गोपी प्रेम

गोपी-प्रेम का वैशिष्ट्य

                   ( ब्रह्मलीन श्रद्धेय स्वामी श्रीशरणानन्दजी महाराज )

     एक भाई गोपी-प्रेम की बात पूछ रहा था । इसलिये कहना है कि जबतक प्राणी का शरीर और संसार से सम्बन्ध नहीं छूटता, जबतक वह शरीर को मैं और संसार को अपना मानता है, तबतक गोपी-प्रेम की बात समझ में नहीं आती । प्रेमी में चाह नहीं रहती इसलिये प्रेमी अपने लिये कुछ नहीं करता, जो कुछ करता है वह अपने प्रियतम को रस देने के लिये ही करता है । यहाँ तर्कशील मनुष्य यह प्रश्न कर सकता है कि भगवान् तो सब प्रकार से पूर्ण और रसमय आनन्दस्वरूप हैं । उनमें किसी प्रकार का अभाव ही नहीं है । उनको रस देने की बात कैसी ? उसको समझना चाहिये कि यही तो प्रेम की महिमा है, जो आप्तकाम में भी कामना उत्पन्न कर देता है, सर्वथा पूर्ण में भी अभाव का अनुभव करा देता है । प्रेमियों का भगवान् सर्वथा निर्विशेष नहीं होता । उनका भगवान् तो अनन्त दिव्य गुणों से सम्पन्न होता है और उनका अपना प्रियतम होता है । उनकी दृष्टि में भगवान् के ऐश्वर्य का भी महत्त्व नहीं है । उनका भगवान् तो एकमात्र प्रेममय और प्रेम का ग्राहक है ।

     प्रेमी भगवान् को रस देने के लिये ही अपना जीवन सुन्दर बनाते हैं, जैसे सुन्दर पुष्प को खिला हुआ देखकर वाटिका का स्वामी उस फूल से प्रेम करता है, उसको हाथ में लेता है, सूँघता है, उसकी शोभा को देखकर प्रसन्न होता है; वैसे ही भगवान् भी अपने प्रेमी को चाहरहित सुन्दर जीवन्मुक्त देखकर प्रसन्न होते हैं, उनको उससे रस मिलता है ।

     पुष्प तो जड होता है, इस कारण स्वयं माली से प्रेम नहीं करता । जैसे धन से मनुष्य प्रेम करता है, परंतु धन जड होने के कारण मनुष्य से प्रेम नहीं करता । जीव जड नहीं है, चेतन है; इसलिये यह भी अपने प्रियतम से प्रेम करता है अर्थात् भक्त भगवान् से प्रेम करता है और भगवान् भक्त से प्रेम करते हैं । भगवान् भक्त के प्रियतम और भक्त भगवान् का प्रियतम हो जाता है ।

    भगवान् श्रीकृष्ण और किशोरीजी की प्रेमलीला से यह बात स्पष्ट समझ में आ जाती है । उनकी लीला अपने भक्तों को प्रेम का तत्त्व समझाने और रस प्रदान करने के लिये ही हुआ करती है । एक समय श्यामसुन्दर के मनमें किशोरीजी को प्रेमरस प्रदान करने के लिये उनकी परीक्षा की लीला करने का संकल्प हुआ, तो आपने एक देवांगना का रूप धारण किया और किशोरीजी के पास गये । बातचीत के प्रसंग में श्यामसुन्दर ने कहा-'किशोरीजी ! आप श्याम-सुन्दर से इतना प्रेम क्यों करती हैं ? वे तो आपसे प्रेम नहीं करते ।' तब किशोरीजी ने कहा-'तुम इस बात को क्या समझो ! प्रेम करना तो श्यामसुन्दर ही जानते हैं । वे ही प्रेम करते हैं । मुझमें प्रेम कहाँ है ?' देवांगना बोली-'नहीं-नहीं, वे तो प्रेम नहीं करते, तुम्हीं प्रेम करती हो ।' तब किशोरीजी ने कहा-'देवी ! प्रेम करना जैसा श्यामसुन्दर जानते हैं, वे जितना और जैसा प्रेम करते हैं, वैसा कोई नहीं कर सकता ।' तब देवांगना बोली-'मैं तो यह नहीं मान सकती ।' किशोरीजी ने कहा-'तुमको कैसे विश्वास हो ?' देवांगना बोली-'यदि वे आपके बुलाने से आ जायँ तो मैं समझूँ कि सचमुच वे भी आपसे प्रेम करते हैं ।' किशोरीजी ने कहा-'यह तो तब हो सकता है जबकि कुछ समयतक तुम मेरी सखी बनकर यहाँ रहो ।' देवांगना ने किशोरीजी की बात स्वीकार की और उनकी सखी बनकर रहने लगी । तब किशोरीजी ने भाव में प्रविष्ट होकर भगवान् से कहा-'प्यारे ! तुम कहाँ हो ?' इतना कहते ही देवांगना से भगवान् श्यामसुन्दर हो गये । उनको देखकर किशोरीजी ने कहा-'ललिते ! वह देवांगना कहाँ है ? उसे बुलाकर प्यारे का दर्शन कराओ ।' तब ललिता बोली-'प्यारी ! उसीमें से यह देव प्रकट हुए हैं, वह अब कहाँ है ।' ललिता विवेक-शक्ति का अवतार है, यह भक्त और भगवान् को मिलाती रहती है । इस लीला से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि भक्त भगवान् से प्रेम करता है और भगवान् भक्त से प्रेम करते हैं ।

'कल्याण', फरवरी २०१६ ई○, विषय- गोपी-प्रेम का वैशिष्ट्य ( ब्रह्मलीन श्रद्धेय स्वामी श्रीशरणानन्दजी महाराज ), पृष्ठ-संख्या- ४२, गीताप्रेस, गोरखपुर

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