ब्रज रसिकन भाव

ब्रज रसिकन भाव "पदरज" तृषित प्यास बुझाइए --

*‘गोपिनु कौ प्रेम परबत समान है, औरनि कौ प्रेम कूप वापी, तड़ाग, सरिता तुल्य है। अरू इनके रूप कौ उनमान जनाऊं। सर्वोपरि स्त्रीन में महालक्ष्‍मी कौ रूप हैं। ताके नख छटा की पार्वती, ताके नख छटा की ब्रह्माणी, ताके नख छटा की इंद्राणी, ताके नख छटा कौं सिंघल द्वीप, ताकौ यह जंबू द्वीप। सो लक्ष्‍मी व्रजदेवीन की नख दुति कों न पूजि सकैं। ते व्रजदेवी श्री जुगल किशोर के स्वरूप कौं निजु विहार है ताके दरसबे की अधिकारी नहीं, जाते उनको सपत्नी भाव अचल भयो है। ललितादिक बिनु नित्य विहार के देखिबे कौ कोई अधिकारी नहीं। इनको प्रेम सिन्धु समान है, जामें अनंत गिरि समाहिं ।*
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*‘सो यह सपत्नी भाव क्यों प्रगट भयो? जब वेद ने प्रभु की स्तु‍ति करी तब किशोर रूप प्रभु कौ दरसन भयौ। तब कमनीय मूर्ति देखि कामिनी भाव उपजि आयो। जो श्री ठकुरानी जी संयुक्त दरसन होतौ तौ दासी भाव उपजतौ। तातें श्री ठाकुरानी जी कौ केलि कौ दरसन नाहीं पाबतु।’*
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*‘कोऊ कहै कि दरसन की अधिकारी नाहीं तौ कलपतरू तीर जु रासरस रच्यौ तहां गोपी बुलाईं। सो रास तों श्री प्रियाजू विना होय नाहीं परम सुख की दरस नहीं भई। ताकौ समाधान हैं। द्वै-द्वै गोपिनु में एक-एक रूप धरि खेलें, तहां द्वै स्वरूप में एक गोपी भई। तौजु एक नाइका द्वै नाइक के स्वरूप कौ देखै तौ रसाभास होइ। तातै वै अपने-अपने रस में ऐसी निमग्न भईं जु एक स्वरूप सौं एक सुख मात भईं। ये न समभ्‍फ्‍ी इतने स्वरूप प्रगट हैं। जो जानै सो आपहीं सों संयुक्त जानैं। मधि युगल किशोर अरू सहचरी तिन्हैं कहां तैं देखै? अरू वे अपने सुख में इन्हें काहे कों देखै? यौं नित्य विहार कों लीला प्रकरण मिल्यौ है अरू न्यारौ है’।*

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*‘सर्वोपरि साधन यह है जो रसिक भक्त हैं तिनकी चरन रज बंदै । तिन सौं मिलि किशोरी-किशोर जू के रस की बातें कहै, सुनै निशि दिन अरू पल-पल उनकी रूप माधुरी विचारत रहैं। यह अभ्‍यास छौडे़ नहीं, आलस न करै। तौ रसिक भक्तनि कौ संग ऐसौ है आवश्‍यक प्रेम कौं अकुंर उपजै। जो कुसंग पशु तैं बचैं, जब ताईं अंकुर रहै। तब ता भजनई जल सौं सींच्यौ करै बारंबार। अरू सतसंग की बार दृढ़ कै करै तो प्रेम की बेलि हिय में बढै। फूलै जड़ नीके गहै तौ चिन्ता कछु नाहीं यह ही यतन है।’*

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*‘जहां नायक-नायिका बरनन कियो है, नायक अपनौ सुख चाहै नाइका अपनौ रस चाहै, सो यह प्रेम न होइ, साधारण सुख भोग है। जब ताई अपनौ-अपनौ सुख चाहिये तब ताई प्रेम कहां पाईयो। दोइ सुख, दोइ मन, दोइ रूचि, जब ताई प्रेम कहां पाईये है। दोइ सुख, दोइ मन, दोइ रूचि जब पाई एक न होंइ तब ताई प्रेम कहां?*

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*अनन्य अलि के स्वप्न विलास से एक स्वप्न* -
*‘इक दिन मोकों तुर आयौ। तातैं मेरी शरीर बहुत काहिल भयौ। कछु सुधि रही नहीं। तब हौं मानसी में लड़ैती कों ब्यारू करावनौ भूलिगयौ। तब मौकौं रात्रि आधी गयें पाछे नींद आई। तब मोकों सपने में कोऊ कुटी में, तै पुकारत हैं, ‘अनन्य अली लूं उठि हमकों ब्यारू कराव’ हम चड़ी बेरि के बैठि रहे हैं, बड़ी अबार भई है’। मैं सपने में सुनि के जागि उठयौ, चौकिं परयौ। सावधान भयौ तब मोकौं सुधि आई। तब मैं सुमिरन करि मन लगाइ ब्यारू कराई।’*

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*‘जब इच्छा होइ इह रस जीवनि कों दुर्गम है सो दिखाईये। तब कृपा करि अपनौ रस व्रज लीला द्वारा प्रगट करें। आप प्रगटैं तब धाम हु, परिकर हूं, प्रगटै। तहां अचिन्त्य शक्ति करि अप्रगट-प्रगट दोऊ लीला भई चली जांइ, नित्यता में कछु क्षति नांहि’*

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अतिवल्लभ जु को एक पद अनुवाद --
*नयौ नेह:-श्रृंगार रस के द्वै विभाग, एक संयोग एक वियोग। यह नयौ नैह एसौ जो संगोग में सदा रहै अरू बढ़नि नियोग सौं नाही, देखन सौं है। ज्‍यौ-ज्‍यौ देखै त्‍यौ-त्‍यौ बढे़, नित नयौ रहै, बढ़ानि निघटै नाहीं ।*

*नव रंग:- प्राप उज्‍ज्‍वल, श्‍याम कौं लाल करै, आप श्‍याम न होइ। ये तीनौ बात और रंगनि तैं नई हैं, तातैं नयौ रंग।*

*नयौ रस:- रस कहे श्रृगार रस । तकौ स्थाई भाव रति है। यह श्रृंगार लाला जू कौ स्वरूप है। या स्वरूप स्थाई प्रियाजी के रूप में है। हित संधित है, रति संधित नाहीं । यातैं नयौ रस है।*

*नवल श्‍याम वृषभान किशोरी :- प्रिया जी ने जा श्‍याम स्वरूप कौं अवलोकन कियौ सो काह ने न देख्‍यौ । अरू जा श्‍याम स्वरूप ने प्रिया जी कौं देख्‍यौ सो श्‍याम सदा एक सौ रहयौ, माधुर्य रस निमग्न । बाल, कौमार, पौगंड, अवतार, अवतारी सब नव किशोर स्वरूप में हैं। परन्तु माधुर्य रस अत्यन्त बलवान, उनमें वे कोऊ रूप प्रकाश न होंहि । तातैं दास्यभाव, वात्सल्यभाव और संख्‍यभाव वारेन वह रूप न देख्‍यौ और जे उज्जवल रस की अधिकारिनी व्रज में है तिन्हनि न देखे । यह श्‍याम कौ स्वरूप काहू के ने‍त्रनि पर न भयौं तातै नवल है।’*
‘ऐसे ही श्री वृषभानु नंदिनी जू को स्वरूप नवल हैं, तादृश श्‍याम सोई तौ देखैं और कोऊ श्‍याम हू न देखैं।‘

युगल कृपा ते और बतियाये कबहु युगल की रीत-प्रीत । मोहे कोई कोई खीजे रस वाणी न कहिये। कही को कहु , न कही कबहु न कहु । रसिक जन लिखत रहे रस - काम भेद पतो चले । हम सब ब्रज जावें , और लौट आवें , रोतो जाय मौन आय , जबहि घायल हो आय तबहि रस भेद खुले हैं , सब जावें भेड़ तांई भीड़ देख भागे पाछे-पाछे । रसिक और युगल भीड़ में कबहु मिले है का ? ब्रज विथिन में एकांत में निरखो ।  भाव विथिन -कुँजन छांडो , रसिक मिलन पे अभिनय करत हम सबहि भोगी जन , रस को अभिनय न होवे , रस को पान होवें जो युगल को रस पिय ही लेवे तब और का पिय? थूक सकें , दवा ताईं जबरन गटक सके युगल को होय पिबन ताईं तो युगल रस ही होवें । नित् देवी देवता मनाओ , गौ ब्राह्मण सन्तन सबन ते भीक्षा चाहो सबन ते कहो एक क्षण साचों युगल प्रीत रस दरसाय दे । एक क्षण साँचो जिय झुठो स्वाँग कौन कर सकें । पिय देखो , सुनत नाही , स्वयं पिय देखो । ऐसो न प्रगट होएगो युगल रस या ब्रज को रस जब ताईं साँची प्यास की अगन से सरबस्व झुठो मेरो भस्म होवै तबहि साँचे रस मधुर प्रिया-प्रियतम नैनन में , हिय में , जीवन में -अंग सुअंग में , स्वास स्वास में समाय जावें । -- सत्यजीत तृषित ।
मेरो भेद - इष्ट - अभीष्ट - सब सुख - सब रस - आश्रय-विषय सबहि *श्रीब्रजरजरानी*

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