mc 21
मीरा चरित
भाग- 21
पथ पाकर जैसे जल दौड़ पड़ता है, वैसे ही मीराकी भाव-सरिता भी शब्दोंमें ढलकर पदोंके रूपमें उद्दाम होकर बह चली।
मेरे नयना निपट बंक छवि अटके।
देखत रूप मदन मोहन को पियत पीयूख न भटके।
बारिज भवाँ अलक टेढ़ी मनो अति सुगन्ध रस अटके।।
टेढ़ी कटि टेढ़ी कर मुरली टेढ़ी पाग लर लटके।
मीरा प्रभु के रूप लुभानी गिरधर नागर नट के।
मीराको प्रसन्न देखकर मिथुला समीप आयी और उसने गलीचेको थोड़ा समेटते हुए सम्मानपूर्वक घुटनोंके बल बैठकर धीमे स्वरमें कहा– "जीमण पधराऊँ (भोजन लाऊँ)?"
'अहा मिथुला, अभी ठहर जा अभी प्रभुको रिझा लेने दे। कौन जाने ये परम स्वतंत्र कब निकल भागें। आज प्रभु पधारे हैं तो यहीं क्यों न रख लें? किसी प्रकार जाने न दें-
ऐसो प्रभु जाण न दीजे हो।
तन मन धन करि बारणे हिरदे धरि लीजे हो।।
आव सखी! मुख देखिये नैणा रस पीजै हो।
जिण जिण बिधि रीझे हरि सोई कीजे हो।।
सुन्दर श्याम सुहावणा मुख देख्याँ जीजे हो।
मीरा के प्रभु श्यामजी बड़भागण रीझे हो।
मीरा जैसे धन्यातिधन्य हो उठी। लीला चिन्तनके द्वार खुल गये और अनुभव की अभिव्यक्ति के भी। दिनानुदिन उसके भजन-पूजनका चाव बढ़ने लगा। वह नाना भाँतिसे गिरधरका श्रृंगार करती कभी फूलोंसे, कभी मोतियोंसे, कभी जरीके जगमगाते वस्त्रोंसे और कभी पतले हल्के मलमलके सादे वस्त्रोंसे। भाँति-भाँति की भोजन सामग्री बनवाकर भोग लगाती, आरती करती और गा-नाचकर उन्हें रिझाती। शीतकाल की रात में उठ-उठ करके उन्हें ओढ़ाती और गर्मियों में रातको जागकर पंखा झलती। तीसरे-चौथे दिन कोई-न-कोई उत्सव होता ही रहता।
सगाई की चर्चा.....
मीराकी भक्ति और भजनमें बढ़ती रुचि देखकर रनिवासमें चिन्ता व्याप्त हो गयी। एक दिन वीरमदेवजी से उनकी पत्नी राणावतजी (श्रीगिरिजाजी) ने कहा 'मीरा दस वर्षकी हो गयी है। इसकी सगाई-सम्बन्धकी चिन्ता नहीं करते आप?'
'एक-दो बार विचार तो हुआ था, किन्तु कौन जाने दाता हुकम पसन्द करें कि नहीं?'
'क्या फरमाते हैं आप? अन्नदाता हुकम पसंद न करें, ऐसा भी कहीं हो सकता है? क्या उनकी और पोतियों का विवाह नहीं हुआ?'
'हुआ क्यों नहीं, पर वे मीरा नहीं थीं राणावतजी! उसकी जैसी शिक्षा-दीक्षा हुई हैं और जैसी उसकी बुद्धि है, उसके अनुसार वह साधारण बालिका नहीं है।'
'साधारण हो या असाधारण, विवाह तो करना ही पड़ेगा न?' 'रतनसिंहकी भी तो रुचि होगी, उससे तो कहो।'
'आज आपको क्या हुआ है? आपके रहते वे बेटी की सगाई करेंगे? बिचले लालजीसा की बेटी का सम्बन्ध उन्होंने किया था?'
'नहीं, पर रायसल ने किसीसे कहलवाया था कि लक्ष्मी के सम्बन्धमें इस लड़केका भी विचार कर लिया जाय। इसी प्रकार यदि रतनसिंहके भी ध्यानमें कोई पात्र हो तो कहलवा दे, यही अभिप्राय था मेरा।'
'एक पात्र तो मेरे ध्यानमें भी हैं।'
'तुम्हारे! बताओ कौन है वह, हम भी जान लें?'
'मेरे भतीजे भोजराज।'
‘क्या कहती हो! मेदपाटका महाराजकुमार! हँसी तो नहीं कर रही हो न?'
'नहीं, सत्य ही कह रही हूँ।'
'वे करेंगे यहाँ सम्बन्ध ? मेड़ता का राज्य है ही कितना? फिर मीरा तो छुटभाई की बेटी है। वैसे मीरा है उसी घर के योग्य। अँधेरे घरका दीपक है वह।'
'वाह, करेंगे क्यों नहीं? इसी अदने से मेड़ते में उन्होंने अपनी बहिन दी है। ले जाने में क्या आपत्ति होगी भला?'
'उन्होंने बहिन दी, सो तो हमारे भाग खुल गये न?'– वीरमदेवने मुस्कराकर पत्नीके कंधेपर हाथ रखा-
-'मेवाड़ की बेटियाँ पट्टमहिषी का भाग लिखाकर आती हैं। भला हमारी बेटियों की तुमसे क्या समता है?'
'अहा, बहुत ईर्ष्या है आपको मेवाड़ की बेटियों से? यदि यह छुट भाईकी बेटी मेदपाटकी स्वामिनी बन जाय तो?'
'सच कह रही हो न?"
'सरकारकी शपथ!'
गिरजाजी ने पतिकी छाती पर हाथ रखते हुए कहा 'करना-कराना तो सब चारभुजानाथ और एकलिंगनाथके हाथ है, पर प्रयत्न करना मेरा काम है, सो मैं करूँगी, किन्तु आप इतने आशंकित क्यों हैं? अरे, इन रणबंका राठौड़ों में भी दूदावतों की धीयड़ियोंको कौन वापस फेरेगा? जिनके रक्तमें वीरता और भक्ति समान रूपसे समायी हुई है।'
'तब और कहीं कुछ खोज-ढूँढ़ नहीं करनी है। तुम दीवानजी (चित्तौड़ अर्थात मेवाड़ के शासक जोकि अपने आप को एकलिंगनाथ जी का दीवान मानते थे) से पूछ लेना।’
मीराकी सगाई मेवाड़के महाराज कुँवर से होनेकी चर्चा रनिवासमें चलने लगी। मीरा ने भी सुना। वह पत्थर की मूर्ति की भाँति स्थिर हो गयी थोड़ी देर तक। वह सोचने लगी-
'भाबूने ही तो मुझे बताया था तेरा वर गिरधर गोपाल है। आज उन्ही भाबू के हिये में मेवाड़ के महाराजकुमार के नाम से जब हरख (हर्ष) समा नहीं रहा है तब और किससे पूछूँ ?' वह धीमे पदों से दूदाजी के महलकी ओर चली।
पलंगपर बैठे दूदाजी जप कर रहे थे। मीरा जाकर पलंगके पास खड़ी हो गयी। उन्होंने दृष्टि उठाकर उसकी ओर देखा-
'देहलता मानो रूपके भार से दबकर कसमसा रही हो, साँचेमें ढली मूर्ति अथवा कि लक्ष्मी ही बालिकाका रूप धा करके खड़ी हो। नहीं, नहीं, दबनेसे लता कुम्हला जाती है, मूर्तिमें प्राण नहीं होते। और लक्ष्मीमें स्थिरता नहीं रहती। यह तो यही है.... यही है।'
एकाएक वे मन-ही-मन चौंक गये—'क्या बात है? आज मीरा प्रसन्न नहीं दिखायी देती। सदाकी भाँति उछल करके पलंगपर नहीं चढ़ गयी?'
उन्होंने मालाके सुमेरुको आँखों से लगाकर गोमुखी से हाथ बाहर निकाला—'क्या बात है। बेटा! कुछ कहना है तो कहो?'
'बाबोसा'
'हाँ, हाँ, कहो।'– उन्होंने स्नेहसे उसके सिरपर हाथ रखा।
'एक बेटीके कितने बींद होते हैं?"
दूदाजी हँस पड़े—'क्यों पूछती हो बेटी! वैसे एक बेटी के एक ही बींद होता है। एक बींदके बहुत-सी बीनणियाँ तो हो सकती हैं। जैसे तेरे चार बड़ी माँ हैं, किन्तु किसी भी तरह एक कन्याके एक से अधिक वर नहीं होते।'
‘किसी भी तरह एकसे अधिक नहीं हो सकते?'– मीराने थोड़ा सोचकर फिर पूछा।
'बात क्या है बेटा! ऐसा नहीं होता, यह पाप है। तू अभी समझती नहीं, किन्तु नारीके ऊपर रक्तकी शुद्धताका भार है। पितरोंको तारनेका उत्तरदायित्व नारी का है। क्यों पूछ रही है, यह तो बता ?'
'बाबोसा! एक बार बारातको देखकर मैंने भाबूसे पूछा था कि मेरा बींद कौन है? उन्होंने फरमाया कि तेरा बींद गिरधर गोपाल है। आज....आज....।' – उसने अपने दोनों हासे मुख ढाँप लिया और हिलकियों के मध्य अपनी बात पूरी की -'आज, आज भीतर सब मुझे मेवाड़के राजकुँवरको ब्याहने की बात कर रहे हैं।'
क्रमशः
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