प्रथम अध्याय 1

प्रथम अध्याय

श्रीनवद्वीप के चन्द्रस्वरूप श्रीसचीनन्दन की जय हो! जय हो ! अवधूत श्रीनित्यानन्द प्रभु की जय हो ! जय हो ! श्रीअद्वैताचार्य प्रभु की जय हो ! जय हो ! श्रीगदाधर पंडित तथा श्रीवास पंडित की जय हो ! जय हो ! अन्यान्य सभी धामों के सारस्वरूप श्रीनवद्वीपधाम की जय हो ! जय हो ! नवद्वीपवासी श्रीगौर परिवार की जय हो ! जय हो ! सभी भक्तों के चरण कमलों में प्रणाम।

    श्रीठाकुर महाशय श्रीनवद्वीप धाम के माहात्म्य का वर्णन करने में स्वयम को असमर्थ पाते हैं। श्रीनवद्वीप धाम की महिमा अपार है। जब ब्रह्मादि देव भी इसकी महिमा नहीं जानते , तब इसकी महिमा का वर्णन करने का सामर्थ्य किसी का कैसे हो सकता है। जब भगवान शेष भी अपने सैंकड़ों मुखकमल से इसका वर्णन करने में असमर्थ हैं , तब ठाकुर महाशय स्वयम को एक शुद्र जीव सम समझते हैं। यद्यपि श्रीनवद्वीप धाम की महिमा अनंत है तथा देव महादेव भी इसका वर्णन करने में असमर्थ हैं तथापि श्रीगौरसुंदर की इच्छा बहुत बलवान है , उन्हीं की इच्छा के अनुसार श्रील ठाकुर महाशय जी ने इस कार्य का सम्पादन किया है। सभी कार्य श्रीगौर सुंदर की इच्छा अनुरूप ही हो रहा है।और भी रहस्यपूर्ण बात यह है कि यधपि उनकी कहने की सामर्थ्य भी नहीं है फिर भी उनसे कहे बिना रहा नहीं जा रहा है।

     जिस समय श्रीमन महाप्रभु जी अप्रकट हुए , उस समय उन्होंने भक्तों को श्रीनवद्वीप धाम की लीला को प्रकाशित करने की आज्ञा दी।उनके अनुसार -- मेरे परमाराध्य देव श्रीचैतन्य महाप्रभु जी का अवतार अन्यान्य सभी अवतारों से अत्यधिक गूढ़ है , यह सम्पूर्ण विश्व मे प्रसिद्ध है।ऐसी गूढ़ लीलाएं अभक्तों के चित्त में उदित नहीं होती । उस लीला के सम्बंध में जितने भी शास्त्र थे मायादेवी ने उन सबको छिपाकर रखा।यद्यपि महाप्रभु जी की लीला की कथाएँ प्रकाशित और इधर उधर  अप्रकाशित ग्रंथों में बहुत स्थानों पर वर्णित थी, तथापि मायादेवी ने उन सभी कथाओं को पंडितों के नेत्रों से ओझलकर सदैव गुप्त रूप में रखा।श्रीगौरसुन्दर की गम्भीरा लीला के बाद ही महाप्रभु जी की इच्छा अनुसार जीव नेत्रों के सामने अपना मायारूपी जाल हटा जडजगत में गौरतत्व को प्रकाशित किया गया।सभी गुप्तशास्त्र अनायास ही प्रकट हो गए और जीवों में तर्क करने की प्रवृति भी नष्ट हो गयी। परमदयालु श्रीनित्यानन्द प्रभु ने जीवों के हृदय में गौरतत्व को प्रकाशित किया । उनकी आज्ञा पाकर ही मायादेवी ने आवरण हटा दिया तथा सद्भक्तों को इस धन की प्राप्ति हुई। इतना सुनकर भी इस विषय मे जिसका सन्देह दूर नहीं होता है , वह अभागा वृथा ही अपने जीवन को धारण क्यों करता है।

     श्रीप्रभु अपनी इच्छा अनुसार जिस समय जिस प्रकार की कृपा वितरण करते हैं , भाग्यवान व्यक्ति उस कृपा को प्राप्त करके बहुत आनन्दित होता है। "मैं ही सबसे अधिक बुद्धिमान व्यक्ति हु " ऐसा मानने वाले व्यक्ति को ही सबसे बड़ा दुर्भाग्यशाली समझना चाहिए।जो ईश्वर की कृपा को स्वीकार नहीं करता वह अपने कुतर्क से बार बार माया के गड्ढे में गिरता है। हे कलियुग के जीवो ! आओ कुटिनाटि को छोड़ निर्मल गौरांग प्रेम की परिपाटी को स्वीकार करो। ऐसा कहकर श्रीनित्यानन्द प्रभु बार बार पुकार रहे हैं , तब भी दुर्भागे व्यक्ति इस गौरप्रेम को स्वीकार नहीं करते हैं। वे किसलिए इस प्रेम का अनादर करते हैं आप स्वयम ही सावधानी पूर्वक विचार करें। संसार मे सभी जीव सुख की प्राप्ति के लिए ही अनेक प्रकार की युक्ति, तर्क और योग का साधन करते हैं।सुख की प्राप्ति के लिए ही संसार को छोड़कर वन में जाते हैं तथा सुख की प्राप्ति की ही एक राजा दूसरे राजा से युद्ध करता है। सुख की प्राप्ति के लिए ही कँचन और कामिनी के वश होते हैं तथा इसी को प्राप्त करने को शिल्प और विज्ञान का आश्रय लेते हैं।कुछ लोग सुख को ढूंढते ढूंढते सुख की आशा को त्यागकर दुख को सहन करने की शिक्षा प्राप्त करते हैं और कुछ सुख की प्राप्ति के लिए समुंदर में डूब आत्महत्या तक कर लेते हैं।

   नित्यानन्द प्रभु अपने दोनों हाथों को उठाकर पुकारते हैं कि हे जीव ! कर्म और ज्ञानरूप झंझट को छोड़ मेरे समीप आओ। जिस सुख को प्राप्त करने के लिए तुम इतना प्रयत्न कर रहे हो वह मैं तुमको अनायास ही दे दूंगा। उसके बदले में तुमसे कुछ भी नहीं लूंगा।इसमे न तो तुम्हारा कोई खर्च होगा न ही तुम्हें कोई कष्ट होगा। उसमे सदैव विमल आनन्द है तथा किसी भी प्रकार का कोई भृम नहीं है।इस प्रकार श्रीनित्यानन्द प्रभु ब्रह्मा आदि के लिए भी दुर्लभ प्रेम का वितरण चाहते हैं। तथापि व्यक्ति अपने कर्मदोष के कारण ही उसे लेना नहीं चाहता।क्रमशः

जय निताई जय गौर

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