परिचर्या1

परिचर्या भाग 1

परिचर्या का लक्षण गोस्वामी वृन्दावनदास जी ने बतलाया है ‘दास जिस प्रकार की सेवा नृपति की करता है, उस प्रकार की सेवा का नाम परिचर्या है। नवधा भक्ति में परिचर्या को पाद-सेवन कहते हैं।'

परिचर्या तु सा ज्ञेंया सेवा या दास वन्नृपे।
पाद सेवन मित्यस्याः पर्यायः श्रवणादिषु।

सम्पूर्ण अधीनता प्रेम का एक अत्यन्त मौलिक अंग है, यह हम देख चुके हैं। यह अधीनता नितान्त स्वभाविक होती है, अतः इसका पूरा उदाहरण नहीं मिल सकता। क्रीतदासों की अपने स्वामी के प्रति एकान्त अधीनता से इसको कुछ समझा जा सकता है। किन्तु इन दोनों में एक बड़ा भारी अंतर यह है कि प्रेम में मनुष्य को बिना मोल बिक जाना पड़ता है। क्रीत दास अवसर मिलने पर मुक्ति का स्वप्न देखता है। प्रेमी के लिये मुक्ति अकल्पनीय ही नहीं, सबसे बडा अभिशाप है। उपासक के हृदय में प्रेम की इस सहज अधीनता को उदय करना ही ‘परिचर्या’ का प्रधान लक्ष्य है। परिचर्या दो भावों से की जाती हैं, दास-भाव से और दासी-भाव से। अधीनता समान होते हुए भी, रसिकों ने, रस के अधिकार की दृष्टि सी, इन दोनों में बहुत बडा अंतर माना है। उज्जवल रस की परिचर्चा में केवल दासी-भाव का ही अधिकार है। दास भाव ही नहीं, सख्य एवं बत्सल भावों का भी वहाँ प्रवेश नहीं होता। उज्जवल रस की उपासना की दृष्टि से दास-भाव, सख्य-भाव, वत्सल-भाव एवं दासी-भाव किंवा सखी-भाव के तारतम्य को स्पष्ट करते हुए गोस्वामी ब्रजलाल जी कहते हैं ‘दास अपने स्वामी श्रीकृष्ण की सेवा राजसभा में कर सकता है, अन्तपुर में उसका कोई अधिकार नहीं होता है। सखागण श्रीकृष्ण के साथ समानता के भाव से हास-परिहास करते हैं किन्तु रहस्य में उनका भी प्रवेश नहीं है। वत्सल भाव में स्नेह तो खूब होता हैं किन्तु दोनों के बीच में स्वामि-सेवक भाव नहीं होता। अतः श्री राधा की दासी किंवा सखी भाव के बिना उपासक का प्रवेश रास लीला में नहीं होता।

दासः स्वास्वामि सेवा सदसि च कुरुतान्नान्तर स्याधिकारः,
सख्ये कृष्णेन हासादिक मथ कुरुतान्नो रहस्ये प्रवेशः।
वात्सल्ये स्वामि भावः कथमिहमनयोः संभवेद्राधिकाकाया,
दास्यात्सख्याद्विना किंभवति चभजताँ रास लीला प्रवेशः।
संपूर्ण श्री राधासुधा निधि स्त्रौत में एकमात्र भी राधा दास्य की प्राप्ति की प्रार्थना की गई है। श्री राधा के अद्भुत रूप के वर्णन के साथ उनके सुदुर्लभ दास्य को प्राप्त करने की तीव्र आकांक्षा इस ग्रन्थ में पद-पद पर दिखलाई देती है। श्रीराधा के दास्य का अधिकार कितना दुर्लभ है इसको एक श्लोक में स्पष्ट करते हुए वे प्रार्थना करते हैं ‘जो लक्ष्मी को गोचर नहीं है, जो श्री कृष्ण-सखाओं को प्राप्त नहीं है और जो ब्रह्मा, नारद, शिव, आदि के लिये संभाव्य नहीं है, जो वृन्दावन की नागरी सखियों के भाव के द्वारा किसी प्रकार लभ्य हैं, श्रीराधा-माधव की एकान्त-क्रीडा का यह दास्याधिकार रूपी उत्सव मुझे प्राप्त हो।'

अन्यत्र, इस सुदुर्लभ दास्य की रमणीयता का स्मरण करते हुए वे आकुलता से पूछते हैं, ‘जिन प्रेम घनाकृति श्री राधा के पद-नख-ज्योत्सना-प्रवाह में स्नान किये हुए हृदयों में कोई अनिर्वचनीय, सरस एवं चमत्कार पूर्ण भक्ति समुदित हो जाती है, वे गोकुल-भूप-नंदन के मन को चुराने वाली किशोरी अपना वह दास्य मुझे कब प्रदान करेंगी जो सम्पूर्ण वेदों के शिरोभाग रूप उपनिषदों का परम रहस्य हैं।’

यत्साः प्रेम घनाकृतेः पद-नख-ज्योत्सना भर स्नापित,
स्वान्तानं समुदेति कापि सरसा भक्तिश्चमत्कारिणी।
सा में गोकुल-भूप-नंदन मनश्चोरी किशोरी कदा,
दास्यं दास्यति सर्व वेद शिरसाँ यत्तद्रहस्यं परम्।।

उपासक को अपने हृदय में दासी भाव का अंगीकार करके परिचर्या में प्रवृत्त होना चाहिये। दासीभाव के अंगीकार का अर्थ यह है कि उसे अपने आप को राधा-किंकरी के रूप में देखना चाहिये। इसके लिये उपासक को यह अनुभव करना चाहिये कि ‘मैं एक परम सुकुमारी किशोरी हूँ, जिसने अपनी स्वामिनी के द्वारा प्रणय पूर्वक दिये हुए वस्त्राभूषणों को धारण कर रखा है, जो सदैव अपनी स्वामिनी के पाश्र्व में स्थित है और जो नाना प्रकार की परिचर्याओं में चतुर हैं।'

श्यामा श्याम की परिचर्या का प्रकार बतलाते हुये श्रीध्रुवदास जी कहते हैं ‘उपासक को स्नानादिक से निवृत्त होकर अपने मस्तक पर तिलक धारण करना चाहिये और फिर स्त्री के शरीर का भाव रख कर सेवा के निमित्त विविध श्रृंगारों को उस शरीर पर धारण करना चाहिये। युगल के महल की टहल का अधिकार तभी प्राप्त होता है। नारी किंवा पुरुष जिनके हृदय में भी यह भाव स्थिर हो गया है उनके चरणों की रज लेकर नित्य प्रति अपने मस्तक पर धारण करनी चाहिये।'
क्रमशः

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