटकता देखा दीवार पर. साँप क

वेणु गीत

🎉  *"वेणु गीत"* 🎉 ⚪⚪⚪⚪⚪ शरद ऋतु के कारण वह वृन्दावन बड़ा सुन्दर  हो रहा था. जल निर्मल था और जलाशयों में खिले हुए कमलों की सुंगंध से सनकर वायु मंद–मंद चल रही थी. भगवान श्रीकृष्ण ने गौओं और ग्वाल बालो के साथ उस वन में प्रवेश किया, सुन्दर सुन्दर पुष्पों स परिपूर्ण हरी-हरी वृक्ष-पंक्तियो में मतवाले भौरे स्थान-स्थान पर गुनगुना रहे थे और तरह-तरह के पक्षी झुंड-के-झुंड अलग-अलग कलरव कर रहे थे. भगवान ने अपनी बाँसुरी पर बड़ी मधुर तान छेडी. श्रीकृष्ण की वह वंशी ध्वनि भगवान के प्रति प्रेमभाव को उनसे मिलन की आकांक्षा को जगाने वाली थी उसे सुनकर गोपियों का हदय प्रेम से परिपूर्ण हो गया. वे एकांत में अपनी सखियों से उनके रूप, गुण, और वंशी ध्वनि के प्रभाव का वर्णन करने लगी. वे मन-ही-मन  वहाँ पहुँच गयी, जहाँ श्रीकृष्ण थे, अब उनकी वाणी बोले कैसे? वे उसके वर्णन में असमर्थ हो गयी. वे मन-ही-मन देखने लगी . बर्हापीडं नटवरवपु: कर्णयो: कर्णिकारं,  बिभ्रद् वास: कनककपिशं वैजयंती च मालाम्  रंन्ध्रान् वेणोरधरसुधया पूरयन् गोपवृन्दै  र्वृन्दारण्यं स्वपदरमणं प्राविशद् गीतकीर्ति: .. “श्रीकृष्ण ग्

भज गोविन्दम

भज गोविन्दं भज गोविन्दं, गोविन्दं भज मूढ़ मते !!! यो यो यां यां तनुं भक्तः श्रद्धयार्चितुमिच्छति । तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम्‌ ॥ जो-जो सकाम भक्त जिस-जिस देवता के स्वरुप का श्रद्धा और भक्ति युक्त होकर अर्चन-पूजन करना चाहता है, उस-उस भक्त की देवता-विषयक उस श्रद्धा को मैं अचल - स्थिर कर देता हूँ। अभिप्राय यह है कि जो पुरुष पहले स्वभाव से ही प्रवृत हुआ जिस श्रद्धा द्वारा जिस देवता के स्वरुप का पूजन करना चाहता है उस पुरुष की उसी श्रद्धा को मैं स्थिर कर देता हूँ। स तया श्रद्धया युक्तस्तस्याराधनमीहते । लभते च ततः कामान्मयैव विहितान्हि तान्‌ ॥ मेरे द्वारा स्थिर की हुई उस श्रद्धा से युक्त हुआ वह उसी देवता के स्वरुप की सेवा-पूजा करने में तत्पर होता है। और उस आराधित देव विग्रह से कर्म फल विभाग को जानने वाले मुझ सर्वज्ञ ईश्वर द्वारा निश्चित किये हुए इष्ट भोगों को प्राप्त करता है। वे भोग परमेश्वर द्वारा निश्चित किए होते हैं इसलिए वह उन्हें अवश्य पाता है, यह अभिप्राय है। क्योंकि वे कामी और अविवेकी पुरुष विनाशशील साधन की चेष्टा करने वाले होते हैं, इसलिए अन्तवत्तु फलं तेषां त

Chant anyway

CHANT ANYWAY! Your mind is wondering all over the universe when you chant. Chant anyway! Your mind is wondering to the past and future when you chant. Chant anyway! You are not able to concentrate on Krsna's names while you chant. Chant anyway! You have no taste for chanting. Chant anyway! You have lusty desires. Chant anyway! You are making offences in chanting. Chant anyway! You are not praying to Krsna to help you chant better. Chant anyway! You often chant late at night. Chant anyway! So WHY? Why should you chant despite all the above obstacles? This is why: There is no vow like chanting the holy name, no knowledge superior to it, no meditation which comes anywhere near it, and it gives the highest result. No penance is equal to it, and nothing is as potent or powerful as the holy name. Chanting is the greatest act of piety and the supreme refuge. Even the words of the Vedas do not possess sufficient power to describe its magnitude. Chanting is the highes