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 18 श्री नरोत्तम प्रार्थना - ( 18 )

 प्रार्थना :-
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ठाकुर वैष्णव गण ! करि एई निवेदन ,
मो बड़ अधम दुराचार ।
दारुण संसार निधि, ताहे डुबाइल विधि ,
केशे धरि मोरे कर पार ॥

विधि बड़ बलवान , न शुने धरम ज्ञान ,
सदाई करम पाशे बाँधे ।
न देखि तारण लेश , जत देखि सब क्लेश ,
अनाथ कातरे तेञ कांदे ॥

काम क्रोध लोभ मोह मद अभिमान सह,
आपन-आपन स्थाने टाने ।
आमार ऐछन मन , फिरे जेन अन्धजन ,
सुपथ-विषय नाहि जाने ॥

न लईनु सत मत , असते मंज़िल चित्त ,
तुया पाये ना करिनु आश ।
नरोत्तम दासे कय , देखि शुनि लागे भय,
तराइया लह निज पाश ॥

♻ शब्दकोष :-
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दारुण - कठिन
विधि - प्रारब्ध
कातर -व्याकुल हो�ना
टाने - खींचना
तुया - आपके
पाये- चरणों
पाश - पास

 अनुवाद :-
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♻ नरोत्तम वैष्णव जन के चरणों में अपनी प्रार्थना करते हुये कहते है ," हे ठाकुर वैष्णव गण ! मेरा निवेदन सुनिए , मैं अत्यन्त अधम दुराचारी हूँ....... इस दुखमय संसार सागर में मुझे विधाता ने डाल दिया है , पर आप मुझ पर कृपा कर मेरे सिर के केश पकड़ कर मुझे पार कीजिए ।"

♻ विधाता बड़ा बलवान है ,वह धर्म ज्ञान को नहीं सुनता । सदा जीवों को कर्म पाशों में बाँधे रखता है ।कहीं भी तरने का लेश मात्र भी उपाय नहीं देख पाता ।जहाँ भी देखता हूँ क्लेश ही क्लेश दिखाई देता है , इसलिये मैं अत्यन्त कातर होकर रो रहा हूँ ।

♻ काम ,क्रोध लोभ , मोह मद अभिमान के साथ अपनी अपनी ओर घसीट रहें है । मेरा तो मन एक अन्धे व्यक्ति की तरह भटक रहा है । सुपथ और कुपथ को मैं नहीं जान पा रहा हूँ ।

♻ नरोत्तम अतिशय दीन भाव से कहते है ," मैं सदमति को प्राप्त न कर सका , असद् पथ में मेरा चित्त डूबा रहा । हे वैष्णव गणे ! आपके चरणों का आश्रय मैं न ले सका । संसार की दारुण अवस्था को देख सुनकर मुझे भय लगता है ।आप करूणा कर मेरा उद्धार कर अपने पास रख लीजिए ।

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॥श्रीराधारमणाय समर्पणं ॥।

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