गौर उन्माद

श्रीमहाप्रभु जी में पुलकावली कैसी? की रोंगटों के साथ उनकी जड़ फफ़ोलो की भाँति फूल उठी थी प्रभु का शरीर शिमुली के वृक्ष की भाँति काँटे काँटे दिखता था
उनका एक एक दाँत कटकटा रहा था जिसे देखकर भय लगता था और सभी को ऐसा लगता था की उनके दाँत सभी बाहर आ पड़ेंगे। सर्वांग( सभी अँगो)  में ऐसा सवेद पसीना निकल रहा था की उसके साथ- साथ रक्त भी निकल रहा था। प्रभु जगन्नाथ कहते हुए ज-ज- ग- ग, ज- ज- ग- ग करके ही रह जाते। इस प्रकार उनका गदगद वचन या स्वरभंग बिचार था। उनके अश्रु तो पिचकारी की तरह छूट ही रहे थे उनसे आसपास के सभी लोग भीग रहे थे।
प्रभु के शरीर की ग़ौरकांति कभी तो अरुण( लाल) दीखने लगती और कभी मल्लिका के फूल की भाँति बिलकुल सफ़ेद ही हो जाती। कभी प्रभु स्तब्ध ( जड़वत) होकर पृथ्वी पर गिर जाते, सूखि लकड़ी वत हो जाते और उनके हाथ-पाँव चलने से रहित हो जाते
कभी तो पृथ्वी पर श्वासहींन होकर पड़ जाते और उन्हें इस अवस्था में देखकर भक्तों के प्राण मानो निकल जाते कभी उनके नेत्र, नासा से जल और मुख से झाग निकलने लगती ऐसा प्रतीत होता मानो चंद्र से अमृत बह रहा हो
श्रीमहाप्रभु के मुख से निकले प्रेम के सात्विकभाव
" फेंन" को श्रीशुभानंद ने लेकर पान किया वह महाभाग्यवान श्रीकृष्ण प्रेम में उन्मत्त हो उठा
इस प्रकार बहुत समय तक तांडव नृत्य करने के बाद प्रभु के मन में एक विशेष भाव का उदय हुआ

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