सिद्ध और साधक

एक आंतरिक प्रश्न के उत्तर में भगवान ने कल कुछ कहा जिसे शब्दों में ढालना सहज नहीँ , साधक के प्रति आकर्षण होता है , सिद्ध के प्रति समर्पण । विषय गूढ़ होने से कहते नही होगा ।

साधक एक चुम्बक है वह लोलुप्ता के चुम्बक से सर्व भुत रस को खेंचता है  , और सिद्ध एक कमलवत् है जिसने रस में पूर्ण गोता लगाया हो , सिद्ध तृप्त है अथवा सारत्व का पान कर चूका है ।
साधक चन्द्र की तरह सूर्य से ऊष्मा प्राप्त अवस्था है और सिद्ध सूर्य है । वैसे सूर्य भी सूक्ष्म रूप साधक है उसे भी प्रकाश प्राप्त हो रहा है वह प्रकाश का जनक नहीँ है ।
साधक के लिये आकर्षण का कारण उसकी कृष्णीय शक्ति है , खिंचने की शक्ति । परन्तु साधक एक व्याकुल अवस्था है , वह अतृप्त रहेगा तो ही रस को स्वयं से अभिन्न कर सकेगा

सिद्ध को लोभ और लोलुप्ता का सार प्राप्त होता है वह दृष्टि से समर्पित को निहाल कर सकता है , उसे पदार्थ भोग की आवश्यकता नही रहती ।
साधक की आकर्षणी शक्ति उसकी व्याकुलता से है उसे चुम्बक ही रह कर रस अवशोषण करना चाहिये , अभिव्यक्ति साधक को सिद्ध कर देती है जबकि सिद्ध अवस्था उसे प्राप्त नही , वह व्याकुल रहे तो रस अवशोषण चलता रहे , जिस नाम का वह गान कर रहा है वह व्यापक प्रकृति स स्वतः आकर्षित होता रहे । यहाँ परम् तत्व लोह रूप है और साधक चुम्बक रूप । परन्तु साधक स्वयं को सिद्ध जान रस प्रदाता हो जाता है जिससे उसकी रस अभिन्न व्याकुलता विकेन्द्रित होने लगती है , उसे खेंचना है व्याकुल हो सार तत्व और वह देने लगता है , अतः भटक जाता है । साधक और सिद्ध के प्रति इतना अंतर काफी है साधक आकर्षित करता है और सिद्ध के प्रति समर्पण होता है । सिद्ध के प्रति भगवान जैसा समर्पण होता है , सिद्ध अवस्था में पूर्णत्व स्वरूपगत लक्षित रहता है अर्थात् वह ईश्वर से अभिन्न स्थिति होती है । साधक को आकर्षण से बचना चाहिये , वरन् यह आकर्षण वह समर्पण समझ भटक सकता है । साधक का अवशोषण उसकी आंतरिक अग्नि से ही सम्भव और सिद्ध तो प्रकाशित है , भजन के प्रभाव से उसकी कृपा का आयाम फैलता है । और साधक का भजन प्रभाव से व्याकुलता गहराती है , अर्थात् भजन उसकी चुम्बकीय शक्ति को विकसित करता है , साधक का भजन अर्थात् नित्य पल की व्याकुलता , भजन का रसास्वादन तो सिद्ध अवस्था है ।
सत्यजीत तृषित
... जहाँ सत्य तत्व जितना जागृत वहाँ साधक रूप आकर्षण अधिक क्योंकि यह आकर्षण का सजातीय आकर्षण है अर्थात् रस का रस से , सत्य का सत्य से , जैसे जल अणु परस्पर निकट हो तो आकर्षित हो एक धारा बना लेते है । सिद्ध के भीतर कृष्ण और बाहर राधा तत्व है अगर वह प्रेम पथिक है तो , ज्ञान पथिक है तो बाहर संकर्षण रूप है भीतर कृष्ण । संकर्षण ऊर्जा का फैलाव रूप है जैसे सूर्य प्रकाश प्रदाता है , और कृष्ण रस अर्थात् वास्तविक ऊर्जा का अवशोषण । इसलिये वह चन्द्र अवस्था है । वास्तविक साधक चन्द्र और सूर्य की अभिन्नता को जानते है यह दो धुरियां है । पूर्णत्व के लिये दोनों आयामों में समावेश आवश्यक है , इसलिये युगल तत्व का महत्व है । युगल तत्व में विपरीत रस एक दूसरे के पोषक है । जयजय, विराम लेते है , विषय लम्बा हो गया ।

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