मीरा चरित 9

मीरा चरित 
भाग-9

‘वाह, तुमने तो चारणोंके समान प्रसन्न कर दिया मुझे। सच, जिस समय कड़खों और रणभेरीकी आवाजें कानोंमें पड़ती हैं। कवचकी कड़ियाँ खड़खड़ा उठती हैं, भुजाओंमें फड़कन होने लगती है, शरीरके रोमोंके साथ मूँछें भी खड़ी हो फरफराने लगती हैं, हृदयका उत्साह छाती फाड़कर बाहर निकलनेको आतुर हो उठता है। ऐसे में हाथ में असली सार (लोहा) की साँग हो और गान्धारी घोड़ेकी लगाम हो तो राजपूतके लिये धरती ओछी पड़ जाती है।'

'मैंने तो जो देखा-सुना, वही अर्ज किया है। कोई अतिशयोक्ति तो नहीं की। आजतक तो यही देखा-जाना है कि अपनी स्त्री, कर्तव्य-पालन और शरणागत के लिये राजपूत सारी दुनियाँको आग लगा सकता है।' 'तब तुम्हीं कहो, ऐसा करना क्या अनुचित है?'– रतनसिंहने मुस्कराकर पूछा।

'नहीं, नाहरों (शेरों) के लिये यही उचित है, किंतु आज लगता है कि नाहरकी बेटीको बकरी या गाय बननेकी शिक्षा दी जा रही है। शेरनीके गर्भसे ही शेर जन्म लेते हैं; गाय, बकरियोंके गर्भसे नहीं।' 
‘यह क्यों भूलती हो झालीजी कि शेर और बकरी जन्मजात होते हैं। विपरीत शिक्षा तभीतक काम करती है, जबतक समय नहीं आता। अन्याय देखकर क्षत्रिय संतान आँख नहीं मींच सकती, यह निश्चय मानो। मीरा कहाँ है? एक बार ला दो न उसे, बहुत दिनसे लाड़ नहीं कर पाया।'

‘आप कुछ माँगनेकी बात फरमा रहे थे?’

‘हाँ, यही माँगूँगा कि चाहे जैसा समय आये, हम भाइयोंको मृत्युके अतिरिक्त कोई अलग न कर सके। यदि कभी लोभके मारे कहीं जाना भी चाहूँ तो आप बलपूर्वक रोक दें। फिर भी यदि न मानूँ तो अपने हाथसे मेरा माथा उतार लें। ठीक है न?’

सुनकर वीरकुँवरीजीकी आँखों में आँसू भर आये। पति की समझदारी पर उनका मन गर्वसे भर आया। मनमें कहा-'कैसी कृपाकी प्रभुने कि आपकी संगिनी बननेका सौभाग्य मिला'–आँसू छिपाकर उन्होंने स्वीकृतिमें सिर हिला दिया।

'मीरा कहाँ है ? '

'ऊपर बालकोंवाले कक्षमें सो गयी होगी अब तक तो थोड़ा जल्दी पधारें तो.... ।'

'कैसे?' रतनसिंह हँस पड़े-'दाता हुकम और दादोसा हुकमके सामने ही उठकर आ जाऊँ? कभी-कभी भाई (पंचायण) की कमी बेहद खलती है। कोई तो हो, जो मेरे भी उठकर जानेकी प्रतीक्षा करे। भँवरके जन्मकी सूचना जायगी तो वह अवश्य आयँगे। तुम जाओ न, मीराको उठा लाओ।'

'जो रो पड़ी और चिल्लाई तो सबको मालूम हो जायगा।' 

'ऐसा नहीं होगा, वह बहुत समझदार है। दिनमें भी कुछ कहना होता है तो दाता हुकमकी दृष्टि बचाकर संकेत करती है कहीं एकान्तमें चलनेको। तुम उसे धीरेसे जगा देना, वह समझ जायगी।' 
वीरकुँवरीजीने जाकर धीरेसे मीराको जगाया और कानमें मुँह लगाकर कहा—   'तेरे कुँवरसा बुला रहे हैं।'

"अभी?"

"हाँ"

'क्यों?"

'सो तो नहीं जानती, उन्हींसे पूछ लेना चल शीघ्र ही, कोई जग जायगा।'

 'मेरे साथ गिरधर गोपाल सोये हैं। मेरे उठनेसे ये जाग जायँगे। कुँवरसाकी बात आप ही सुन लीजिये न। सबेरे मुझे बता दीजियेगा..!!'

'इस छोरीको तो कुछ समझमें ही नहीं आता। तू चल एक बार। डेढ बित्तेकी लड़की, मुझे अकल सिखा रही है।'

मीरा धीरेसे उठी। शय्यापर सोये गिरधरको अच्छी तरह ओढ़ाया और माँके साथ चल पड़ी। पिताके समीप पहुँच उसने हाथ जोड़ सिर झुकाते हुए अभिवादन शब्द उच्चारण किया- 'बावजी!'

"’चिरायु हो बेटी, इधर आओ।'-उन्होंने पलंगपर बैठे-बैठे ही हाथ बढ़ाकर उसे अपनी ओर खींच लिया। 
'यह तो आ ही नहीं रही थी। कहती थी कि आप ही पूछकर सबेरे बता दें मुझे।'– माँने कहा। 
‘नींद आ रही थी न? तुम्हारी नींद उड़ायी हमने, पर क्या करें? कभी कभी मन बेकाबू हो जाता है। रातके अतिरिक्त तो हम तुमसे मिल नहीं सकते न, कैसी चल रही है तुम्हारी शिक्षा?’

'ठीक ही है। योगमें आसन और प्राणायाम सीख रही हूँ। गुरुजीने योगकी उपयोगिता और उससे होनेवाली हानियाँ भी बतायी हैं। संगीतमें राग-रागनियोंका अभ्यास कर रही हूँ।'

‘घर-गृहस्थीका कुछ काम सीखती हो?’

‘हाँ, कभी-कभी म्होटा भाभा हुकम (ताईजी) के पास बैठती हूँ तो वे छोटा-मोटा काम बता देती हैं। मंजूषा-पेटीमें कुछ रखना, निकालना या ऐसा ही कुछ’

'सुना है किसी संतने तुम्हें ठाकुरजी बख्शे हैं?'

'हाँ कुँवरसा' मीराने उत्साहमें आकर बताया-'वही तो मेरे पास रहे थे। अभी नये-नये आये हैं न; तो उन्हें अच्छा नहीं लगता होगा, इसलिये मैं रातको अपने पास ही सुलाती हूँ। उनके लिये बाबोसाने सिंहासन, बरतन, वस्त्र और हिंडोला मँगवा दिये हैं।'

'और कुछ चाहिये तो हमें भी सेवाका अवसर दो न?' – रतनसिंहजीने मीराको गोदमें उठाकर गालोंपर चुम्बन देते हुए पूछा। 'और सब तो है।' मीराने सोचकर बताया-'गिरधर गोपालके लिये आभूषण नहीं है। आप बनवा देंगे?'

'अवश्य बनवा देंगे बेटी! बताओ, क्या-क्या आभूषण चाहिये ? '

"जो आभूषण आदमी पहनते हैं, वही। गिरधर गोपाल कोई लड़की हैं कि हँसली, चूड़ी चाहिये?"

"नहीं बेटी! वही तो एक आदमी हैं। रतनसिंहजी हँसकर बोले- 'मैं तो यह जानना चाहता था कि पैरोंके लिये लँगर बनवाऊँ या पायजेब-छड़े? हाथोंके लिये कड़े या पहुँची ?"

‘बनवा सकते हों तो दोनों ही बनवा दें।’

‘अच्छी बात है। आजकल श्रीगदाधरजी जोशी महाभारतकी कथा कह रहे हैं। तुम सुनती हो न?’ 'मैं तो नित्य ही बाबोसाके पास बैठकर सुनती हूँ, आप ही कभी कभी गायब रहते हैं।’

'भई, तुम्हें और बाबोसाको तो कुछ काम है नहीं। हम ठहरे सेवक राज्यके, सो दौड़ते-भागते कभी-कभार थोड़ा बहुत ज्ञान हमारे कानोंमें पड़ जाता है तो सुनकर कृतार्थ हो लेते हैं।'

‘बाबोसा फरमाते हैं कि यह ज्ञान ही मरते समय काम आता है। इसलिये ध्यानसे सुनकर उसपर विचार करना चाहिये। ऐसे भागते-दौड़ते सुना और विचार न किया तो वह तो कानसे निकल पड़ेगा न! पेटमें कैसे पहुँचेगा, पचेगा कैसे?’

रतनसिंहजीने हँसकर बेटीको छातीसे लगा लिया।

'हम तो चारभुजानाथसे यही मनाते हैं बेटी कि मातृभूमिके लिये रणमें तलवार चलाते हुए प्राण छूटें। इसमें न कुछ सुनना पड़ता है न गुनना। अत्याचारियों और अन्यायियोंसे आर्तजनोंकी रक्षा और प्रभुका नाम; केवल यही तेरे पिताके धर्म, कर्म, योग और ज्ञान हैं। तुम बताओ, यह सब तो सीखती हो, स्वास्थ्यके लिये कुछ खेलकूद भी करती हो?'

'हाँ कुँवरसा बाबोसा फरमा रहे थे कि एक वर्ष बाद घोड़ा और शस्त्र चालन भी सिखायेंगे।'

‘अभी क्यों नहीं? चार वर्षकी हो तुम। अभीसे अभ्यास नहीं करोगी तो समयपर सीख नहीं पाओगी।’

‘बाबोसा फरमा रहे थे कि एक वर्षमें मेरी संगीत शिक्षा पूरी हो जायगी। वह जो समय बचेगा, उसमें सामान्य शस्त्र और अश्व शिक्षा हो जायगी।
क्रमशः

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