भक्तमाली 1

१ परम पूज्य भक्तमाली श्री मणिराम माली जी

श्री जगन्नाथ पुरी धाम में मणिदास नाम के माली रहते थे। इनकी जन्म तिथि का ठीक ठीक पता नहीं है परंतु संत बताते है की मणिदास जी का जन्म संवत् १६०० के लगभग जगन्नाथ पुरी में हुआ था । फूल-माला बेचकर जो कुछ मिलता था, उसमें से साधु-ब्राह्मणों की वे सेवा भी करते थे, दीन-दु:खियों को, भूखों को भी दान करते थे और अपने कुटुम्‍ब का काम भी चलाते थे । अक्षर-ज्ञान मणिदास ने नहीं पाया था।

पर यह सच्‍ची शिक्षा उन्‍होंने ग्रहण कर ली थी कि दीन-दु:खी प्राणियों पर दया करनी चाहिये और दुष्‍कर्मो का त्‍याग करके भगवान का भजन करना चाहिये । संतो में इनका बहुत भाव था और नित्य मणिराम जी सत्संग में जाया करते थे ।

मणिराम का एक छोटा से खेत था जहांपर यह सुंदर फूल उगाता । मणिराम माली प्रेम से फूलों की माला बनाकर जगन्नाथजी के मंदिर के सामने ले जाकर बेचनेे के लिए रखता । एक माला सबसे पहले भगवान को समर्पित करता और शेष मालाएं भगवान के दर्शनों के लिए आने वाले भक्तों को बेच देता। फूल मालाएं बेचकर जो कुछ धन आता उसमे साधू संत गौ सेवा करता और बचे हुए धन से अपने परिवार का पालन पोषण करता था । कुछ समय बाद मणिदास के स्‍त्री-पुत्र एक भयंकर रोग की चपेट में आ गए और एक-एक करके सबका परलोकवास हो गया। जो संसार के विषयों में आसक्त, माया-मोह में लिपटे प्राणी हैं, वे सम्‍पत्ति तथा परिवार का नाश होने पर दु:खी होते हैं और भगवान को दोष देते हैं; किंतु मणिदास ने तो इसे भगवान की कृपा मानी।

उन्‍होंने सोचा- मेरे प्रभु कितने दयामय हैं कि उन्‍होंने मुझे सब ओर से बन्‍धन-मुक्त कर दिया। मेरा मन स्‍त्री-पुत्र को अपना मानकर उनके मोह में फँसा रहता था, श्री हरि ने कृपा करके मेरे कल्‍याण के लिये अपनी वस्‍तुएँ लौटा लीं। मैं मोह-मदिरा से मतवाला होकर अपने सच्‍चे कर्तव्‍य को भूला हुआ था। अब तो जीवन का प्रत्‍येक क्षण प्रभु के स्‍मरण में लगाउँगा । मणिदास अब साधु के वेश में अपना सारा जीवन भगवान के भजन में ही बिताने लगे। हाथों में करताल लेकर प्रात: काल ही स्‍नानादि करके वे श्री जगन्नाथ जी के सिंह द्वार पर आकर कीर्तन प्रारम्‍भ कर देते थे। कभी-कभी प्रेम में उन्‍मत्त होकर नाचने लगते थे। मन्दिर के द्वार खुलने पर भीतर जाकर श्री जगन्‍नाथ जी की मूर्ति के पास गरुड़-स्‍तम्‍भ के पीछे खड़े होकर देर तक अपलक दर्शन करते रहते और फिर साष्‍टांग प्रणाम करके कीर्तन करने लगते थे।

कीर्तन के समय मणिदास को शरीर की सुधि भूल जाती थी। कभी नृत्‍य करते, कभी खड़े रह जाते। कभी गाते, स्‍तुति करते या रोने लगते। कभी प्रणाम करते, कभी जय-जयकार करते और कभी भूमि में लोटने लगते थे। उनके शरीर में अश्रु, स्‍वेद, कम्‍प, रोमांच आदि आठों सात्त्विक भावों का उदय हो जाता था। उस समय श्री जगन्नाथ जी के मन्दिर में मण्‍डप के एक भाग में पुराण की कथा हुआ करती थी। कथावाचक जी विद्वान तो थे, पर भगवान की भक्ति उनमें नहीं थी। वे कथा में अपनी प्रतिभा से ऐसे-ऐसे भाव बतलाते थे कि श्रोता मुग्‍ध हो जाते थे। एक दिन कथा हो रही थी, पण्डित जी कोई अदभुत भाव बता रहे थे कि इतने में करताल बजाता ‘राम-कृष्‍ण-गोविन्‍द-हरि’ की उच्‍च ध्‍वनि करता मणिदास वहाँ आ पहुँचा । मणिदास तो जगन्नाथ जी के दर्शन करते ही बेसुध हो गया ।

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