10

मीरा चरित
भाग- 10

‘अब मैं जाऊँ कुँवरसा? गिरधर गोपाल अकेले हैं..??"
'जाओ बेटी! तुम्हारी माँ तुम्हें पहुँचा आयँगी।'
 'नहीं कुँवरसा! मैं चली जाऊँगी। डर-वर नहीं लगता मुझे। भाबू! आप यहीं बिराजें।'

 पिताकी गोदसे उतरकर मीराने माता-पिताको पुनः प्रणाम किया और देहरी लाँघकर बाहर निकल गयी। माता-पिता दोनों ही वात्सल्य विगलित दृष्टिसे अपनी इस असामान्य कन्याको जाते हुए देखते रहे। 
'मोह-माया तो जैसे इसे छू भी नहीं गयी।' वीरकुँवरीजीने कहा

'बच्चों को माँ से कितना मोह होता है?"

'कोयलेकी खानमें जब हीरा निपजता है तो वह खान भी इसी तरह बिसूरती है। वह क्या तुम्हारा सम्मान नहीं करती?'

 'माँ का हृदय सम्मान का भूखा नहीं होता। उसे बालक का स्नेह चाहिये। पास बैठी हो, तब भी लगता है बहुत दूर है।'

 'क्या कहा तुमने? अभी कितने मीठे स्वरसे बोली कि भाबू, आप यहीं बिराजें।'

"इससे अधिक अच्छा लगता मुझे, यदि वह कहती कि भाबू, मुझे गोदमें उठाकर वापस छोड़ पधारो, मुझे डर लगता है अथवा वह यह कहती कि भाबू, मैं भी आपके पास ही सो जाऊँ? मुझसे अधिक तो उसे अपने ठाकुरजीकी चिन्ता है।'

 'झालीजी! अब यह आशा छोड़ो। हम दोनों इसे भूमि पर लाने में निमित्तमात्र हैं। यह कोई महान् आत्मा है, जो अपना प्रारब्ध पूरा करने और जीवोंका कल्याण करने आयी है।'

भँवर जयमल का जन्म.....

संवत् १५६४ की आश्विन शुक्ला एकादशी को वीरमदेवजीके पुत्र जयमलके जन्मोत्सवके उपलक्ष्यमें छूटी तोपों की आवाजसे मेड़तेका गढ़ भँवर नगर गूँज उठा। दमामियों के गीत और नगारों से नँगारखाना धमधमा गया। बधाई माँगने और देनेवालों की ऐसी रेलम-पेल मची कि चारों ओर सिर-ही-सिर नजर आने लगे। सिंहपौरके ऊपर खड़े दो आदमी चाँदीके सिक्के अंजलि भर-भरकर फेंक रहे थे। मर्दाने महलमें राव दूदाजी प्रसन्न मुद्रामें गद्दीपर बिराजे थे। उनसे लगकर मीरा बैठी थी। दूदाजीके दोनों ओर रतनसिंह और रायसल बैठे थे।

दूदाजीके सामने मोहरों (स्वर्ण मुद्राओं) का थाल भरा हुआ रखा है। नगरके और परिवारके विशिष्टजन आते, बधाई देकर अंजलिमें रुपये लेकर नजराना करते। जिसके पिता संसारमें विद्यमान होते, उसकी अंजलिसे रुपये दूदाजी नहीं लेते, केवल उसे छूकर मुट्ठीभर अथवा अपनी अंजलिभर स्वर्ण मुद्राएँ रख देते। जिसके पिता नहीं होते, उसकी अंजलिसे सिक्के लेकर रख लेते और स्वर्ण दे देते।
 नगर सेठ आये, अम्बारी-आभूषण सहित सजा-धजा हाथी, एक घोड़ा और थालभर स्वर्ण मुद्राओंसे नजराना किया।

'आज तो आप स्वयं कहिये सेठजी! कि क्या दें हम आपको?"

 'आपने यह तुच्छ भेंट स्वीकार करके मुझे बहुत सम्मान बख्शा है महाराज ! आपके हाथसे मिली चाँदीकी पावली (चवन्नी) भी मुझे गौरवान्वित करनेको बहुत है।'-कहकर उन्होंने अंजलि फैला दी।

दूदाजीने अपनी अनामिकासे उतारकर हीरेकी अँगूठी उनकी अंजलिमें रख दी और रतनसिंहको संकेत किया। वे चाँदीका एक थाल, जो कपड़ेसे ढका हुआ था, उसे लाकर दूदाजीके सामने झुके। उन्होंने थालको हाथसे स्पर्श किया। रतनसिंहने वह थाल सेठजीको दे दिया। उसमें जरीका सरोपाव, जड़ाऊ सिरपेंच, कंठी, सोनेकी मूँठ और जरीके म्यानमें तलवार थी। सेठजीने झुककर थाल ले सिरसे लगाया और समीप खड़े अपने सेवकको थमा दिया।

राजपुरोहित, चारण, भाट, दमामी, भाँड और राजमहलके सेवकोंको निपटाते-निपटाते तो लगभग दस घंटे निकल गये। इस चक्रव्यूहसे निकलकर दूदाजी संतोंके समीप पहुँचे। द्वारसे ही उनके चरणोंमें प्रणाम कर बोले-
'मेड़ताके इस तुच्छ राज्य सहित सेवक दूदा राठौड़ श्रीचरणोंमें प्रणत है।' 
उनका आशीर्वाद प्राप्त करके ही उन्होंने विश्रामके लिये कमरबंद खोला। राज ज्योतिषीजीने बताया- "बालक जयमल महान योद्धा और उच्चकोटि के भक्त होंगे।"

'राजपूतका पुत्र योद्धा हो, यही तो चाहिये। ऊपरसे भक्त हो, यह तो जैसे सोनेमें सुगंध है।'  –दूदाजीके हृदयमें आनन्द जैसे समाता ही न था। कुँवर श्रीवीरमदेवजी कभी-कभार ही पिताके समीप आकर बैठते। वे अधिकांशतः अपने निजी कक्षमें ही रहा करते, किंतु बधाई देनेके लिये वहाँ भी लोगोंकी, सेवकोंकी भीड़ लगी ही रहती। बड़ी आयुके लोगोंको वे हँसकर दाता हुकुम के पास जाने की राय देते। सेवको और सखाओ की बात तो रखनी पड़ती..!!

एक दिन वीरमदेवजी दूदाजीके समीप बैठे थे। रतनसिंहने पहुँचकर दोनोंको अभिवादन किया और वीरमदेवजीकी ओर तिरछे देखकर दूदाजीसे बोले 'दाता हुकम! दादोसा हुकमने अभीतक मुझे बधाईमें कुछ नहीं बख्शा।’

"यह कैसे हो सकता है? क्यों भाई, ऐसे कृपण तुम कबसे हो गये?"
दूदाजीने मुस्कराकर वीरमदेवजीकी ओर देखा। वीरमदेवजीको भीतर-ही-भीतर काटो तो रक्त न आये; धरती फट जाये तो भीतर समा जायँ। न मुस्करा सकते थे, न डाँट ही सकते थे। पिता और भाई दोनोंकी दृष्टि उनके मुखपर थी। वे उठकर जानेको प्रस्तुत हुए तो रतनसिंहने अँगरखेका छोर पकड़ लिया। वीरमदेवजी मुँह फेरे हुए ही खड़े रह गये। मन ही-मन कहा—'रतनसिंह ठहर जा तू हो! ऐसा मजा चखाऊँगा तुझे कि हमेशा याद रखेगा।'

'ऐसा क्या चाहिये तुमको?' '–राव दूदाजी चकित हो बोले। 'सरकार बिराजें तो।'– रतनसिंहजीने हँसकर कहा।

'बैठो वीरमदेव! हम भी तो देखें कि रतनसिंहको तुमसे ऐसी कौन-सी बहुमूल्य वस्तु माँगनी है कि अकेलेमें कहनेपर मिलनेमें शंका रहती।' 
वीरमदेवजी बैठ गये तो रतनसिंहने पाँच स्वर्ण मुद्राएँ अंजलिमें लेकर दूदाजीको और उतनी ही मुद्राओंका नजराना वीरमदेवजीको किया। बेटेकी बधाईका नजराना पिताके सम्मुख स्वीकार करना वीरमदेवको बहुत कष्टकर प्रतीत हो रहा था, पर भाईका अपमान उससे भी अधिक कष्टकर था। भूमिकी ओर देखते हुए उन्होंने रतनसिंहके हाथको छू दिया। रतनसिंह वीरमदेवजीके सम्मुख घुटनोंके बल बैठ गये और हाथकी स्वर्ण मुद्राओंको सिरसे लगाकर यथा स्थान रख दिया। दरबारमें उपस्थित सभी लोग उन्हें आश्चर्यसे देख रहे थे।

‘यदि कभी जागीरके लोभवश मैं मेड़ता और आपको छोड़कर कहीं जाना चाहूँ तो किसी प्रकार न जाने दीजियेगा, चाहे इसके लिये बल प्रयोग ही क्यों न करना पड़े। इतनेपर भी यदि न मानूँ तो मेरा माथा उतार लें, किंत जीते-जी मुझे अपनेसे अलग न होने दीजियेगा।'- 
अंतिम वाक्य कहते-कहते रतनसिंहका गला भर आया। उन्होंने अपने हाथ जोड़कर आँसू भरी आँखोंसे बड़े भाईकी ओर देखा।

 संयत हो वीरमदेवजी उठ खड़े हुए। बलात् दोनों भुजाओंमें भरकर उन्होंने रतनसिंहको वक्षसे लगा लिया और भरे गलेसे बोले–
‘यह वचन रहा मेरे भाई कि हमें मृत्यु ही अलग कर पायेगी।'

दूदाजी और दोनों भाइयोंकी आँखोंसे आँसू बह रहे थे। दरबारमें सबकी आँखें गीली थीं। वीरमदेव और रतनसिंहने दूदाजीके चरणोंमें मस्तक रखा तो उन्होंने अपने सपूतोंको उठाकर एक साथ छातीसे भींच लिया। उन्होंने हर्ष-विह्वल-हृदय और भरे कंठसे कहा—'चारभुजानाथ ऐसे बेटे सबको दे, मेरे प्रभु! सबको दे।' उनकी आँखोंके आँसू बेटोंके सिरका अभिषेक कर उठे।
क्रमशः

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