प्रजल्प
*प्रजल्प एक भक्ति-बाधक*
व्यर्थ के विवाद का उदय मद (अहंकार) या मत्सर्य (ईर्ष्या) से , इन्द्रियतृप्ति से आसक्ति या घृणा से या मूर्खता या आत्म-अभिमान से होता है | झगड़ालू लोग व्यर्थ के विवादों से मदोन्मत्त होते हैं |
भगवान या उनके भक्तों के विषय में चर्चा करते समय साधक भक्तों को व्यर्थ विवादों में पड़ने से बचना चाहिए |
अकारण किसी अन्य व्यक्ति के विषय में बात करना भक्ति के लिए अत्यंत प्रतिकूल है | कई लोग दूसरों के विषय में बात करके अपनी प्रतिष्ठा को स्थापित करने का प्रयास करते हैं | कई लोग ईर्ष्यालु होने के कारण दूसरों के चरित्र की चर्चा करने के आदि होते हैं | इस प्रकार के विषयों में व्यस्त रहने वालों का मन भगवान कृष्ण के श्री चरणों में कभी स्थित नहीं हो सकता |
दूसरों के विषय में बातों को हर तरह से नकारा जाना चाहिए | परन्तु भक्ति के अभ्यास में कई ऐसे अनुकूल विषय होते हैं जो दूसरों के विषय में होते हुए भी दोषरहित होते हैं | दूसरों के विषय में पूर्ण रूप से चर्चा त्यागने के लिए व्यक्ति को वन में जाना पड़ेगा |
दो प्रकार के साधक भक्त हैं, गृहस्थ और सन्यासी | क्योंकि सन्यासियों का इन्द्रियतृप्ति से कोई लेना-देना नहीं होता इसलिए वे हर प्रकार से दूसरों के विषय में चर्चा करना छोड़ सकते हैं | परन्तु एक गृहस्थ धन-उपार्जन, धन-संचय, संरक्षण तथा परिवार के भरण-पोषण में संलिप्त होता है, इसलिए वह पूर्णतया दूसरों के विषय में बातें करना छोड़ नहीं सकता | उसके लिए कृष्ण-भावनाभावित परिवार में रहना ही श्रेयस्कर है | जब उसके सभी भौतिक कार्य भी कृष्ण से सम्बंधित होंगे तब उसकी दूसरों के विषय में अपरिहार्य चर्चा भी भक्ति का अंग होने के कारण निष्पाप हो जाएगी |
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उसे किसी के विषय में भी इस प्रकार से चर्चा नहीं करनी चाहिए जो किसी के लिए भी अहितकर हो | उसे किसी और के विषय में केवल उतनी ही बात करनी चाहिए जितनी उसके कृष्ण-भावनाभावित परिवार में आवश्यक हो | उसे किसी और के विषय में अकारण चर्चा नहीं करनी चाहिए |
पराजित करने की इच्छा से ही विवाद उत्पन्न होता है | यह बहुत निकृष्ट है | स्वयं की बुरी प्रवृत्तियों को दूसरों पर थोपने की इच्छा ही दूसरों में दोष निकालने की आदत उत्पन्न करती है | यह हर प्रकार से त्याज्य है |
दूसरों के विषय में मिथ्या या अनर्गल बातें एक अन्य प्रकार का व्यर्थ विषय है |
यदि कोई दूसरों के विषय में चर्चा करना चाहता है तो यह केवल व्यर्थ की बात है | इसलिए श्रीमद-भागवतम में भगवान कृष्ण उद्धव को निर्देश देते हैं :
*पर-स्वभाव कर्माणि यः प्रशंसती निन्दति |*
*स आशु भ्रश्यते स्वार्थाद अस्त्यभिनिवेशतः ||*
"जो भी अन्यों के गुणों एवं आचरण का गुणगान या आलोचना करने में लिप्त होता है वह शीघ्र ही माया के द्वंदों में फंसकर स्वयं के परम कल्याण से पथभ्रष्ट हो जाता है |"
*श्रील भक्ति विनोद ठाकुर कृत* *-भक्त्यालोक से उद्धृत*
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