विरह सुख

विरह-सुख

* * * श्रीश्रीगौरांगदेव ने कहा था-

        युगायितं निमेषेण चक्षुषा प्रावृषायितम् ।
        शून्यायितं जगत्सर्वं गोविन्दविरहेण मे ।।

     'गोविन्द के विरह में मेरा एक निमेष भी युगों के समान लम्बा हो रहा है । ये दोनों आँखें सावन की जलधारा के समान सर्वदा बरस रही हैं और सारा जगत् मेरे लिये सूना हो रहा है ।'

     इस दुःखपूर्ण विरह में कितना असीम सुख है, इस बात का प्रेमशून्य हृदय से कैसे अनुमान लगाया जाय ? विरही है, पर इस जलन में ही महान् शान्ति का अनुभव करता है । वह कभी इस जलन को मिटाना नहीं चाहता । वह मिलन में उतना सुख नहीं मानता जितना विरह की अग्नि में जलते रहने में मानता है । 'हा प्राणनाथ ! हा प्रियतम ! हा श्रीकृष्ण ! इस तरह रोते-कराहते जन्म-जन्मान्तर बीत जायँ । मैं मिलना नहीं चाहता, चाहता हूँ तुम्हारे विरह में जी भरकर रोना और तुम्हारे वियोग की आग में जलते रहना । मुझे इसमें क्या सुख है इसको मैं ही जानता हूँ ।'

        बना रहे हमेशा यह विरह-दुख दिवाना,
        मैं जानता हूँ इसमें कितना मजा मुझे है ।

        *               *               *               *

        खुदा करे कि मजा इन्तजार का न मिटे;
        मेरे सवाल का वह दे जवाब बरसों में ।

     भगवत्प्रेम का पागल वह विरही अपने प्रियतम श्रीकृष्ण के सिवा और किसी को जानता ही नहीं, वह तो अपने को सदा के लिये उनकी चरणदासी बनाकर उन्हीं की इच्छापर अपने को छोड़ देता है और वियोग की ज्वाला में जलता हुआ ही उन्हें सुखी देखकर परम सुख का अनुभव करता है । महाप्रभु कहते हैं-

        आश्लिष्य वा पादरतां पिनष्टु मा-मदर्शनान्मर्महतां करोतु वा ।
        यथातथा वा विदधातु लम्पटो मत्प्राणनाथस्तु स एव नापरः ।।

     'वह लम्पट मुझ चरणदासी को प्रिय समझकर चाहे आलिंगन करे, चाहे अपने पैरों से कुचले और चाहे दर्शन न देकर विरह की आग से मेरे प्राणों को जलाता रहे-जो चाहे सो करे, परंतु मेरा तो प्राणवल्लभ वही है, दूसरा कोई नहीं ।'

     आपको यदि भगवान् के विरह में कुछ मजा आता है तो यह बड़े ही सौभाग्य की बात है । रोने में आनन्द आता है-यह भी बहुत उत्तम है । बस, रोते रहिये और प्रेम के आँसुओं से सींच-सींचकर विरह की बेल सारे तन-मन में फैलाते रहिये । उसकी जड़ को पाताल में पहुँचा दीजिये और फिर उसी की सघन छाया में उसी से उलझे बैठे रहिये । देखिये, आपका मजा कितना बढ़ता है-

     श्रीसूरदासजी ने रोते-रोते गाया था-

        मेरे नैना बिरह की बेल बई ।
        सींचत नीर नैन को सजनी ! मूल पताल गई ।।
        बिगसत लता सुभाय आपने छाया सघन भई ।।
        अब कैसे निरूवारौं सजनी ! सब तन पसर गई ।।

     यह सच है कि ऐसा विरही मिलन से वंचित नहीं रहता । सच्ची बात तो यह है कि वह नित्यमिलन में ही इस विरहसुख का अनुभव करता है । भगवान् उससे कभी अलग होते ही नहीं ।

'आनन्द का स्वरूप' पुस्तक से, पुस्तक कोड- 354, विषय- विरह-सुख, पृष्ठ-संख्या- १६३-१६४, गीताप्रेस गोरखपुर

नित्यलीलालीन श्रद्धेय श्री हनुमानप्रसाद जी पोद्दार भाईजी

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