धैर्य और उत्साह

-- धैर्य और उत्साह – हमारी सफलता की कुंजी --

हमें धैर्य एवं उत्साहपूर्वक भक्ति करनी चाहिए । उत्साहात् निश्चयात् धैर्यात् तत्-तत् कर्म प्रवर्तनात् (श्री उपदेशामृत श्लोक -३) । हमें उत्साही होना चाहिए कि, “मुझे स्वयं को कृष्ण भावनामृत आंदोलन में में पूर्णतया रत करना है ।” उत्साह, यह प्रथम योग्यता है । सुस्ती आपकी कोई सहायता नहीं करेगी । आपको बहुत उत्साही होना होगा ।

मेरे गुरु महाराज कहा करते थे, “प्राण आछे यांर सेइ हेतु प्रचार ।” वह व्यक्ति प्रचार कर सकता है जिसमे प्राण हैं । एक मृत व्यक्ति ही प्रचारक नहीं बन सकता ।

आपको उत्साही होना चाहिए कि, “मुझे अपनी श्रेष्टतम सामर्थ्य से भगवान् कृष्ण की महिमाओं का प्रचार करना है ।”  ऐसा नहीं है कि प्रचार करने के लिए किसी को बहुत विद्वान बनना होगा । केवल उत्साह की आवश्यकता है: मेरे भगवान इतने महान हैं, इतने दयालु, इतने सुन्दर, इतने अद्भुत हैं, इसलिए मुझे उनके विषय में कुछ बोलना चाहिए ।” यही योग्यता है, उत्साह । आप कृष्ण को पूर्ण रूप से नहीं जानते । कृष्ण को पूर्ण रूप से जानना संभव नहीं है । कृष्ण असीमित हैं । हम कृष्ण को शत-प्रतिशत नहीं नहीं जान सकते, यह संभव नहीं है । परन्तु हमारी समझ के अनुसार कृष्ण स्वयं को प्रदर्शित करते हैं । यदि हम भगवान कृष्ण के निष्ठावान सेवक हैं तो उत्साही होंगे और यदि हम धैर्य पूर्वक सेवा करेंगे तो कृष्ण स्वयं को प्रकट करेंगे ।

इसी संसर्ग में एक उदाहरण दिया जाता है: जैसे एक युवती का विवाह होता है । सामान्यतः स्त्रियों को संतान चाहिए होती है । परन्तु यदि विवाह के उपरांत तत्काल ही उसे शिशु चाहिए तो यह संभव नहीं है । उसे प्रतीक्षा करनी होगी । उसे अपने पति की अच्छे से सेवा करनी होगी । उत्साहात् निश्चयात् धैर्यात् तत्-तत् कर्म प्रवर्तनात्, जैसे एक निष्ठावान पत्नी । समय आएगा जब वह गर्भवती होगी और उसे संतान होगी । इसलिए निश्चयात् अर्थात … वैसे ही जैसे युवती को पता है कि क्योंकि वह अब विवाहित है और उसका पति है, तो संतान भी होगी ही । यह तथ्य है । सम्भवतः कुछ समय के बाद ।

यदि आप उत्साही और धैर्यवान हैं और अब जब आपने भक्ति-मार्ग को अपना लिया है, तो सफलता निश्चित ही है । ऐसा नहीं है कि मुझे तत्काल शिशु चाहिए, तत्काल मैं पूर्ण कृष्ण भावनाभावित और सिद्ध बन जाऊं ।” नहीं कई प्रकार के दोष हो सकते हैं, क्योंकि हम दोषपूर्ण वातावरण में रह रहे हैं । परन्तु यदि आप शास्त्रों द्वारा निर्देशित एवं आध्यात्मिक गुरु द्वारा प्रमाणित अपनी भक्तिमय सेवाओं एवं कर्तव्यों को धैर्यपूर्वक करते हैं तो निश्चिन्त रहिये आपकी सफलता निश्चित है । यही मार्ग है । उत्साहात् निश्चयात् धैर्यात् तत्-तत् कर्म प्रवर्तनात् । आपको कर्तव्य तो करने ही होंगे ।

जैसे हमने अपने शिष्यों को कहा है कि, न्यूनतम सोलह माला जप करें । सोलह माला कुछ भी नहीं हैं । वृंदावन में कई भक्त ऐसे हैं जो १२० माला करते हैं । अतएव १६ माला न्यूनतम है क्योंकि मुझे पता है कि पाश्चात्य देशों में चौंसठ या १२० माला करना कठिन कार्य है । इसलिए न्यूनतम १६ माला । यह पूर्ण होना ही चाहिए । तत्-तत् कर्म प्रवर्तनात् । यह निर्देश है; नियामक सिद्धांतों का पालन करना । इस प्रकार हमें आध्यात्मिक गुरु एवं शास्त्रों के निर्देशों का पालन करना चाहिए । तब निश्चिन्त रहिये, सफलता निश्चित है ।

– श्रील प्रभुपाद
श्री उपदेशामृत पर प्रवचन, २० अक्टूबर १९७२, वृंदावन

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