मीरा चरित 1

इस जीवन चरित में तथ्यों का वर्णन ऐसे है जो अन्तर को भाव विभोर बना देते हैं।हृदयस्पर्शी वर्णन की सरसता को देखकर सहज अनुमान होता है कि इस वर्णन के पीछे मीराबाई के अनन्याराध्य श्री गिरधर गोपाल की कोई विशिष्ट योजना है।वर्णन की उत्कृष्टता ही एक सुगुप्त संकेत देती है कि मीराबाई के जीवन चरित की इस कृति में तथ्यों का जो वर्णन प्रतुत हुआ है वह सर्वाराध्य श्रीगिरधर गोपाल के द्वारा ही है।अपनी परमप्रेमास्पदा मीराबाई के महान जीवनोतसर्ग की रसमय गरिमा को उजागर करने के लिए उन सर्व प्रेरक गिरधर गोपाल ने माध्यम बनाया परम श्रद्धामयी सौभाग्य कुँवरी राणावत को।

मीरा चरित
भाग- 1

मेड़ता का राठौड़ राजवंश......

भारत का एक प्रांत है राजस्थान। इसी राजस्थान का एक क्षेत्र है मारवाड़ जो प्रसिद्ध है अपने वासियों की शुरता, उदारता, सरलता और भक्ति के लिए। राठौड़ राजपूतों का शासन रहा है इस भूभाग पर। मारवाड़ के राठौड़ों के मूल पुरुष राम "सिंहा" बड़े प्रतापी हुए। उन्होंने पाली में रहकर उपद्रवी "मेर" लोगों से ब्राह्मणों की रक्षा का भार अपने ऊपर ले लिया था। दूर-दूर तक उनकी प्रसिद्धि फैली और अंत में पाली के समीप वीडू नामक गांव में सोमवार 9 अक्टूबर 1273 ईस्वी को वह देवलोक सिधारे। उनके उत्तराधिकारी राव आस्थान थे इनके पुत्र धूहड़ ने राठौड़ों की कुलदेवी नागणेचा की मूर्ति को नागाणा गांव में स्थापित किया।

 उसके बाद क्रमशः राव रायपाल राव जालणसी राव छाड़ा राव तीडा राव कान्हड़ राव सलखा आदि राठौड़ वीर अपनी मातृभूमि के लिए मुसलमानों और विरोधियों से युद्ध करते खेत रहे।
 सलखा के पुत्र मल्लीनाथ सिद्ध वीर पुरुष हुए। इनके अनुज वीरमदेव के पुत्र चूंडा राठौर ने मंडोर राज्य अर्जित करके राठौड़ों की एक नवीन सत्ता का बीजारोपण किया। उनके पुत्र राव रणमल पराक्रमी पुरुष हुए। इनकी बहन हँसा बाई का विवाह मेडा के राणा लाखा से हुआ और हंसाबाई के गर्भ से महाराणा मोकल ने जन्म लिया यद्यपि मोकल अपने भाइयों में सबसे छोटे थे किंतु पूर्व प्रदत वचन के कारण मोकल ही उनके उत्तराधिकारी बने वह अधिक समय जीवित नहीं रहे और पासवान पुत्र चाचा तथा मेरा के द्वारा मारे गए।  मोकल के पुत्र कुंभा मेवाड़ के राज सिंहासन पर आसीन हुए। महाराणा कुंभा अल्प वयस्क थे अतः रणमल और उनके पुत्र जोधा मेवाड़ में ही रहने लगे। इस प्रकार मेवाड़ में राठौड़ों का बोलबाला हो गया यह सिसोदिया वीर सह न सके और अंत में मोकल के बड़े भाई चूड़ा जी के हाथों रणमल मारे गए तथा जोधा ने भागकर अपने प्राणों की रक्षा की। मेवाड़ी सेनाओं ने मंडोर पर अधिकार कर लिया कई वर्षों बाद हंसाबाई के आग्रह से मेवाड़ी सेना पीछे हटी और जोधा ने घोर संघर्ष के बाद पैतृक राज्य पाया।

राव जोधा बड़े भाग्यशाली पुरुष थे। उन्होंने 1459 ईस्वी में दुर्ग जो आज मेहरानगढ़ के नाम से प्रसिद्ध है उसकी नींव रखी। अपने नाम से जोधपुर नगर और राज्य की स्थापना की। मेवाड़ और मारवाड़ की कटुता का यही अंत हो गया मेवाड़ के महाराणा कुंभा महान शासक, कुशल सेनापति, सुप्रसिद्ध कवि और विद्वान पुरुष थे। सन 1468 ईस्वी में कुंभलगढ़ दुर्ग में उनका देहांत हुआ फिर रायमल गद्दी पर आसीन हुए। राव जोधा ने अपनी पुत्री श्रंगार देवी जो राव दूदा की सौतेली बहन थी उसका विवाह महाराणा रायमल से कर दिया। राव दूदा और राव वरसिंह का जन्म राव जोधा की सोनगरी (चौहानों की एक शाखा) रानी चंपाबाई के गर्भ से हुआ था जो पाली के सोनगरा चौहान सीमा सलावत की पुत्री थीं।

पिता की आज्ञा से राव दूदा ने जैतारण के स्वामी मेधा-सिंघल का वध करके प्रतिशोध लिया। राव जोधा की ओर से इन्हें मेड़ता की जागीर मिली। उजाड़ मेड़ता को दोनों भाइयों ने मिलकर आबाद किया और बेझपा कुंडल जलाशय के समीप संवत 1518 वि० संवत चैत्र शुक्ला 6 (1461 ई०) को गढ़ की नीव रखी।

 दादा राव दूदा महत्वाकांक्षी थे इसे ध्यान में रखकर और भविष्य में प्रेम बना रहे यह सोच कर राव वरसिंह ने राव दूदा को रायण की जागीर दी। राव दूदा रायण से अपने बड़े भाई राव बीकाजी के पास जांगलू चले गए। जांगलू जाते समय पीपासर में इनकी भेंट विश्नोई संप्रदाय के प्रवर्तक जंभोजी से हुई। उनके चमत्कारों से यह बड़े प्रभावित हुए। इन्होंने बीकाजी के साथ मिलकर सारंग खाँ पर चढ़ाई की और उसे मारकर अपने काका कांधल का प्रतिशोध लिया। पीपाड़ ग्राम की तीजणियों का अपहरण करने वाले अजमेर के हाकिम मल्लू खाँ ने भी दूदा के बल का अनुभव किया। मल्लू खान की ओर से मीर घुड़ला मारा गया और इधर से राव जोधा का पुत्र राव सातल काम आया। इसके पश्चात इनके भाई सूजा जोधपुर की गद्दी पर बैठे। इन्हीं राव सूजा की पुत्री एवं बाघा की पुत्री धनाबाई का विवाह महाराणा सांगा से हुआ।

 परास्त मल्लू खाँ चुप नहीं बैठा उसने धोखे से वरसिंह को बंदी बना लिया और विषपान करवा कर उन्हें मार डाला। मेड़ता की गद्दी पर वरसिंह के पुत्र सिंघा आए। उसे अयोग्य देखकर जोधपुर के राव सुजा ने मेड़ता को हस्तगत करने का विचार किया। ऐसी स्थिति में सिंघा की मां ने अपने उमरावो से विचार विमर्श किया और बीकानेर से राव दूदा को बुलाया। मेड़ता का शासन राव दूदा को सौंपा गया तथा राज्य की आधी आमदनी सिंघा को देना निश्चित किया गया। सिंघा शराब पीने पिलाने में धन का दुरुपयोग करने लगा जो राव दूदा से सहा ना गया।

 एक दिन अपने शराबी भतीजे सिंघा को नशे में धुत सोते हुए ही उठवा कर रायण पहुंचा दिया और इस प्रकार राव दूदा 1495 ईस्वी संवत 1552 विo में पूर्ण रूप से मेड़ता के स्वामी हुए।

 राव दूदा ने दूदासर बनाकर जनहित का परिचय दिया। चारभुजानाथ इनके इष्टदेव थे इसलिए मेड़ता में चारभुजानाथ का मंदिर बनवा कर पूजा अर्चना की समुचित व्यवस्था की। राव दूदा का देहांत संवत 1572 विo (1515 ईसवी) में हुआ..!!
क्रमशः

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