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परिचर्या भाग 2

तिय के तन कौ भाव धरि सेवा हित श्रृंगार।
युगल महल की टहल कौ तब पावै अधिकार।।
नारी किंवा पुरुष हो जिनके मन यह भाव।
दिन-दिन तिनकी चरण-रज लै लै मस्तक लाव।।

दासी रूप के चिंतन से उपासक के चित्त में जिस भाव-स्वरूप का निर्माण होता है, वह उसका भाव-देह कहलाता है। जीव के प्राकृत देह का संचालन उसका मलिन अहंकार करता है, जिसके कारण वह अपने को अमुक जाति, कुल, वर्ण और सम्बन्धों वाला समझता है। उपासक के भाव देह का संचालन उसका शुद्ध अहंकार करता हैं, जिसके कारण वह अपने को राधामाधव की दासी एवं उनहीं के सम्बन्धों से सम्बन्धित व्यक्ति समझता है। भाव-देह के पुष्ट होने से प्राकृत देह का प्रभाव क्षीण होने लगता है एवं उससे सम्बन्धित सम्पूर्ण सम्बन्ध भी शिथिल हो जाते हैं। मनुष्य की इन्द्रियाँ निसर्गतः बहिर्मुख हैं अतः उसकी साधारण गति बाहर की और है। साथ ही, मनुष्य में कोई एक ऐसी चीज है जो बाहर की गति से सन्तुष्ट नहीं होती और उसको अन्दर की ओर जाने को प्रेरित करती है। सब साधना-मार्ग मनुष्य की इस अन्तर्मुखता को प्रोत्साहित करके उसको एक परम तोषमय पद पर पहुँचाने की चेष्टा करते हैं। दास किंवा सखीभाव की साधना मनुष्य की अंतर्मुखता को श्रीराधा-किंकरी के रूप में एक ऐसा आकर्षक एवं रुचिकर आधार प्रदान करती है जिसके सहारे वह क्रमशः बढ़ती चली जाती है। मनुष्य का अंतर्मुख रूप ही उसका स्थायी एवं वास्तविक रूप है। श्री लाड़िलीदास कहते है ‘सखी रूप त्रिगुण देह से प्रथक है। उसमें स्थित होकर ही अनुपम नित्यविहार के दर्शन होते हैं। उस रूप में स्थित होते ही त्रिगुण देह का अभिमान छूट जाता है और सुख-दुख, लाभ-अलाभ एवं मान-अमान में समता प्राप्त हो जाती है।

त्रिगुण देह तें प्रथक है सखी आपनौ रूप।
तामें स्थित ह्वै निरखि नित्यविहार अनूप।।
वामें स्थित ह्वै तजौ त्रिगुण देह अभिमान।
दुख-सुख, लाभ-अलाभ सम मानामान समान।।

उज्जवल प्रेम की परिचर्या के लिये दासी भाव आवश्यक है और दासी भाव की स्थिति के लिये परिचर्या आवश्यक है। परिचर्या के विविध अंगों का अनुष्ठान करने से दासी भाव पुष्ट होता है और दासी भाव से की गई परिचर्या पूर्ण एवं रसमय बनती है। उपासक के मन को प्रेमाधीन बनाकर अन्तर्मुख बना देना परिचर्या का फल है। प्रेम के द्वारा अन्तर्मुख बना हुआ मन ही जड़ता के बंधनो से निकल कर परम प्रेम रस का आस्वाद करता है। इस सम्प्रदाय में परिचर्या के तीन भेद माने गये हैं-प्रकट सेवा, भावना एवं नित्यविहार।
श्री राधाकृष्ण के प्रकट स्वरूपों[1] की परिचर्या को प्रकट सेवा कहते हैं। राधावल्लभीय पद्धति की सेवा में राधावल्लभलाल का त्रिभंग-ललित, वेणुवादन-तत्पर स्वरूप विराजमान रहता है और उनके वाम अंग में, एक विशेष प्रकार से, भव्य वस्त्रों के द्वारा श्रीराधा की ‘गादी’ की रचना रहती है, जिसमें कनक-पत्र पर लिखा हुआ--‘श्री राधा’ नाम धारण रहता है। इस ‘गादी’ किंवा ‘आसन’ पर ही श्री राधा की परिचर्या में आवश्यक द्रव्य धारण कराये जाते हैं।

स्थापयेद्वामभागे तु प्रेयस्या आसनं प्रभोः।
तदीपं परिचर्याहं द्रव्यं तत्रैव विन्यसेत्।।[2]

कहा गया है ‘श्री राधा के बिना न तो श्री हरि का पूजन करना चाहिये, न ध्यान करना चाहिये और न जप करना चाहिये। क्योंकि राधा के बिना क्षणार्थ में ही श्रीकृष्ण विकल होकर सुध-बुध खो बैठते हैं। इसलिये सार बेत्ता शुद्ध युगल उपासक को, श्री राधा के साथ रह कर ही प्रमुदित रहने वाले अपने स्वामी की, सदैव श्री राधा के साथ ही सेवा करनी चाहिये।’

श्रीमद्राधां बिना न प्रभुवर मनिशं श्री हरिं पूजयेच्च,
नध्यायेन्नोजपत्तामल युगलवरोपासकः सारवेत्ता।
यामादर्ध क्षणेतद्विरह विकलितो मुग्धतामेति कृष्ण-
स्तस्मात्साकं तयैव प्रमुदित मनसं स्वामिनं स्वं भजेत।।

सेवा का आरंभ प्रातः-काल से होता है। ‘स्नानादिक से निवृत्त होकर उपासक मस्तक पर तिलक एवं अंगों में भगवन्नामांकित मुद्रा धारण करता है और फिर भक्ति पूर्णता हृदय से गुरु-प्रदत्त मंत्र का जाप करता है। इसके बाद वह अपने सेव्य के मन्दिर का संमार्जन करके उसको शुद्ध जल से धोता है और सेवा के पात्रों को माँज कर साफ करता है। तदनंतर युगल का गुण-गान करता हुआ वह उनको शय्या पर से उठाता है और उनके सन्मुख जल, कुल्ला करने का पात्र एवं मुख पौंछने के लिये स्वच्छ वस्त्र रखता है स्निग्धभोग सामग्री एवं शीतल जल निवेदन करके उनको ताम्बूल अर्पण करता है और फिर श्री युगल की ‘मंगला आरती’ करता है। इसके बाद प्रभु के शरीर पर सुगंधित तेल का मर्दन करके उनको गुनगुने सुगंधित जल से स्नान कराता है और स्वच्छ वस्त्र से अंग अँगोछ कर उनका विविध वस्त्राभूषणों से श्रृंगार करता है। उनके मुख पर चंदन से मकरी-लेखन करता है और उनको पुष्पों की वैजयंती माला धारण कराकर चरणों में तुलसी अर्पण करता है। तदनंतर भोग एवं जल अर्पण करके प्रीति पूर्वक श्रृंगार आरती करता है और प्रमुदित मन से युगल की परिक्रमा करके उनको दर्पण दिखाता है। इसके बाद सेवा के अपराधों के लिये क्षमा माँगता हुआ, उनके मार्जन के लिये भगवन्नाम का जप करता है। तदनंतर वह अपने प्रभु के सामने रसिक महानुभावों के बनाये हुए पदों का गान करता है और प्रेम पूर्वक नृत्य करता है। इन सुख मय कार्यों से निवृत्त होकर वह युगल को विविध प्रकार की भोग-सामग्री अर्पण करता है और ताम्बूल अर्पण करके मध्याह्न आरती करता है। आरती के बाद सुगंधित पुष्पों के द्वारा शय्या की रचना करके अपने इष्ट को उस पर शयन कराता है और स्वयं प्रीति पूर्वक उनका चरण संवाहन करता है एवं पंखे से धीरे-धीरे हवा करता है।' जयजय श्रीश्यामाश्याम जी।

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