वेणु गीत

भगवान श्रीकृष्ण का वंशी-निनाद माधुर्य का सिन्धु है....

इस वेणुनाद से पृथ्वी के जलचर और स्थलचर सभी जीव मोहित हो गए।
श्रीकृष्ण की वंशी-ध्वनि जिसके कान में प्रविष्ट हो गयी, वह श्रीकृष्ण के प्रेम को प्राप्त करने के लिए व्याकुल न हो उठे, ऐसा कोई है ही नहीं।

वृन्दावन के वनों में रहने वाली भीलनियों के कानों में जब श्रीकृष्ण की वंशी-ध्वनि प्रविष्ट हुई तो वह श्रीकृष्ण के प्रेम को प्राप्त करने के लिए व्याकुल हो उठीं।

वृन्दावन में विचरण करते समय श्रीकृष्ण के चरणों पर लगी हुई कुंकुम घास पर लग गई है।

यह कुंकुम रसप्राप्त है, क्योंकि भगवान के चरणों से जिसका सम्बन्ध हो जाए, वह असाधारण चीज हो जाती है।

वे भीलनियां उस कुंकुम लगे तृणों को अपने हृदय से लगाकर उस कुंकुम का सारे शरीर पर लेपन करने लगीं, तब उनकी वह श्रीकृष्ण-मिलन की पीड़ा शान्त हुई।

भगवान श्रीकृष्ण अपने मुख से वेणु में जो फूंक देते हैं, उस समय उनके मुख से जो अमृत वेणुनाद के रूप में वंशी के छिद्रों से निकला, उस अमृत को गायें और गायों के दूध पी रहे बछड़े अपना मुंह ऊपर करके, दोनों कानों का ‘दोना’ (पानपात्र) बनाकर पी रहे हैं, ताकि वंशीनाद की अमृतधारा कहीं नीचे न बह जाए अर्थात् कहीं उस अमृत की एक भी बूंद पृथ्वी पर गिर न पड़े।

इस वंशी-निनाद को सुनकर भावावेश के कारण गायें निष्पन्द हो गईं हैं और उनकी आंखों से आंसू बह रहे हैं तथा कान खड़े हैं।

हजारों गायें और बछड़े श्रीकृष्ण को घेरे चुपचाप खड़े हैं, और यह घेरना भी बड़ा विचित्र है, प्रत्येक गाय के सामने श्रीकृष्ण का मुख है।

वंशीनाद का श्रवण कर भगवान के मुख की ओर आंख लगाए ये गाएं उनके रूप-सौंदर्य को अपने हृदय में उतारना चाहती हैं, इसलिए उन्होंने आंखों पर आंसुओं का परदा डाल दिया है।

इन गायों का जीवन ही सार्थक है क्योंकि ये गायें वंशी-निनाद को सुनकर अपने-आपको भूल गयीं।

वन में तृण चरने गईं थीं, तृण चरना छोड़ दिया, आधे चबाये हुए घास उनके मुख में ही रह गए, जुगाली करना बंद हो गया।

गायों की दशा जैसी ही दशा उनके बछड़ों की भी है, स्तनपान करते हुए बछड़ों के मुख से दूध का ग्रास बाहर निकल पड़ा।

इस प्रकार वंशी-ध्वनि से देह की स्मृति भी भुला देना–ये तो बस गौओं के बस में है।

श्रीकृष्ण स्वयं उनका पालन करते हैं, उनको तृण, जल आदि देते हैं, उनके कोमल देह पर अपना हाथ फिराते हैं।

श्रीकृष्ण नित्य इनका दुग्धामृत पान करते हैं, तो स्वाभाविक ही गायों को श्रीकृष्ण से स्नेह होगा।

जगत में श्रीकृष्ण के सम्बन्ध की लेशमात्र गन्ध से जो सब कुछ भूल जाता है, वही धन्य है....

श्रीकृष्ण जब आम की नई कोंपलें, मोरों के पंख, फूलों के गुच्छे, रंग-बिरंगे कमल और कुमुद की मालाएं व पीताम्बर धारणकर  नट का-सा विचित्र वेष बनाकर ग्वालबालों की गोष्ठी में बीचों बीच बैठ जाते हैं और वंशी की मधुर तान छेड़ देते हैं।

उस समय मूढ़ बुद्धिवाली हिरणियां भी अपने पति कृष्णसार मृगों के साथ नन्दनन्दन के पास चली आती हैं और अपनी प्रेमभरी कमल के समान बड़ी-बड़ी आंखों से श्रीकृष्ण को निहारने लगती हैं, मानों श्रीकृष्ण के चरणों में अपने-आप को न्यौछावर कर रही हों।

श्रीकृष्ण की वंशी-ध्वनि को सुनकर नदियां कामुक स्त्रियों की भांति श्रीकृष्ण के निकट आते ही तरंगरूपी भुजाओं के द्वारा उनका आलिंगन करने को दौड़ीं।

उन्होंने श्रीकृष्ण की सेवा की चेष्टा नहीं की, स्वसुख के लिए श्रीकृष्ण की ओर दौड़ी।

श्रीकृष्ण हैं कामनाशक, जैसे ही नदियां ऊपर को उठीं श्रीकृष्ण ने अपने ऊपर आते नदियों के प्रवाह को रोक दिया।

मानो कह रहे हों:- जिसमें भोगासक्ति का लेश भी नहीं है, वही हमारे वक्ष:स्थल तक पहुंचकर मेरा आलिंगन कर सकता है।

नदियां अपने व्यवहार से लज्जित होकर श्रीकृष्ण के चरणों में गिर गईं।
उनके तरंगरूपी हाथों में जो कमल थे वे सारे भगवान के चरणों में उपहार बनकर गिर गए।

उस वंशी-ध्वनि ने सारे कामियों को विशुद्ध प्रेमी बना दिया था।
उस मुरली निनाद को सुनकर सबकी सांसारिक भोगों की सारी कामनाएं क्षण भर में नष्ट हो गईं थीं और सबका चित्त केवल श्रीकृष्ण में ही लग गया था।

यमुनाजी की शीतल जलधारा में पड़े भंवर, ऐसा लगता है जैसे ये एक ही स्थान पर स्थिर होकर वंशीनाद का भरपूर सुख भोगना चाहते हों।

यमुनाजी की शीतल जलधारा, मानो वंशी की मादक ध्वनि के प्रभाव से श्रीकृष्ण मिलन के लिए यह अपने तट-बंधन तोड़ने को व्याकुल हो रही है।

श्रीकृष्ण की वेणुमाधुरी से बादल भी अछूते नहीं हैं।

जब भी ये बादल श्रीकृष्ण को धूप में गौएं चराते हुए वेणुनाद करते हुए  सुनते हैं, तो उनके हृदय में प्रेम उमड़ आता है और वे श्याममेघ अपने सखा घनश्याम के ऊपर मंडराते हुए अपने शरीर को ही छाता बनाकर तान देते हैं।

जब ये बादल श्रीकृष्ण-बलराम के ऊपर नन्हीं-नन्हीं बूंदें बरसाते हैं तब ऐसा जान पड़ता है कि सफेद फूलों की वर्षा द्वारा अपना जीवन ही न्यौछावर कर रहे हैं।

वृन्दावन के ये पक्षी मामूली पक्षी नहीं हैं, ये तो आत्माराम हैं।
ये पक्षीरूप में महान ऋषि-मुनि ही हैं, जिन्हें यमुनातट पर मौन रहकर भक्ति करने की आदत पड़ गई है।

ये निरन्तर श्रीकृष्ण के मनन का आनन्द लेने वाले हैं।

ये वेणुनाद सुनकर वृक्षों की डालपर पलकें झुकाकर ऐसे बैठे हैं, मानो तपस्या में लीन हों।

ये पूर्वजन्म के ऋषि, पुष्पों से लदी डालपर बैठकर श्रीकृष्ण की रूपमाधुरी के दर्शनकर और उनकी वंशी की मधुर तान सुनकर अपने जीवन को सार्थक कर रहे हैं।

पक्षियों का स्वभाव होता है कि वे सायंकाल कोलाहल करते हैं।
लेकिन कन्हैया जब बाँसुरी बजाते हैं, तब वृन्दावन के पक्षी एक शब्द भी नहीं बोलते, वे मौन रहकर तन्मय होकर कन्हैया की बाँसुरी सुनते हैं।

मयूर, भौंरे, चकोर, सारस आदि सबको वंशी ने इस प्रकार बना दिया है कि अपने बोलने का नियम त्यागकर सबने जड़योग का व्रत ले लिया हैं:-

मोर, मधुप, चकोर, सारस, सबहि यह मत करयौ।आपनौ व्रत छांड़ि बानी, जोग जड़ व्रत धरयौ॥

श्रीकृष्ण जब वनभूमि में वेणुनाद कर रहे थे, तो मयूरों ने वहां इकट्ठे होकर अपनी-अपनी पूंछ फैलाकर नाचना शुरु कर दिया।

श्रीकृष्ण-दर्शन से ही जिसकी रग-रग नाच उठे, जिनका जीवन संगीतमय हो जाए, वे अत्यन्त सौभाग्यशाली हैं...!!!

Comments

Popular posts from this blog

शुद्ध भक्त चरण रेणु

श्री शिक्षा अष्टकम

श्री राधा 1008 नाम माला