प्रेम तत्व कल्याण अंक
“प्रेम-तत्त्व” कामना से युक्त होकर जो ईश्वर का भजन-चिंतन किया जाता है, वह कामना की पूर्ति होने या न होने पर ईश्वर से विमुखता उत्पन्न करता है। जैसे बच्चा माँ से पैसा माँगता है, जब तक माँ पैसा नहीं देती, तब तक तो वह माँ की ओर देखता रहता है, किंतु पैसा मिलते ही माँ से विमुख होकर भाग जाता है। यही दशा सकाम साधक की होती है। इसी प्रकार जो भक्ति भगवान् के गुण, प्रभाव ऐश्वर्य को लेकर की जाती है, वह भी स्वाभाविक नहीं है। वह साधन भक्ति है। प्रेम तो वह है, जो ईश्वर के साथ सम्बन्ध से होता है, जो उनको अपना मानने से होता है। वे चाहे जैसे हों, मुझसे प्रेम करें या न करें, दयालु हों चाहे निष्ठुर हों, परन्तु मेरे हैं- इस भाव से ही सच्चा प्रेम होता है। जैसे विवाह के पहले सगाई करते समय देखा जाता है कि लड़का कैसा है, परन्तु जब सम्बन्ध हो जाता है, तब तो वह अपना हो जाता है, वह चाहे जैसा हो, सती स्त्री का तो वही सर्वस्व है। उसने तो उस पर अपने-आपको न्योछावर कर दिया है। उसकी दृष्टि उसके गुण-दोषों की ओर नहीं जाती। जो साधक भगवान् को अपना लेता है, उनसे प्रेम करना चाहता है, वह क