द्वितीय अध्याय 2

नवद्वीपधाम माहात्म्य

द्वितीय अध्याय 2

  देवता , ऋषि और रुद्र नवद्वीप में स्थान स्थान पर विराजमान हैं।चिरकाल तक जीवन व्यतीत करने पर यह नित्यानन्द प्रभु की कृपा नहीं प्राप्त कर पाते क्योंकि जब तक देवबुद्धि का अहंकार रहता है दैन्य भाव का स्फुरण नहीं होता । तब तक अनन्य यत्न करने पर भी ब्रह्मा शिव आदि भी निताई गौर की भक्ति नहीं प्राप्त कर सकते फिर अन्यों का तो कहना ही क्या। इन सब बातों पर विश्वास रख ही इस ग्रंथ का श्रवण करो। इनमें किसी प्रकार का तर्क भी न रखो क्योंकि तर्क विर्तक अमंगल करने वाला होता है।

      श्रीचैतन्य महाप्रभु की लीला गम्भीर सागर के समान है। मोचा खोला रूपी तर्क कष्टप्रद है । तर्क करने पर कोई व्यक्ति अपना उद्धार चाहे तो वह कुछ भी प्राप्त नहीं कर पाता। उसकी सब चेष्ठाएं असफल हो जाती हैं। जो तर्क को तिलांजलि देकर साधु और शास्त्र का आश्रय ग्रहण करता है उसे अति शीघ्र ही महाप्रभु जी की कृपा प्राप्त होती है। सभी शास्त्र निरंतर श्रीनित्यानन्द प्रभु की आज्ञा से श्रीनवद्वीप धाम का गुणगान करते हैं। उनके वचनों पर विश्वास करके ही इस धाम की महिमा को समझा जा सकता है। कलियुग में अन्य सभी तीर्थ बहुत दुर्बल हैं केवल नवद्वीप धाम ही अत्यधिक बलशाली है। श्रीमहाप्रभुजी जी की इच्छा से ही यह अप्रकट था तथा इसकी महिमा अप्रकाशित थी। जब कलियुग के प्रभाव बहुत बढ़ गया तो सभी तीर्थ अतिशय दुर्बल हो गए, निस्तेज हो गए। उस समय जीव कल्याण हेतू श्रीप्रभु ने जन कल्याण हेतु ही उपाय ढूंढा। जिस प्रकार वैधराज रोगी की पीड़ा समझकर उसे शक्तिशाली ओषधि देता है , उसी प्रकार कलियुग में भव रोग का निदान भी शक्तिशाली ओषधि के बिना नहीं हो सकता।ईसलिये प्रभु ने सोचा कि यदि इस धाम को , नाम को अति गुप्त रखा तो जीव कल्याण सम्भव नहीं। यह सभी जीव मेरे दास , मेरा ही अंश हैं यदि मैंने ही इनका उद्धार न किया तो कौन करेगा। ऐसा सोचकर ही श्रीप्रभु श्रीनिताईगौर तथा समस्त पर्रिकर को साथ लेकर धाम में अवतरित हुए।उनकी यही प्रतिज्ञा है कि जीवों के कल्याण हेतु इनके सभी जंजाल नष्ट कर दूंगा।

   जिस धन को प्राप्त करना अति दुर्लभ है वह मैं इस संसार के सभी जीवों को प्रदान करूंगा। इस अवतार में मैं पात्र अपात्र का भी विचार नहीं करूंगा। मैं यह भी देखूंगा कि किस प्रकार कलियुग जीवों का नाश करता है। मैं इस धाम को प्रकाशित करूंगा और कलियुग के दांतों को तोडूंगा तथा नाम कीर्तन द्वारा जीवों को आत्मसात करूंगा। जितनी दूर तक मेरा नाम कीर्तन होगा कलियुग के दमन होगा तथा वह दूर भागेगा। ऐसा विचारकर महावदान्य श्रीगौरसुन्दर ने अपने धाम को प्रकाशित करने का विचार किया। श्रीगौरसुन्दर ने अपनी स्वरूपशक्ति योगमाया को अपने नित्य स्वरूप का विलास प्रकट करने को कहा।

   ऐसे परमदयालु प्रभु श्रीगौरहरि का जो भजन नहीं करता है कलियुग में उसके समान भाग्यहीन और शोचनीय दशा वाला कोई न होगा। ईसलिये सभी प्रकार की इच्छाएं त्याग श्रीनवद्वीप धाम के प्रति एकांतचित्त हो जाओ तथा यहीं निवास करो।
 
    श्रीनित्यानन्द प्रभु तथा श्रीजाह्वा देवी के श्रीचरनकमलों की सुशीतल छाया को प्राप्त करने की आशा से श्रील भक्तिविनोद ठाकुर द्वारा इस तत्व को प्रकाशित किया जा रहा है।

  द्वितीय अध्याय समाप्त।

जय निताई जय गौर

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