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Showing posts from February, 2018

प्रेम तत्व कल्याण अंक

“प्रेम-तत्त्व”             कामना से युक्त होकर जो ईश्वर का भजन-चिंतन किया जाता है, वह कामना की पूर्ति होने या न होने पर ईश्वर से विमुखता उत्पन्न करता है। जैसे बच्चा माँ से पैसा माँगता है, जब तक माँ पैसा नहीं देती, तब तक तो वह माँ की ओर देखता रहता है, किंतु पैसा मिलते ही माँ से विमुख होकर भाग जाता है।  यही दशा सकाम साधक की होती है।             इसी प्रकार जो भक्ति भगवान् के गुण, प्रभाव ऐश्वर्य को लेकर की जाती है, वह भी स्वाभाविक नहीं है। वह साधन भक्ति है। प्रेम तो वह है, जो ईश्वर के साथ सम्बन्ध से होता है, जो उनको अपना मानने से होता है। वे चाहे जैसे हों, मुझसे प्रेम करें या न करें, दयालु हों चाहे निष्ठुर हों, परन्तु मेरे हैं- इस भाव से ही सच्चा प्रेम होता है। जैसे विवाह के पहले सगाई करते समय देखा जाता है कि लड़का कैसा है, परन्तु जब सम्बन्ध हो जाता है, तब तो वह अपना हो जाता है, वह चाहे जैसा हो, सती स्त्री का तो वही सर्वस्व है। उसने तो उस पर अपने-आपको न्योछावर कर दिया है। उसकी दृष्टि उसके गुण-दोषों की ओर नहीं जाती।            जो साधक भगवान् को अपना लेता है, उनसे प्रेम करना चाहता है, वह क

श्रीराधा अमृत कथा

🌷🌻 *श्री राधारमण जी अभिषेक भाव* (श्री राधारमण जी मन्दिर में गाया जानेवाला एक पद -श्री राधारमण गीता ग्रँथ से) 🌹🍃श्रीरूप मंजरी जी एवम श्री गुण मंजरी जी दर्शन कर रहे हैं 🎋वे कहते हैं आज हमारा मनभावन हो गया आज श्रीजी(श्री राधारमण जी) सिंहासन बैठे हैं और पंचामृत से नहा रहे हैं 🌿 *सखी री आज भये मन भाए।* *राधारमण सिंहासन बैठे पंचामृत में नहाए।।* क्या है उनका पंचामृत? 🍁 *लावन्यामृत दूध धार में वारुणी दधि लपटाए* श्री प्रियाजी का लावण्य अमृत ही दूध की धार है श्री राधारानी का आकर्षण ही दही है ऐसे दूध दही के अमृत से राधारमण जी के अंग सराबोर हैं ♦ *स्नेहामृत घृत चिक्कन श्रीतन मधु माधुर्य चुचाये* घी है राधारानी का स्नेह अमृत राधारानी का माधुर्य ही मधु है श्रीजी का तन पूरी तरह भीगा है कैसा अपूर्व दर्शन है 🌀 *निज अनुराग सिता के रस में भीजत हैं सचु पाए* पंचम अमृत धार राधारानी का अनुराग है जो सिता याने मिश्री जैसा मीठा है 🎗 *गौर अंग में श्याम रंग पट श्याम गौर दरसाये* श्रीराधारमण जी ने गौर(पीले) वस्त्र धारण कर लिया मानो राधारानी के आनंद को धारण किया है राधारानी ने श्याम रंग

भगवान का स्मरण कैसे हो

⛳🍁भगवान का स्मरण कैसे करें🍁⛳ १. ऐसे करो, जैसे अफीमची अफीम के न मिलने पर अफीम का स्मरण करता है | २. ऐसे करो, जैसे मुकदमेबाज मुकद्दमे का स्मरण करता है | ३. ऐसे करो, जैसे जुआरी जुए का स्मरण करता है | ४. ऐसे करो, जैसे लोभी धन का स्मरण करता है | ५. ऐसे करो, जैसे कमी कामिनी का स्मरण करता है | ६. ऐसे करो, जैसे जैसे शिकारी शिकार का स्मरण करता है | ७. ऐसे करो, जैसे निशानेबाज निशाने का स्मरण करता है | ८. ऐसे करो, जैसे किसान पके खेत का करता है | ९. ऐसे करो, जैसे प्यास से व्याकुल मनुष्य जल का स्मरण करता है | १०. ऐसे करो, जैसे भूख से सताया हुआ मनुष्य भोजन का स्मरण करता है | ११. ऐसे करो, जैसे घर भुला हुआ मनुष्य घर का स्मरण करता है | १२. ऐसे करो, जैसे थका हुआ मनुष्य विश्रामका स्मरण करता है | १३. ऐसे करो, जैसे भय से कातर मनुष्य शरण देने वाले का स्मरण करता है | १४. ऐसे करो, जैसे डूबता हुआ मनुष्य जीवन रक्षा का स्मरण करता है | १५. ऐसे करो, जैसे दम घुटने पर मनुष्य वायु का स्मरण करता है | १६. ऐसे करो, जैसे परीक्षार्थी परीक्षा के विषय का स्मरण करता है | १७. ऐसे करो, जैसे ताजे पुत्रवियोग स

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परिचर्या भाग 2 तिय के तन कौ भाव धरि सेवा हित श्रृंगार। युगल महल की टहल कौ तब पावै अधिकार।। नारी किंवा पुरुष हो जिनके मन यह भाव। दिन-दिन तिनकी चरण-रज लै लै मस्तक लाव।। दासी रूप के चिंतन से उपासक के चित्त में जिस भाव-स्वरूप का निर्माण होता है, वह उसका भाव-देह कहलाता है। जीव के प्राकृत देह का संचालन उसका मलिन अहंकार करता है, जिसके कारण वह अपने को अमुक जाति, कुल, वर्ण और सम्बन्धों वाला समझता है। उपासक के भाव देह का संचालन उसका शुद्ध अहंकार करता हैं, जिसके कारण वह अपने को राधामाधव की दासी एवं उनहीं के सम्बन्धों से सम्बन्धित व्यक्ति समझता है। भाव-देह के पुष्ट होने से प्राकृत देह का प्रभाव क्षीण होने लगता है एवं उससे सम्बन्धित सम्पूर्ण सम्बन्ध भी शिथिल हो जाते हैं। मनुष्य की इन्द्रियाँ निसर्गतः बहिर्मुख हैं अतः उसकी साधारण गति बाहर की और है। साथ ही, मनुष्य में कोई एक ऐसी चीज है जो बाहर की गति से सन्तुष्ट नहीं होती और उसको अन्दर की ओर जाने को प्रेरित करती है। सब साधना-मार्ग मनुष्य की इस अन्तर्मुखता को प्रोत्साहित करके उसको एक परम तोषमय पद पर पहुँचाने की चेष्टा करते हैं। दास किंवा सखीभाव क

परिचर्या1

परिचर्या भाग 1 परिचर्या का लक्षण गोस्वामी वृन्दावनदास जी ने बतलाया है ‘दास जिस प्रकार की सेवा नृपति की करता है, उस प्रकार की सेवा का नाम परिचर्या है। नवधा भक्ति में परिचर्या को पाद-सेवन कहते हैं।' परिचर्या तु सा ज्ञेंया सेवा या दास वन्नृपे। पाद सेवन मित्यस्याः पर्यायः श्रवणादिषु। सम्पूर्ण अधीनता प्रेम का एक अत्यन्त मौलिक अंग है, यह हम देख चुके हैं। यह अधीनता नितान्त स्वभाविक होती है, अतः इसका पूरा उदाहरण नहीं मिल सकता। क्रीतदासों की अपने स्वामी के प्रति एकान्त अधीनता से इसको कुछ समझा जा सकता है। किन्तु इन दोनों में एक बड़ा भारी अंतर यह है कि प्रेम में मनुष्य को बिना मोल बिक जाना पड़ता है। क्रीत दास अवसर मिलने पर मुक्ति का स्वप्न देखता है। प्रेमी के लिये मुक्ति अकल्पनीय ही नहीं, सबसे बडा अभिशाप है। उपासक के हृदय में प्रेम की इस सहज अधीनता को उदय करना ही ‘परिचर्या’ का प्रधान लक्ष्य है। परिचर्या दो भावों से की जाती हैं, दास-भाव से और दासी-भाव से। अधीनता समान होते हुए भी, रसिकों ने, रस के अधिकार की दृष्टि सी, इन दोनों में बहुत बडा अंतर माना है। उज्जवल रस की परिचर्चा में केवल दासी-भ