mc 14
मीरा चरित भाग-14 यदि कुशल चाहते हो तो लौट जाओ चुपचाप और छः महीनेके बाद श्रीवर्धिनी बावड़ीसे मेरा दूसरा विग्रह मिलेगा। उसे मन्दिरमें स्थापित करो।' चकित हो सब बावड़ीकी ओर दौड़े और देखा कि सचमुच पानी लाललाल हो रहा है। भक्तराजसे क्षमा माँगकर सवार लौट गये। धीरे-धीरे वे बावलीमें उतरे और श्रीविग्रहको उठाकर हृदयसे लगा लिया। नेत्रोंकी वर्षासे उन्होंने अपने प्रियतमको स्नान करा दिया। हिचकी बँध गयी उनकी, वहीं सीढ़ीपर बैठ श्रीविग्रहको छातीसे लगा हाथ फेरते हुए गद्गद कंठसे कहने लगे- 'मारा धणी। मुज अधम माथे ऐटली बधी कृपा.... ऐटली बधी कृपा, मारी चोट तमे केम लीधी मारा वाला। तमे आ शूं किंधू....शूं किंधू।' वे श्रीविग्रहके वक्षपर सिर टिका फूट-फूटकर रो पड़े। उन्हें तो ज्ञात ही न हुआ कि श्रीविग्रहका स्पर्श पाते ही उनकी पीड़ा-चोट सब कपूरकी भाँति उड़ गयी। डाकोरमें अपने घर लाकर बरामदेमें फूसके छप्परके नीचे लकड़ीकी चौकीपर प्रभुको पधरा दिया। आज वहाँ भव्य मन्दिर है। बादमें द्वारिकासे पुजारी आये, लोभमें आकर उन्होंने गृहस्थ भक्तराज से श्रीविग्रह के बराबर सोना माँगा। भक्तप्रवरने अपनी पत्नीकी सोनेकी नथ औ...