प्रेम विलास विवर्त

प्रेम विलास विवर्त

प्रेम-विलास-विवर्त का देह-मन-प्राणादि का ऐक्य-मनन, या अभेद-ज्ञान, ज्ञान-मार्ग साधक के अभेद-ज्ञान जैसा नहीं है.ज्ञान-मार्ग की मूल भित्ति ही है जीव और ब्रह्म का अभेद ज्ञान.

ज्ञान-मार्ग का साधक यह मानकर चलता है कि जीव और ब्रह्म तत्वत: एक हैं, पर अज्ञान के कारण ब्रह्म से अपने पृथक् अस्तित्व की प्रतीत होती है.अज्ञान के दूर हो जाने पर उसका भेद-ज्ञान उसी प्रकार मिट जाता है, जिस प्रकार घट के टूट जाने पर घटाकाश और महाकाश का भेद मिट जाता है.राधा और कृष्ण दोनों में कोई भी अज्ञान वृत ब्रह्मरूप जीव के समान अनित्य नहीं है.दोनों नित्य हैं, दोनों की लीला भी नित्य है.लीला-रस आस्वादन करने के लिये ही दोनों स्वरूपत: एक होते हुए भी अनादिकाल से दो रूपों में विद्यमान हैं-

राधा-कृष्ण ऐछे सदा एकइ स्वरूप.लीलारस आस्वादिते धरे दुइ रूप॥*

प्रेम-विलास-विवर्त में जो प्राण-मन-देहादि का ऐक्य होता है, वह केवल भावगत है, वस्तुगत नहीं.देह, मन और प्राण का पृथक् अस्तित्व बना रहता है, पर विलास-सुखैक-तन्मयता के कारण उनके ऐक्य का मनन मात्र होता है.राधा-कृष्ण के इस देह-मनादि के ऐक्य के मनन को कवि कर्णपूर ने 'परैक्य' कहा है.'परैक्य' शब्द का अर्थ है राधा-कृष्ण के मन का प्रेम के प्रभाव से गलकर सर्वतो भाव से एक हो जाना, वैसे ही जैसे लाख के दो टुकड़े अग्नि के प्रभाव से गलकर एक हो जाते हैं.

इस प्रकार मन का भेद मिट जाने पर ज्ञान का भेद भी मिट जाता है.दोनों को अपने पृथक् अस्तित्व का ज्ञान नहीं रहता, यद्यपि पृथक् अस्तित्व बना रहता है.ज्ञान-मार्ग के साधक में सिद्धावस्था प्राप्त करने पर ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय तीनों का लोप हो जाने के कारण न तो ज्ञाता का पृथक् अस्तित्व रहता है, न किसी प्रकार का अनुभव होता है और न किसी प्रकार की चेष्टा पर प्रेम-विलास-विवर्त में राधा-कृष्ण का पृथक् अस्तित्व रहता है, विलास-सुखैक तात्पर्यमयी अनुभूति रहती है और विलास-सम्बन्धी चेष्टा रहती है.

प्रेम-विलास-विवर्त में राधा-कृष्ण की विलास-सुखैक-तन्मयता ही है, प्रेम-विलास की परिपक्वता या चरमोत्कर्षावस्था.पर इसके परिणामस्वरूप दोनों में उस अवस्था के दो बाह्य लक्षण भी प्रतिलक्षित होते हैं.वे हैं भ्रम और वैपरीत्य.तन्मयता के कारण भ्रम या आत्मविस्मृति घटती है और आत्मविस्मृति की अवस्था में परस्पर का सुख वधन करने की वर्धमान चरम उत्कण्ठा के कारण उनकी स्वाभाविक चेष्टाओं का अनजाने वैपरीत्य घटता है, अर्थात कान्ता का भाव और आचरण कान्त में, और कान्त का भाव और आचरण कान्ता में सञ्चारित होता है.

जैसे साधारण रूप से कृष्ण वंशी बजाते हैं और राधा नृत्य करती हैं, पर विहार-वैपरीत्य में राधा वंशी बजाती हैं, कृष्ण नृत्य करते हैं.नायक और नायिका में विहार-वैपरीत्य बुद्धिपूर्वक भी हो सकता है.पर प्रेम-विवर्त-विलास में यह अबुद्धिपूर्वक होता है, क्योंकि उसमें रमण का रमणत्व रमणी में और रमणी का रमणीत्व रमण में आत्मविस्मृति की अवस्था में अनजाने ही सञ्चारित होता है.चैतन्य-चरितामृत में राय रामानन्द ने महाप्रभु से अपने वार्तालाप में प्रेम-विवर्त-विलास का इंगित एक गीत द्वारा किया है, जिसकी प्रारंभिक पंक्तियाँ इस प्रकार हैं-

पहिलहि राग नयनभंग भेल.अनुदिन बाढ़ल अवधि न गेल॥
ना सो रमण ना हम रमणी.दुहुँ मन मनोभव पेषल जानि॥

राधा कहती हैं 'नयन-भंग' अर्थात पलक पड़ने में जितनी देर लगती है, उतनी देर में (श्रीकृष्ण से) मेरा प्रथम राग हो गया.राग दिन-प्रति-दिन निरवच्छिन्न भाव से बढ़ता गया.उसे कोई सीमा न मिली.राग के निरन्तर वर्धनशील प्रवाह ने, एक-दूसरे के विलास-सुख को वर्धन करने की वर्धनशील वासना ने मानो दोनों के मन को पीसकर एक कर दिया.

परिणामस्वरूप न रमण को अपने रमणत्व का ज्ञान रहा, न रमणी को अपने रमणीत्व का.दोनों विलास-सुख की अनुभूति में खो गये और वह अनुभूति अपना आस्वादन स्वयं करती रही.श्रीरूप गोस्वामी की मादनाख्य महाभाव और प्रेम-विलास-विवर्त की व्याख्या वैष्णव-समाज को उनकी महत्वपूर्ण देन है.

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