महाप्रभु जी

(((( श्री चैतन्य महाप्रभु ))))
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‘यदा-यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत’ का संदेश भगवान कृष्ण ने कुरुक्षेत्र के महायुद्ध में अर्जुन को दिया था ।
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इसका तात्पर्य यह था कि जब-जब धर्म की अवनति होती है तब-तब ईश्वर किसी योगी महात्मा के रूप में अवतार लेते हैं और संदेश प्रचार आदि से धर्म की रक्षा करते हैं ।
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चौदहवीं विक्रमी संवत् के समय पश्चिम बगाल में अंधविश्वासों और रुढ़िवादियों का बोल बाला था ।
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नवद्वीप नाम के ग्राम में धारणा थी कि जब कोई नवजात शिशु जन्म लेता है तो शाकिनी डाकिनी नाम की चुड़ैल उस बालक का अनिष्ट करती हैं
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परंतु यदि बालक का नाम निमाई रख दिया जाए तो उसका कोई अनिष्ट नहीं होता ।
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संवत् 1407 में फास्तुन मास की शुक्ल पूर्णिमा को एक ब्राह्मण परिवार में एक बालक का जन्म हुआ ।
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पंडित जगन्नाथ मिश्र की पत्नी शुचि देवी ने इस बालक को जन्म दिया जिसका नाम लोकधारणा के अनुसार निमाई रखा गया ।
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बाल्यकाल में निमाई बड़े नटखट और क्रोधी थे । मनचाहा न होने पर ये रो-रोकर घर सिर पर उठा लेते थे । यद्यपि भगवद्भक्ति के संस्कार भी इनके अंदर थे ।
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इनका रोना सुन कर इनकी माताश्री मधुर स्वर में हरिगान गातीं और यह रोना छोड़कर बड़े ध्यान से उसे सुनते ।
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एक दिन एक अतिथि जगन्नाथ मिश्र के घर आए जो गोपाल मत्र से दीक्षित थे । जब उन्हें भोजन परोसा गया तो उन्होंने अपने इष्ट के सुमिरन में नेत्र बंद कर लिए ।
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तभी बालक निमाई ने उनके भोजन में से एक कौर खा लिया ।
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निमाई के माता-पिता ने निमाई को धमकाया और दोबारा भोजन परोसा परंतु निमाई ने फिर भोजन जूठा कर दिया । अतिथि भी बालक की धृष्टता पर रुष्ट हो उठे ।
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निमाई ने तीसरी बार भी यही क्रिया दोहराई और जब पिता इन्हें मारने के लिए दौड़े तो निमाई ने मुरलीमनोहर का सुंदर स्वरूप दिखाकर उन्हें दर्शन दिए ।
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विद्यार्थी काल में निमाई ने असाध्य परिश्रम से शिक्षा प्राप्त की । निमाई के बड़े भाई विश्वरूप उच्च शिक्षा प्राप्त कर संन्यासी हो गए थे ।
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इसी भय से जगन्नाथ मिश्र ने निमाई की शिक्षा रोक दी । निमाई ने विरोध किया तो विवश पिता ने इन्हें पढ़ने की आज्ञा दे दी ।
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कुछ समय बाद जगन्नाथ मिश्र का निधन हो गया । शुचि देवी को गहरा आघात तो लगा ही वे आर्थिक संकट में आ गईं ।
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निमाई को इन बातों से क्या लेना था । ये उच्च शिक्षा प्राप्त करने के अपने ध्येय मार्ग पर बढ़ते जा रहे थे।
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न्यायशास्त्र इनका प्रिय विषय था । इसी विषय को पढ़ने हेतु यह वासुदेव सार्वभौम की चतुष्पाठी में पहुंचे ।
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वहीं उन दिनों प्रसिद्ध न्यायवेत्ता रघुनाथ शिरोमणि भी शिक्षा ले रहे थे । उस समय रघुनाथ जी, अपना शोधपत्र ‘दीधिति ‘ लिख रहे थे ।
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चैतन्य जो निमाई का ही नाम था भी न्यायिक विषय पर कोई ग्रंथ लिख रहे थे ।
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एक दिन दोनों विद्वान नदी में सैर कर रहे थे । चैतन्य ने अपने ग्रथ के बारे में बताना शुरू किया।
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रघुनाथ जी सुनते-सुनते चिंतातुर हो उठे । ”क्या हुआ मित्र ?” चैतन्य ने पूछा ।
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मित्र, नि:संदेह तुम्हारा लेखन मेरे लेखन से अधिक श्रेष्ठ है । जो तुम्हारा लिखा ग्रंथ पढ़ लेगा, वह मेरा ग्रंथ क्योंकर पढ़ेगा । रघुनाथ बोले ।
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यदि ऐसी बात है तो आज मैं संकल्प करता हूं कि सिर्फ तुम्हारा ग्रथ ही लोग पड़ेंगे । मैं अपना ग्रंथ नहीं लिखूंगा ।
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और चैतन्य ने अपना लिखा ग्रंथ नदी में प्रवाहित कर दिया और तभी से उनका न्यायशास्त्र पढ़ना भी बद हो गया ।
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फिर इन्होंने चंडीमंडप में स्वयॅ की चतुष्पाठी खोली । 16 वर्ष की अवस्था में ही इनका शास्त्र ज्ञान अपार था । अत: इनकी चतुष्पाठी में शिक्षा प्राप्त करने के लिए सैकड़ों छात्र आने लगे ।
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फिर पितृपक्ष में श्राद्ध हेतु चैतन्य पवित्र तीर्थ गया गए । इनके साथ इनके कुछ शिष्य भी थे और ईश्वरपुरी नाम के ब्राह्मण भी थे ।
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गया में चैतन्य विष्णु पदचिन्हों के दर्शन हेतु पहुंचे । जब वहां के पुजारी ने पदचिन्हों का आवरण हटाकर विष्णु की महिमा का गान किया तो चैतन्य अपनी सुध-बुध खो बैठे ।
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इनके शरीर से स्वेद बह उठा । इनके इस भाव को देखकर अन्य लोग अचम्भित रह गए ।
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ईश्वरपुरी ने इन्हें संभाला और जब इन्हें बास्प ज्ञान हुआ तो इन्होंने ईश्वरपुरी से ही दीक्षा मंत्र लिया और स्वयं को उनके प्रति ही समर्पित कर दिया । वे कृष्ण के प्रेम में डूब गए ।
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कुछ समय पश्चात ईश्वरपुरी अदृश्य हो गए । गुरु वियोग ने चैतन्य के हृदय को अधीर कर दिया । इनकी चंचलता कहीं विलीन हो गई और ये धीर-गम्भीर बन गए ।
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कुछ दिन बाद तो ये मौन ही हो गए । बहुत आवश्यक होने पर ही ये कुछ कहते-सुनते थे । जब भी बोलते अपने नटवरनागर का ही वर्णन करते ।
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कीर्तन करते । भजन गाते । कृष्ण प्रेम में मस्त हो जाते । चैतन्य ने अपनी एक कीर्तन मंडली बनाई और कृष्ण नाम की महिमा गाने लगे ।
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इनकी माता चिंतित थीं । एक पुत्र पूर्व में योगी हो गया था और दूसरा भी उसी मार्ग पर चल पड़ा था।
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माता ने पुत्र से बात की तो पुत्र ने भक्ति का ऐसा व्याख्यान दिया कि माता अपने पुत्र पर गर्व कर उठीं ।
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चैतन्य के एक निकट आत्मीय श्रीवास चैतन्य की आध्यात्मिक शक्तियों का तब आभास कर चुके थे जब चैतन्य ने एक आम की गुठली बोई जो देखते-ही-देखते वृक्ष बन गई और उस पर फल लगकर पकने लगे थे ।
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श्रीवास भी विद्वान थे । वह चैतन्य को कृष्ण की लीलाओं का वर्णन सुनाते। चैतन्य ने एक दिन कृष्ण लीला करने का विचार किया।
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वैष्णव मंडली के सहयोग से कृष्प लीला का मंचन हुआ जिसमें चैतन्य ने राधारानी की ऐसी सजीव जीवंत भूमिका, निभाई कि सब भावविभोर हो गए ।
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फिर एक दिन चैतन्य ने स्वप्न में एक दिव्य मूर्ति देखी । ”तुम ईश्वर के जिस कार्य से आए हो, उसे स्मरण करो और शीघ्र ही सन्यास की दीक्षा लेकर जनकल्याण करो ।” दिव्यमूर्ति ने कहा ।
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चैतन्य अपनी पत्नी और माता के कारण सन्यास नहीं चाहते थे परतु एक दिन इन्हें साक्षात उस महानमूर्ति के दर्शन हुए जिसने स्वप्न में इन्हें सन्यास लेने की राय दी थी ।
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यह महापुरुष कश्मीरी दिग्विजयी विद्वान केशव भारती थे । अत में उत्तरायण संक्रांति के दिन चैतन्य को केशव भारती ने दीक्षा देकर इनका नाम श्रीकृष्ण चैतन्य रखा ।
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दीक्षा के पश्चात श्रीकृष्ण चैतन्य अपने गुरु के दंड कमंडल लेकर अपने प्राण प्यारे मदनमोहन के धाम वृदावन चल पडे ।
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जाने से पूर्व इन्होंने अपने परिवारजन और शिष्यों को समझाया । मैं अपने प्राणवल्लभ के धाम जा रहा हूं ।
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मेरी माता को धैर्य बधाना और कहना कि निमाई संभवत: उन्हें कष्ट देने के लिए ही जन्मा था ।
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लोगों ने इन्हें रोकने का प्रयास किया । बल पूर्वक इन्हें रोका गया तो ये बंधन छुड़ाकर ‘हाय कृष्ण-हाय कृष्ण’ कहते दौड़ पड़े । लोग इनके पीछे दौड़े तो ये घने वन में प्रवेश कर गए ।
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चैतन्य की स्मृति तो कृष्ण में समा गई थी । किसी भी बात का इन्हें भान न रहा । रात्रि हो गई तो ये अश्वत्थ के वृक्ष के नीचे बैठकर कृष्प नाम जपने लगे । आखों से प्रेमाश्रु गिर रहे थे ।
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भक्तगण इन्हें खोजते वहा आ गए तो चैतन्य वहां से भी दौड़ पड़े । वहां से चैतन्य शांतिपुर पहुंचे और कुछ दिन आचार्य अद्वैताचार्य के सान्निध्य में रहे ।
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माता सहित इनके भक्तगण इन्हें लेने आए । मैं अब सांसारिक बंधनों से मुक्त होकर केवल श्रीकृष्ण का होकर रह गया हूं । आप सब मेरे मार्ग को कठिनतम न करें । चैतन्य ने कहा ।
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अंतत: माता ने प्रारब्ध मानकर निमाई को नीलांचल में रहने की अनुमति दे दी । चैतन्य ने माता को धन्यवाद किया और कमलपुर में कपोतेश्वर के दर्शनों के पश्चात जगन्नाथ धाम चल दिए ।
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धाम की छटा और जगन्नाथजी का मंदिर देखकर ये विभोर हो गए और नृत्य करने लगे ।
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प्रात: होने पर इन्होंने जगन्नाथजी के दर्शन किए और प्रसाद लेकर वेदांताचार्य पंडित सार्वभौम भट्टाचार्य के घर आए जो चिर भक्ति के विरोधी थे परंतु चैतन्य की भक्ति और प्रेम के समक्ष सार्वभौम भी उन्हीं के रंग में रंग गए ।
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सार्वभौम जी ने ताड़पत्र पर चैतन्य की प्रशसा में दो श्लोक लिखे तो चैतन्य ने उसे अस्वीकार कर दिया ।
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चैतन्य के शिष्यों ने उन दोनों श्लोकों को कंठस्थ कर लिया और यही श्लोक वैष्णवों में ‘भक्तकंठ मणिहार’ कहे जाने लगे ।
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फिर चैतन्य दक्षिण यात्रा को चल पड़े । ‘हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे’ का महामंत्र जपते हुए चैतन्य और इनके परम शिष्य कृष्णदास ने गौतमी गंगा में स्नान करके मल्लिकार्जुन देव के दर्शन किए ।
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चैतन्य की ख्याति दूर-दूर तक पहुंच रही थी । तत्कालीन भक्त समाज इनके दर्शनों को आकुल रहता था और स्वयं चैतन्य अपने गिरधर गोपाल के लिए आकुल रहते ।
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जिस प्रकार गोपियां अपने वृजलाल के दर्शनों को व्याकुल होती थीं और विरह गीत गाया करती थीं उसी प्रकार चैतन्य की दशा थी । ये ‘कृष्प कृष्ण’ करते गाते-नाचते और रोने लगते ।
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यह प्रेम की वेदना थी जो ये रात्रि में भी अपने कन्हैया को पुकारते रहते । इनका कृष्ण प्रेम अंतिम सोपान पर आ गया था तभी तो इनके नेत्रों से हर समय प्रेममयी अश्रु बरसते थे ।
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इनके शिष्यगण इनकी सेवा करते और हर क्षण इनके पास ही रहते । क्या पता प्रेम में चैतन्य के पग किधर चल पड़े ।
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अचानक एक दिन चैतन्य अर्धरात्रि को पागलों की तरह रोने लगे । भक्तगण घबरा गए । भक्तगणों ने कारण जानना चाहा । मेरे कृष्ण मुझे दर्शन देकर लुप्त हो गए हैं ।
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भक्त इन्हें बलपूर्वक ले जाने लगे । मुझे जाने दो । मुझे मत रोको । कन्हैया गोवर्धन पर्वत पर बांसुरी बजा रहे हैं।
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एक दिन शारदीय रात्रि में अपने भक्तगणों को लेकर चैतन्य भ्रमण करते हुए आईटोटा पहुंच गए। वहां समुद्र की अनत जलराशि देखकर इन्हें यमुना का भास हुआ और ये उसमें कूद पड़े ।
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जब भक्तों ने इन्हें अपने बीच से गायब पाया तो विचलित होकर खोजने लगे । जाते-जाते इन्हें समुद्र के किनारे मछेरा जाति का व्यक्ति नाचते-गाते हुए मिला ।
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भाई, प्रसन्नता का क्या कारण है ? भक्तों ने पूछा । आज मैंने मछली पकड़ने के लिए समुद्र में जाल लगाया । जब मैंने जाल खींचा तो उसमें मछली के स्थान पर एक शव को फंसे पाया ।
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मैं आश्चर्यचकित था । मैंने उस शव को जाल से बाहर निकाला । जैसे ही मैंने शव को स्पर्श किया मेरी यह दशा हो गई ।
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लोकमत है कि चैतन्य ही समुद्र में कूदकर कृष्ण के प्रेम में प्राण दे बैठे । जबकि कुछ धारणाएं ऐसी भी हैं कि धीवर के जाल में यह अचेत थे । इसके पश्चात भी यह कई मास जीवित रहे ।
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तत्पश्चात कुछ दिन बाद फिर इन्हें समुद्र की जलराशि में यमुना का भास हुआ । यह उसमें कूद गए और कभी न लौटे ।
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श्रीकृष्ण चैतन्य ने ‘चैतन्य सम्प्रदाय’ का प्रवर्तन किया । इन्होंने नित्यानंद और अद्वैताचार्य को अपना प्रमुख शिष्य बनाया जिन्होंने धर्म प्रचार के लिए भ्रमण किया । नाम संकीर्तन ही इस सम्प्रदाय का प्रधान साध्य साधन है ।
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यद्यपि यह लोक नश्वर है और आत्माए इस लोक में कुछ समय के लिए ही आती हैं परंतु कुछ महान आत्माएं अपने कार्यों से सदैव और सनातन काल तक लोगों की स्मृति में जीवित रहती हैं ।
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इसी प्रकार चैतन्य महाप्रभु भी अपनी प्रबल भक्ति भावना और अद्वितीय कृष्ण प्रेम के कारण युगों-युगों तक जनमानस की स्मृतियों में जीवित रहेंगे ।

((((((( जय जय श्री राधे )))))

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