रसिया रासेश्वरी

ब्रज की रज में धूर बनूं मैं
ऐसी कृपा करो महाराज ॥

धूर बनूं हरि चरनन पागूं
उड़ उड़ के अंगन में लागूं
बार बार ये ही मैं माँगूं
मोपै विहरैं श्याम राधिका
सब दुख जावैं भाज ॥

कोमल चरन राधिका प्यारी
उर धरि सेवैं छैल बिहारी
ऐसौ रस चरनन में भारी
वाकूँ पाऊँ बनूं धन्य
वृन्दावन रस सरताज ॥

रज में खेलैं रंग मचावैं
रज में हिल मिल रास रचावैं
रज में फूलन सेज बिछावैं
रज में करैं विलास
जुगल मिलि जानैं रसिक समाज ॥

ब्रज की धूर श्याम को प्यारी
खाई बालकृष्ण मुख डारी
धमकावैं जसुदा महतारी
माखन दूध दही तज
रोवै रज खावन के काज ॥

(रसिया रासेश्वरी)

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