शीत निदान उषा दीदी

*शीत शिशिर निदान*

*जय जय राधिका माधव*

*पुनि पुनि सो सुख लहहु नित,नित पावहु पिय प्रीत।*
*रहहि निरन्तर मन मगन, निभै सदा रस रीत।।*
*वे रस सिन्धु उमगिकै ,  सिंचहिं तन मन प्राण ।*
*नव नव बेलि सुकेलि की , फूल फलै सुखदान*।।

    निज उपवन की पाटल- निकुंज में अवस्थित ,अलबेली किशोरी ने ,किसी मदिर रसरङ्ग में मज्जित-रंजित हो पार्श्व में बैठी अंतरंग सखी से मुस्कुरा कर पूछा,"सखी!शिशिर बयार के पैने वारों से बचने का कोई सरल सा उपाय नहीं है क्या ? उष्णवसनों का आवरण भी इसे ,रोक नहीं पाता ,इससे सुरक्षा का कोई उपाय तो बता। सखी मुस्कुराई, किशोरी राधिका के स्कन्ध पर कर धर ,हासपूर्ण मधुर वाणी में बोली, "उपाय है ,है क्यों नहीं, पर तू मानेगी ही क्यों ।विशेषकर हम सखियों में तो कभी भी, तू हां ना करेगी ।

     श्रीराधिका की मुस्कान और निखरी। उसका कर अपने करकंज में झूमती सी बोली, हां ,क्यों नहीं करूंगी, तो मानने की बात कहेगी तो, मानूंगी ही।चल बता ।सखी अपना हास अधरों में ही बांधे बोली ,'शिशिर-बयार के प्रहार से बचने का एक ही उपाय है, वह अपने प्रियतम को अंगदान ।दान से सब आधि -व्याधियाँ दूर होती हैं फिर तू तो परमदानी है ।दान में विलम्ब मत कर।"

     प्रियाजी खिलखिलाकर हंस पड़ी ,अत्यंत लाड़ में भर उसे तनिक ठेलकर कहा, "बातें  बनाने में बड़ी कुशल है तू ।विलंब की बात ....।वाक्य अपूर्ण रह गया। विलंब की बात अधरों पर उमड़ती , उस मुस्कान लहरी में लय, हो गई ।नैन भी एक बार किसी उत्तफुलता से विकसित हुए पर तभी प्रणय संकोच ने उनके अंदर और नैनो पर प्रतिबिंब सा लगा दिया ।सखी भी मौन रही, कुछ बोली नहीं ,मुस्कुराती रही पर समीप की सुरभित निकुंज से आती चिर -परिचित मधुर झंकृति ने.....  प्रणयिनी किशोरी को चौंका दिया ।विस्मय-विमुग्धता से भर नयन फिर एक बार विकसित हुए ।कमनीय- कलेवर पुलकित- रोमांचित हो गया,पर सखी न  तो चोंकी और ना कुछ बोली ही। हाँ, उसके राग- रहस्य पूर्ण मुख पर मुस्कान- छटा ,कुछ कहती, छेड़ती सी और-और खिल उठी। उसने एक बार मुड़ कर देखा ,वृक्ष झुरमुट से निकलते वे नीलाभ सुंदर, आते दिखाई दिए ।उसकी मुस्कान में..... और- और मधुरिमा का संचार हो गया।नेत्र उस श्यामल -सौंदर्य से पूरित हो तनिक झँपे, फिर उसने नयन खोलकर सम्भल कर  किशोरी की ओर देखा।नव नवानुरागिणी राधिका के मदिर नयन अर्धमुद्रित से थे। छलकती मुस्कान- माधुरी किसी रसावरोध से नियंत्रित हो और भी मनोहारी हो गई थी ।

    रसिक शेखर निकट आए। सखी के स्कंध पर पाणि- पंकज धर बोले ,..."तुम इन्हें क्या पाठ पढ़ा रही थी ,भद्रे !" भद्रा जी संभल गई और बोली" पाठ नहीं पढ़ा रही थी ,उपाय बता रही थी "।सुजान- सुंदर और मुस्कुराए बोले ,"कौन सा उपाय"? कहते-कहते प्रिया जैसे लग सखी के अंक में एक कर किसलय धर बैठ गए। प्रियाजी सदा की भांति आज डूबी नहीं कुछ सम्भल कर, सजग हो बोलीं,"जो तुमने पढ़ाया -सिखाया हो वही ।"
 
      रसकोविद हँसे,दोनों को झकझोर कर रस में बोर कर, बोले," मैंने ही सिखाया सही, पर बात तो काम की है। उपाय सहज है सरल है और ही महादानी सुंदरी तुम्हारा वह दान पात्र भी उपस्थित है,अब विलम्ब क्यों?"

       भद्रा जी हँसकर बोलीं,"किशोरी शिशिर-बयार से बचने का उपाय, उपक्रम स्वयं समुपस्थित है। चल तू अब उपाय रत हो ।मैं इतने पुष्प चायन करूँ "।किशोरी कुछ बोल नहीं सकी। मृदु मुस्कुराकर ,रागरंजित चितवन से उन्हें निहार, मौन ही रही।वह भी हँसती-हँसती  मुड़कर ,एक बार प्रणयी युगल , सुरागपूर्ण दृष्टि से अवलोके , बाहर खुले उपवन में आ गई ।अब तो रंगीले प्रियतम की बन आई।

     आगे से प्रियाजी का दुशाला ओढ़, पीछे से अपनी काली कमली लपेट, उनसे लगते-लिपटते से बोले,"फिर....भद्रा के बताये उपाय को, कार्यान्वित करने में, अब विलम्ब क्यों?" श्रीराधिका सिहर उठीं।कब वे दोनों अनुरागी अँगदान, अंग ग्रहण में रत हो गए ,कुछ पता नहीं। कुछ देर  मधुरिम -मिलन साम्राज्य में नीरवता का साम्राज्य रहा।... रसलोलुप कुंवर सहसा ही, वदन विधु तनिक उठा बोले,"प्रिये!भद्रा ने तुम्हें अपूर्ण उपाय बताया, पूर्ण मैं बताऊँ?"

     श्री राधिका तनिक हिलीं, प्रश्नसूचक चितवन- रसप्रवाह से प्रियतम को सींचती सी बोली," तुम ...तुम...। और वह चुप हो गई ,जाने क्यों उनकी वाणी खुली नहीं। रसरँगवर्षी किशोर फिर बोले," केवल अंगदान तो अधूरा उपाय है ,कुछ अनुपान भी तो साथ हो ।" यह कहकर और खिलखिला दिए, और फिर किसी रसझूममें भर, प्रिया को झकझोर कर बोले, "इस शीतवेला में शिशिर समीर की शीतल झकोरों में विलंब सहय नहीं है ।शीघ्र ही निदान करो ।"

      प्रियाजी सिंहरी ,पुलकी और क्या पता कैसे कैसे दान- पान के आवर्त गतिमान हुए ।शिशिर- बयार के पैने वारों की रोकथाम कब तक होती रही। कब तक शीत का निदान चलता रहा ,क्या पता।
*कलित-केलि-प्रिय श्यामघन, देहिं सतत निज सँग।*
*मज्जित करि राखें सतत,सो रसरङ्ग उमंग।।*
*वे रस-राग लुटावहिं, वितरहिं रस-अनूप।*
*दुलरावहिं अति नेह सों, रसनायक रस-भूप।।*

जय जय राधिका माधव

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